महापुरुषोंने कहा है कि , मानव समुहमे जाति नहीं वर्ग श्रेणी होती है। जातियां पशु पंछियोंमें होती है। मानव समुहमे पुरुष और स्त्री ऐसे दो वर्ग होते हैं। रंग, वर्णके आधारपर पुरुषोके दो और स्त्री के भी दो वर्ग होते है। यह दो वर्ग गोरे और काले नामसे पहचाने जाते है। दुसरी बात गोरे-काले पुरुष स्त्री की शरीर रचनामे फरक होता है। दोनोंकी शारीरिक विशेषताये अलग होती है और कार्य भी अलग होते है। किंतु गोर-काले वर्ण या रंग के कारण अलग नहीं माने जाते क्योंकि काले गोरे स्त्री-पुरुषकी विशेषतायें और खुन समान होता है। स्त्री-पुरुष काले हो या गोरे हो, उंचे हो या कम उंचे हो, उनका बौध्दिक स्तर या गुणवत्ता उनपर हुये संस्कार, शिक्षा और प्रशिक्षणपर निर्भर होता है। एकही धातुके सोनार एवं लोहार जैसे अलग अलग चीजें बनाता है। ठिक इसी प्रकारसे स्त्री-पुरुषपर संस्कार, शिक्षा, प्रशिक्षाके माध्यमस अलग अलग प्रकारकी गुणवत्ता, शक्ति, निर्माण की जा सकती है। मानव समुहकी संबोधित जातिसे कोई विशेष फर्क नहीं होता है।
फिर सवाल यह खड़ा होता है, कि मानव समुहकी अलग अलग जातियां कैसे, कब और क्यों निर्माण हुयी या निर्माण की गई, साथही किसके द्वारा निर्माण हुयी। आखिर जातियां निर्माण होने के कौनसे कारण है। हम देखते है, कि समाजमें दो प्रकारके लोग है। प्रथम है, शारीरिक श्रम करके उदरनिर्वाह करनेवाला और दुसरा है, कष्ट न करते बुध्दि, होशियारीके बलपर धन जमा करके उदरनिर्वाह करनेवाला जनसमुह। शारीरिक कष्ट न करनेवाले जनसमुहमे विशेषत: सर्वाधिक मात्रामे सत्ताधारी, बड़े व्यापारी, बड़े उद्योगपती, वर्ग एक और वर्ग दो के अधिकारी, संस्था चालक, मंदिर तीर्थक्षेत्र प्रमुख, वित्त संस्था चालक, दलाल, आडत व्यापारी, ब्याजी व्यवहार करनेवाला सावकार, मौल्यवान धातुओं के बेपारी, खदानोंके मालिक, श्रेष्ठ वर्णवादी, वित्त संस्थाओंसे कर्जा लेकर कर्ज डुबानेवाले, सत्ताधारी पक्षोंका बिके जानेवाले, जुगार, वेश्या व्यवसाय चलानेवाले, लॉटरीवाले, मनुष्य अंगोकी तस्करी करनेवाले, सरकारी लेखाधिकारी, अभियंता, डॉक्टर, वकील, न्यायधिश, आयोग प्रमुख, वितरण प्रमुख, पेट्रोल, गॅस, डिझेल, परवाना प्रमुख आदी लोगोंका समावेश होता है। यह सभी लोग विशेषत: श्रेष्ठवादी वर्गके ही होते हैं। यह श्रेष्ठतावादी वर्ग या लोग ईश्वरवादी, धर्मवादी, जातिवादी, शोषणवादी, विषमतावादी, मालकवादी, लुटारु, मानवता विरोधी, निर्दय, आरामदेही, विलासी, भोगवादी, झूटवादी, फुटवादी, कुटवादी,व साधन संपन्न होते हैं।
दूसरा वर्ग या मानव समुह, यह विशेषत: कृषक, पशुपालक, घरेलू छोटे छोटे व्यवसाय करनेवाला, बांधकाम, रस्ताकाम, परिवहन, हमाली, खोदकाम, शिल्पकारी, कशीदाकारी और बड़े बड़े उद्योग, कारखानोंमे बहुतही कम वेतनपर काम करनेवाला कर्मचारी होता है। यह वर्ग विशेषत: कनिष्ठ, शुद्र, अतिशुद्र, आदिवासी, जरायमपेशी यानी गुनहगार, अछूत, बहिष्कृत, वंचित माना जाता है। श्रेष्ठवादीके धर्मग्रंथों के अनुसार यह सभी शुद्र वर्ग नागरी सुविधाओंसे वंचित किया गया है। कनिष्ठ, शुद्र, वर्ण बाह्य सभी जनसमुह यह अखंड रुपसे श्रमजीवीही बना रहे और उनका श्रम भी श्रेष्ठवादियोंके लिये ही रहे, ऐसी नीति आज तक के शासनकर्तायोंके द्वारा बनाई गई है। अब सवाल यह पूछा जाता है, कि, भारतमे जातियां किसने, क्यों और कब निर्माण की गई हैं। इसका जवाब यह है कि, विदेशी आर्य ब्राह्मण लोग भारतमें सत्ताधिश बननेके पूर्व तक भारतमें जातियोंका अस्तित्व नहीं था। आर्य ब्राह्मण, संघर्ष, धोखेबाजी, षडयंत्र, विश्वासघात करके भारत के सत्ताधिश तो बन गये। किंतु उन्हें कृषिज्ञान, पशुओंका सदउपयोग करना, कृषि करना; मालूम नहीं था। क्योंकि वे युरोपमें, वृक्षसंपत्ती, यानी कंद, फल, फुल और मांसाहारही करते थे। अनाज निर्माण, श्रम करना, उन्हें मालूम नहीं था। वे आलसी, परोपजीवी, अश्रमी, विलासी, भोगवादी थे। इस कारण वे लुटपाट, डाकेखोरी, शोषण, भिक्षा, दान-दक्षिणाके आधारपर उदरनिर्वाह करते थे। किंतु शासक, श्रेष्ठ बनकर रहना चाहते थे। अत: मुलनिवासी, सिंधुस्थानी बहुजनोंके कष्टका शोषण करने के लिये उन्हें डरा-धमकाकर, किसीका डर बताकर खाद्यपेय पदार्थ, साधनसंपत्ती प्राप्त करना अनिवार्य हो गया। इसलिये उन्होंने प्रथम सिंधुस्थानियोंको शिक्षासे वंचित कर अज्ञानी, अंधश्रध्द बनाया। इसके साथही साथ एक अदृश्य शक्तिका डर और उनके दु:खोंके कारण बताते हुये ईश्वर, धर्म, कर्मकांड, वर्ण, जाति, विशेष धंदोकी, कर्मोकी निर्मिती की। इन सभी अदृश्य घटकोकी नाराजी, नाखुशी बताकर उन्हें खुश करने के लिये धंदे, परस्पर व्यवहार और धार्मिक कर्मकांडोंका लाभ बताया। फिर कर्मकांडो के द्वारा दान-दक्षिणा, धनसंपत्ती, साधन जमा करके वे विनाश्रम भोगवादी जीवन बिताने लगे। यह उनकी बिनाश्रमी जीवनशैली अखंड बनी रहे, इस लिये उन्होंने वर्ण व्यवस्था, व्यवसाय व्यवस्था, सामाजिक संबंध व्यवस्थाका निर्माण किया। उनकी इस वर्ण व्यवस्थामें वे सर्वश्रेष्ठ बने, रक्षक क्षत्रिय बने, कृषक, व्यापारी, पशुपालक, वैश्य बने और शेष समाज उपरोक्त तीनों वर्णोका सेवक बनाया गया, जो शुद्र माना गया। आज ब्राह्मणोंको छोड़कर अन्य सभी वर्ण शुद्र माने जा रहे हैं।
उपरोक्त वर्ण व्यवस्था के कारण जितने व्यवसाय, धंदे, व्यापार, शुद्र समुह करने लगे उतनी जातियां निर्माण हो गई। आर्य ब्राह्मण मात्र पढ़ने, पढ़ानेवाला, ईश्वर, धर्म और धार्मिक कर्मकांडोंके माध्यमसे सिंधुस्थानियोंसे दान-दक्षिणा, धनसंपत्ती, अवश्यक उदरनिर्वाहके साधन जमा करके भोगवादी जीवन बितानेवाला सर्वश्रेष्ठ समाज बन गया। तात्पर्य भारतमें जातियोंका निर्माण विदेशी परोपजीवी आर्य ब्राह्मणोंने की इसमे कोई संदेह नहीं करना चाहिए। यह जाति व्यवस्था आर्य ब्राह्मणोंने इसापूर्व 185 के बादमे ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुंगके समयमें या उसके बादमे की, ऐसा इतिहासकारोंका मानना हैं। यह जाति व्यवस्था इसवीसनके बादमें बहुत मजबुत बनायी गयी जो आत तक नष्ट नहीं हो पा रही हैं। अब यह जाति या वर्ण व्यवस्था क्यों बनाई गयी, यह जानना बहुत ही आसान हो चुका हैं।
आर्य ब्राह्मण समुह मध्य अशिया और युरोपके अनेक देशोंसे एकके बाद दूसरी तीसरी टोली इराण, इराक, इजिप्त, आदी देशोंसे होते हुये धीरे धीरे भारतभूमि घुसे थे। आरंभमें यह लोग नगरोंसे दूर गहन जंंगल पहाड़ीमे बस्ती बनाकर रहे। इन जंगलोसे सैकडों सालतक आज के नक्षलवादियोंके भांति सिंधू नगरोंपर हमला करते रहे। युरोप के जिन देशोंसे आर्य आये, वहांपर बारह महिने बर्फ और ठंडी रहती थी। साथही छह महिनेकी रात और छह महिनेका दिन रहता था। वहा खेती नहीं होती थी। पशुपालन, उनका मांस और जंगली कंद, फुल, फल यही उनका आहार था। घुम्मकड़, असंस्कृत, स्वैराचारी लोग थे। कृषिज्ञान और पशुओंका सदउपयोग भी उन्हें नहीं मालूम था। किंतू अश्वधारी और हत्यारी थे। हमला, तोडफोड, अगजली जीवहानि, पशुुचोरी, मनुष्य संव्हार और महिलाओंको उठाकर ले जाया करते थे। किंतु अंतमे प्रथम संघर्षमें आर्योकी हार हुयी थी। उन्हें सिंधुस्थानियोंद्वारा शरणार्थी बनाकर सेवक बनकर भिक्षा और दान-दक्षिणा लेकर सिंधुस्थानमें मिलजुलकर रहनेका अधिकार दिया गया था। किंतु आगे चलकर इनकी महत्वाकांक्षा बढ़ गयी। नियत भी बदल गई। अत: उन्होंने उनकी गोरी कन्याये सिंधुस्थानियोंको देना शुरु किया। दामाद, समधी बनाकर, विश्वास संपादन करके सत्ता, संपत्ती, साधन प्राप्त कर लिये। सिंधुस्थानियोंको सुरा, कामीनी, मांसाहारके जालमें, भोगविलासमें, अटकाकर राजा-महाराजाओंमे झगड़ा लगाकर, फुट डालकर कमजोर बनाया। अंतमें अवसर पाकर बच्चे राजाओंका संव्हार और शरणार्थी बनाकर सिंधुस्थानपर कब्जा किया। इसके बाद वेद, मनुस्मृति, वर्ण व्यवस्था निर्माण कर सिंधुवासियोंको अखंड रुपसे गुलाम बना लिया। आर्योको खेती का और पशु उपयोग का ज्ञान नहीं था। अन्य निर्माण क्षेत्रमें कष्ट करनेका ज्ञान नहीं था। वे लुटारु, आलसी, परोपजीवी थे। अत: सत्ता प्राप्तिके बाद वे राजा बन गये। क्षत्रियोंको देश रक्षामे लगा दिया। वैश्योंको, खेती, व्यापार, पशुपालनकी जिम्मेदारी सौप दी। शुद्रोंको उपरोक्त तीनों वर्गोकी सेवा और सहयोगकी जिम्मेदारी सौपकर वे विलासी, भोगवादी जीवन बिताने लगे। उनका यह अधिकार संपन्न विलासी, भोगवादी जीवन आज तक बना हुआ है। वे पहलेसेही श्रम नहीं करते थे। इस कारण उन्होंने मेहनत, श्रम, कष्ट के कामका वितरण, बटवारा, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्रोंमे कानून बनाकर कर दिया। यह कामका बटवारा मनुस्मृतिके अनुसार आज तक बना हुआ है। सिंधुस्थानियोंने सोचा था, कि, स्वाधिनताके पश्चात उन्हें सभी क्षेत्रोमें स्वविकासके लिये अवसर मिलनेवाला है। किंतु स्वाधिनताके बादमें आर्यही सत्ताधिश बन जाने के कारण उन्होंने आज तक देश के संविधानको अंमलमें न लाते हुये, मनुस्मृति धर्म ग्रंथको अंमलमें लानेका प्रयास करते रहे। आज उन्होंने संविधान लगभग नष्ट कर सौ. प्रतिशत मनुस्मृतिके कानून लागू कर दिये है। इस प्रकार आर्योने दुबारा सिंधुस्थानियोंका विश्वासघात किया है। उनकी इस सफलताका एक मात्र कारण सिंधुस्थानी लोगोंके लोग प्रतिनिधी यानी सभी नालायक, अविचारी, पुरुषार्थहीन, दलाल, चमचे, बेजबाबदार प्रतिनिधी मात्र है। आज इन बेजबाबदार और नालायक, मूर्ख प्रतिनिधियोंको उनके पदसे हटाकर लायक प्रतिनिधियोंकी नियुक्ति करनेकी अनिवार्यता हैं।
जय भारत - जय जगत - जय संविधान
प्रा. ग.ह. राठोड