दि.1/6/2023
पुरे विश्वमें देव,संत और महापुरुषोंकी वंदना, सम्मान, दर्शन, पूजा, भक्ति, प्रार्थना, आदर किया जाता है। उनकी जयंती, पुण्यतिथी के साथही साथ रौप्य, रजत, सुवर्ण और अमृत महोत्सव भी मनाया जाता है। वार्षिक, द्विवार्षिक, त्रैवार्षिक आदी महोत्सव भी मनाये जाते है। उनकी पद और रथ यात्रा भी निकाली जाती है। उनके स्मारक, मंदिर, पुतले भी खड़े किये जाते है। उनके चरित्र ग्रंथ लिखे और पढ़े जाते है। देव, संत महापुरुषोंद्वारा लिखे ग्रंथ भी पढ़े जाते है। ऐसा क्यों किया जाता है, यह एक चिंतनीय बात है।
वास्तवमें देव, संत, महापुरुष यह सभी असाधारण, असामान्य लोग या व्यक्तिमत्त्वके होते हैं। साधारण या सामान्य मनुष्य खुद के लियेही कष्ट और भागदौड करता है। परिवारको छोड़कर वह अन्योंके लिये कोई कष्ट नहीं उठाता और कोई मुसीबत या जोखीम भी नहीं उठाता। सामान्य मनुष्य दूसरोंके लिये कोई त्याग नहीं करता। वह अपने स्वार्थपुर्तिके लिये असत्य और शोषक, निर्दय, विश्वासघातक कार्य भी करता है। किंतु देव, संत और महापुरुष मात्र दूसरोकी,पिड़ीतोंकी सेवा और सहयोग करनेमेही अपने जीवनकी धन्यता और सार्थकता मानता है। स्वयं दु:ख झेलकर दूसरोंको सुख देनेमे या मदत करनेमेही उसे परम आनंद और खुशी होती है। जहां कहीसे उन्हें दु:ख, दर्द, पीड़ाकी आहट आती है, उसे दूर करने के लिये वे अपने जीवनकी पर्वा न करते सहयोग के लिये दौड़ पडते हैं। उन्हें मदत करते हैं। धीर देते है। सहानुभूति और प्रेम देते है। मार्गदर्शन उपदेश भी देते है। इस प्रकार वे सामान्य मनुष्यसे पूर्णत: अलग और महान होते हैं। इसी कारणवश समाज उन्हें देव, संत और महापुरुष नामसे संबोधते और सम्मान देते हैं। संत तुकडोजी महाराजने देवोंकी परिभाषा करते समय मराठीमे कहा है कि, ‘देव म्हणजे घेवचि नाही, सर्व काही देवाचि देव’ मतलब देव किसीसे कुछ भी लेता नहीं, वह देते रहता है। उसकी सेवा भक्ति मुआवजा भी वह लेता नहीं। क्योंकि वह केवल सेवाभावी, त्यागी, समर्पण करनेवाला दयावंत, संकटोंमे योगदान देनेवाला होता है। वह स्वार्थ रहित होता है। उसकी पूजा, भक्ति, सेवा के रुपमे भक्त, सेवक उसे जो कुछ देता है, यह सेवक या पुजारीकी अंधश्रद्धा होती है। वह कुछ लेताही नहीं। केवल देते रहता है। अत: पुजारीने देवोंको पूजा के माध्यमसे कुछ भी देने का प्रयास नहीं करना चाहिए। पूजा के माध्यमसे कुछ देते रहना, यह ढोंगबाजी, प्रदर्शन, अज्ञान, अंधश्रद्धा, पागलपन, समय, धन और बलकी बरबादी है। देवोंके भक्त, पुजारी, अनुयायी, निष्ठावानने देवोंसे केवल लेनेकाही काम करना चाहिए। निष्ठावानने देवसे क्या लेना चाहिए? देव के पास लेने के लिये कोई चीजें नहीं होती । उसके पास देने के लिये केवल सेवाभाव, त्याग, समर्पण, दयाभाव, क्षमा, शांति, सहनशीलता, सहयोगभाव, समता, भाईचारा, न्याय, सत्य, कर्तव्य, प्रेम, निर्व्यसनियता, मित्रता, अनुशासन आदी भाव, गुण होते हैं। यही अदृश्य भाव और गुण अनुयायिओंको ना संतती, संमती देते है और ना अन्य कोई चीजें देते हैं। जिससे संपूर्ण मानव समुहका सृजन, कल्याण और समृद्धि होती है। इन गुण, कर्म, आदर्श औीर विचारोंसेही समाज की धारणा होकर समाज सुख, शांति और आनंदको लहर या वातावरण बना रहता है और मानवतावाद, विज्ञान धर्मका अस्तित्व बना रहता है। विनाश और संघर्षका डर नष्ट हो जाता है। संतजन सत्य, विज्ञान और मानवतावादका प्रचार-प्रसार करते है और महापुरुष मानव कल्याण के महान कार्य करते रहते हैं। इसी कारण इनके उपकारोंको, आदर्शोको और त्याग को हमारे मन मस्तिष्कमे बिठाने के लिये और उन्हींके गुण, कर्म और आदर्श मार्गसे चलते रहने के लिये, उनके गुण, कर्म, विचार, आदर्शोको विस्मृति ना हो इसी हेतुसे अनुयायिओंकी उनके सामने नतमस्तक होकर वंदना करनेकी और उनके मार्गसे चलनेकी प्रतिज्ञा करनेकी बड़ी आवश्यकता है।
मराठी भाषी विद्वानने कहा है कि,
‘थोर महात्मे होऊनी गेले, चरित्र त्यांचे पहा जरा।
आपण त्यांच्या समान व्हावे, हाच बोध सापडे खरा।’
देव, संत, महापुरुषोंका गुणगान, जयजयकार, चरित्र और उनकी रचनाओंका पठण, जयंती, पुण्यतिथी और अन्य महोत्सव हम सब इस उद्देशसे मनाते है कि, हम उनके जीवनकाल, विचार, आचार, आदर्शको देखे, पढ़े जयजयकार, गुणगान करे और उन्होंने किये महान कार्य, बताये मार्गसे चले। हम भी उनके चरित्र, जीवन के समान अपना चरित्र और जीवन, कीर्ति निर्माण करे। देव, संत, महापुरुषोंके समानही बनने का हमेशा हमेशा प्रयास करे। क्योंकि हमारी इस कृतिसे पुरा मानव समुह, विश्व, खुबसुरत और सृजनशील बने। चार्वाक, तथागत बुद्ध, कबीर, रोहिदास, बसवेश्वर, चक्रधर स्वामी, नामदेव, तुकाराम, गाडगेबाबा, तुकडोजी, स्वामी विवेकानंद, सेवालाल बापु, छ. शिवाजी, संभाजी, म. फुले, शाहू, डॉ. आंबेडकर आदि महापुरुषोंने सृजनशील मानवतावादका प्रचार और प्रसार का कार्य किया। अत: इन्हीं महापुरुषोके बताये मार्गसे चलनेका उन्हें वंदन करनेका सभी निष्ठावान भारतीओंका परम कर्तव्य है। क्योंकि प्राचीन कालीन मूलनिवासी, बहुजनोंकी यही विचारधारा, जीवनसुत्र और जीवनशैली थी। उपरोक्त सभी देव, संत और महापुरुषोंकी विचारधाराका स्वीकार उसपर कृतिही इनकी सच्ची पूजा, प्रार्थना, आरती, अभिषेक, नाम स्मरण, दर्शनादी समझ लेना चाहिए। पूजा का सच्चा अर्थ कृति अंमल करना, प्रार्थना का अर्थ गुणगान करना, आरती का अर्थ गुणस्वभाव, कार्यकी आवृत्ती करना, दोहराना अभिषेक का अर्थ, उद्देशपूर्तिकी प्रतिज्ञा, नामस्मरणका अर्थ सत्यका स्मरण दर्शन लेनेसे तात्पर्य विचारधारा, तत्त्वज्ञान ग्रहण करना था लेना ऐसा लेगा ऐसा मेरा तर्क है। वर्तमान समयकी ब्राह्मणी एवं हिंदू धर्म पूजा, आरती, प्रार्थना, अभिषेक, नामस्मरण, दर्शनकी, क्षेत्रदर्शनकी पद्धत वास्तवमे व्यापार, दुकानदारी, शोषण, लुट, अंधश्रद्धा, अज्ञान, अमानवियता, स्वार्थसिद्धि, बुद्धिहीनता, बौद्धिक गुलामी, दिशाभूल, भ्रमित मानसिकता, वैचारिक दिवालखोरी, समाज और देशद्रोह, निरर्थक कर्मकांड, समय, संपत्ती और शक्तिका अपव्ययके बगैर और कुछ भी नहीं हैं।
किसी भी कल का रस पिया जाता है। फल का गर खाया जाता है। जब भी चबाकर निगला जाता है। फल और अन्न का नाम स्मरण करते रहनेसे, उसे देखते रहनेसे, या दर्शन लेनेसे, पूजा, प्रार्थना, आरती, अभिषेक करनेसे फल और अन्न रस खाने-पिने से जो तृप्ती, शक्ति, उत्साह और जीवन प्राप्त होता है, वह प्राप्त नहीं हो सकता। अन्न और फल रस, गर खानाही पड़ता है। ठिक इसी प्रकारसे किसी देव, संत, महापुरुषकी पूजा, प्रार्थना, आरती, अभिषेक, नामस्मरण करने, दर्शन लेनेसे कोई फलप्राप्ती, या लाभ नहीं होता। क्षेत्र दर्शनसे भी लाभ नहीं होता। यदि कोई पुजारी, अनुयायी, वंदक, चाहता उपरोक्त कृति नहीं करता। किंतु वह घर बैठे भी देव, संत, महापुरुषोंको गुण, स्वभाव, कार्य, सदाचार, सद्गुण अपने दिल, दिमाख और मनमें बिठा लेता है और उनका निष्ठाके साथ पावन करता है, आचरण करता है। उनपर कृति और अंमल करता है तो उसे कुछ भी करनेकी आवश्यकता नहीं। देव, संतो और महापुरुषोंके गुण एवं कार्य करनेवाला अनुयायी भी खुद देव, संत और महापुरुष बन जाता है। संत तुकाराम महाराजने कहा है कि,
‘तुझं आहे तुजपासी, परी तू जागा भूललासी।’ तथा तुझं आहे तुजपासी, का फिरतोस मथुरा काशी।’
तात्पर्य यह है कि, जो शक्ति, जो महानता, जो सद्गुण और सदाचार, जो सत्य, त्याग की भावना देव, संत और महापुरुषोंके पास है, वह हर अनुयायी के पास है। किंतु केवल स्वार्थवश वह अनुयायी उनपर कृति और नहीं करता। सामान्य और असामान्य पुरुषोंमे केवल करणी, कृति और कथनीकाही फर्क है। अन्यथा सब समान है।
संत कबीरने कहा भी है कि,
‘पशुका होत पन्हैया, नर का कछु ना होय, एक बार वह करनी करे तो नर का नारायण होय।’
अर्थ यह है कि, जन्मसे कोई देव-देवी, संत महात्मा एवं महापुरुष नहीं होता है। जन्म लेने के पश्चात हर एक इन्सान कुछ साल तक सामान्य होता है। किंतु बड़ा होते होते, जैसे वह अच्छे, बड़, बहुपयोगी, कल्याणमय, सृजनशील कार्य या करणी करने लगता है तो वहं देव, संत या महापुरुष कहलाने लगता है। देव, ईश्वर, भगवान, परमेश्वर यह सर्व शक्तिमान होता है। वह सर्वज्ञ और सर्वव्याप्त, अविनाशी होता है। वह संकटमोचक, दाता होता है। वह संतती, संपत्ती, सुख, समृद्धि, सुंदरता देता है, यह सभी काल्पनिक, मनघडंत, कल्पनारम्य धारणाये है। यह व्शिव भी ईश्वर निर्मित है, ऐसा ईश्वरवादियोंका कहना हैं। यदि विश्व ईश्वरद्वारा निर्मित है, तो विश्वमे विषमता, अनेक दोष, विकृतिया, अशांती, संघर्ष, दु:ख, परेशानिया, विवाद क्यों हैं। ईश्वरका नियंत्रण विश्वपर क्यों है। विश्व के सभी जीव यदि ईश्वरकी संतती है, तो ईश्वर उनका पालन पोषण और सुखी बनानेमे क्यों असमर्थ है। वह प्रगट रुप मे न रहकर अदृश्य रुपमें क्यों होता है। मंदिर, मठ, तीर्थक्षेत्र के देवी-देवताओंमे चेतनशक्ति है क्या। यदि चेतनशक्ति है, तो वे खुदकी रक्षा क्यों नहीं करते। उन्हें संततीको क्यों नहीं बाटता। मंदिरके विश्वस्त या भट पुजारीही केवल धन का उपयोग क्यों करते है, यह सब विचारणीय है। परोपजीवी, आलसी, स्वार्थी, समाज व देशद्रोही, भट, पुजारी, पुरोहित, भोंदू साधूसंतोंने, भगत-भोपोनेही अंधश्रद्ध, भोले अविचारी लोगोंकी मंदिर, मठ, तीर्थक्षेत्र, मूर्तिपूजा आदी के माध्यमसे लुटकर बैठे खाने के लिये बनाये है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
संत कबीरने कहा है कि,
1)‘पत्थर पूजेसे हरि मिले तो, मै पुजू पहाड़, उससे तो चक्की भली पिस खावे संसार ।’
2) ‘कांकर पत्थर जोड़ के मजिद लिये बनाये, वहा जाकर मुल्ला बांग दे क्या खुदा बहिरा हैं?
संत तुकाराम महाराजने भी कहा है कि, ‘देव पहावयासी गेलो अन देव होऊनी ठेलो।’ भजन, किर्तन, प्रवचन, नामस्मरण, दर्शन आदी के द्वारा मै मंदिर, मठ, मजिद, तीर्थक्षेत्रको देव ढुंढने गया। मुझे तो वहां देव मिला ही नहीं। लोग मुझेही देव मानने लगे। आगे उन्होंने कहा कि, ‘देव देव करता शोधता शिनले माझे मन, जेथे जाय तेथे पूजा पाषाण ।’
ईश्वरको ढुंढनेको मै हर समाज के मंदिरोंमे गया। वहां मुझे ना ईश्वर दिखा और ना मिला। मंदिरोंमे लोग निर्जीव, चेतनाहीन, निरर्थक स्वयं निर्मित काल्पनिक धातु, काष्ट, पाषाण और चित्रोंको पूजते, नमन करते देखा।
संत तुकडोजीने भी यही बात पुजारीको निम्न प्रकारसे कही है।
‘मंदिरमे क्या कर रहा है, आंखे लगाकर देखता।
घंटी हलाकर देखता और मुंडी झुकाकर देखता।
क्या है वहां पत्थर पाणी, भगवान उसमे है नहीं।
अंतमे संत कबीरने कर्मकांडो के बारेमे कहा है, यह बहुत विचारणीय है।
‘कबीरा कहे ये जग अंधा, जैसी गाय बछड़ा या सो मर निकला, झूटी चाम चटाये।
धार्मिक समझकर अधार्मिक देवी-देवताओंका कर्मकांड मतलब पूजा, प्रार्थना, आरती, अभिषेक, वास्तुशांती, ग्रहपीडा शांति, श्राद्ध, उत्तरकार्य, मूर्ति, मंदिर, विहार, चर्च, मजीद निर्माण, क्षेत्रदर्शन, यात्रा, जुलूस, मेले, मूर्तिदर्शन, पुतले, स्मारक निर्माण कर्ता पुरा जग, पुरा विश्व, पुरी दुनियाही मृत बछड़ेको चाटते रहनेवाली गाय, या बछड़ेको जिंदा समझनेवाली भोली गाय के तरह भोली या अंधश्रद्ध है। गाय के चाटते रहनेसे गाय का मृत बछड़ा कभी जिंदा होनेवाला नही था। फिर भी वह जिंदा समझकर चाटती रही। यही समझ ईश्वरवादी दुनिया की है। दुनिया ईश्वर या देवोंसे, संतोंसे, महापुरुषोंसे लेने जैसे उनके सद्गुण, सद्विचार, सहकार्य न लेकर निरर्थक, चेतनाहीन, मूर्तिओंकी पूजा, प्रार्थना, आरती, अभिषेक, दर्शन, क्षेत्रयात्रा आदीमे अपना बहुमोल समय धन और बल का प्रयोग कर अपनी जिंदगी तो बरबाद करतेही है। अंधश्रद्धा और अज्ञानका प्रदर्शन मात्र कर रहे है।
उपरोक्त कर्मकांडोंमे लगा समय, धन और बल मानव मात्रके लिये व्यय किया गया तो दुनिया सुखी, समृद्ध और सुंदरतम लगनेमे अधिक समय नहीं लगनेवाला, यही कबीर वचनावलीका सार और अर्थ या उद्देश है। और एक बोधवचन कबीरजीका है,
साधक ऐसा चाहिए, जैसा सुप सुहाय।
सार सार तो गही रहे, थोथा देयी उड़ाये।
अनाज (धान्य) साफ करने के लिये सुप का प्रयोग किया जाता है। खराब अनाज गेहू, ज्वार, बाजरा, धान (चावल), द्विदल दाले आदि कचरा, मिट्टी, कंकड मिश्रित साफ सुप द्वारा किया जाता है। उपरोक्त सभी चीजें सुपमें लेकर फटकारी जाती है। सुपसे चीजें फटकारनेसे अच्छी कसदार, सारभूत चीजोंका अंश, भाग या हिस्सा सुप पीछे रख लेता है और जो सारहीन, खराब, थोथा हिस्सा सुप नीचे गिरा देता या फेक देता है। यही बात साधक, अनुयायी, शिष्य, भक्तगणोंको देव, संत, महापुुरुषोंकी निरर्थक, बेकाम, निरुपयेागी, झूटी, थोतांड, धार्मिक, अध्यात्मिक, कर्मकांड त्यागकर पूजा, प्रार्थना, क्षेत्रदर्शन, मूर्तिनिर्माण, मूर्तिपूजा, अभिषेक, आरती, घंटानाद, दान-दक्षिणा त्यागकर केवल उनके सतकर्मों, सदविचारों, क्रांमिकर्मो और तत्वज्ञानकोही ग्रहण करनेका अपने दिल दिमाखमें बिठानेका और उसी मार्गसे चलनेका प्रयास करते रहनाही ईश्वर, साधू संत और महापुरुषोंकी सच्ची पूजा और भक्ति है।
कबीरजी स्वामी रामानंदजी के शिष्य थे। एक बार गुरुने कबीरजीको श्राद्धके अवसरपर गाय का दूध लाने को भेजा था। कबीरजी लोटा लेकर गाय का दूध ढुंढने के लिये निकल पड़े। रास्तेमें उन्हे एक मृत गाय पड़ी मिली। कबीरजीने जानबुझकर मृत गाय के सामने थोडा चारा डाल दिया और बाजूमेे बैठे रहे। प्रतिक्षा करते रहने के बाद भी जब कबीरजी दूध लेकर नहीं आ रहे थे; तब गुरु स्वयं उन्हे देखने या ढुंढने निकल पड़े। कुछ दूरीपर उन्होंने मृत गाय के सामने चारा डालकर लोटा लेकर बैठे हुए कबीरजीको देखा और कहा कि, ‘आप यहां ऐसी अवस्थामें क्यों बैठे है?’ कबीरजीने जवाब दिया कि, मैने मृत गायको दूध पाने के लिये चारा डाला हैं। चारा खाकर जब वह उठेगी तो मै दूध निकालकर आनेहीवाला था। यह सुनकर गुरुने उन्हे फटकारकर कहा कि, ‘अरे पागल! यह मरी गाय चारा खाकर दूध थोडा देनेवाली है? यह तो मरी गाय है।’ गुरुकी यह बात सुनकर कबीरजीने गुरुको शांतिसे सवाल किया कि, यदि मृत गाय चारा खाकर दूध नहीं दे सकती, तो फिर आप के मृत श्राद्ध स्वर्गमे नैवेद्य कैसे पाते है। कबीरजी का यह सवाल सुनकर उनके गुरु उनको कोई उत्तर नहीं दे सके और उन्होंने मौन धारण कर घर का रास्ता पकडा। आज के कर्मकांडप्रिय सभी शिष्यगणोंको कबीरजीसे सिख लेनेकी बहुत बहुत आवश्यकता है। और एक उदाहरण मै देना चाहता हु। मान लिजिए की, फुल-फल, पत्ते देनेवाले सभी वृक्ष सुख गये हैं। वृक्षोंका धर्म, स्वभाव, गुण या कर्तव्य हरि पत्तियां, फूल, फल देनेका है। अब यदि कोई माली या किसान इन सुखे वृक्षोंको हरि पत्ति, फुल, फल पाने के लिये इन वृक्षोंको काटोंका संरक्षण देता है। उन्हें खाद डालता है, जल देता है, जंतुनाशक औषधियां भी देता है, तो क्या ये सुखे वृक्षोंको हरी पत्तियां, फुल, फल, छाया देना कभी भी संभव नहीं हैं। वृक्षोंकी उपरोक्त सेवा या मेहनत करनेवाले माली या किसानोंको लोग पागल मानेंगे, हसेंगे और टिका टिप्पनी करेंगे। किंतु यही माली या किसान उन सुखे वृक्षोंके बीज अच्छी जमीनमे बोता है और उन्हें उपरोक्त ढंगसे संभालता या बड़े करता है, तो कुछ दिन, महिने या सालों के बाद उन बोये बीजोंके वृक्षोंसे उन्हें जरुर हरी पत्तिया, छाया, फुल, फल मिलते है, इसमें कोई संदेह नहीं है। ऐसा करनेवाला इन्सान बुद्धिमान और विद्वान माना जायेगा।
उनका समय, बल और धन भी निरर्थक व्यय ना होगा। उसको उसके प्रति फल अवश्य मिलेंगे और उसे किये कर्मोके विषयमें पश्चाताप या नाराजी भी ना होगी। वह प्रसन्न और शांतिमय जीवन जीयेगा। ठिक इसी प्रकारसे मृत देव-देवियां, साधु-संतो, महापुरुषोंकी मूर्तिया, स्मारक, पुतले, प्रतिमा, छायाचित्र आदी की पूजा, प्रार्थना, नामस्मरण, नैवद्य आदी निरर्थक कर्मकांड और विचारहीन क्रियाकलाप है। इन महानुभवोंकी प्रमिा, पुतले, स्मारक, छायाचित्रे, प्रतिकोंके, प्रतिबिंब, आदर्श के रुपमे सम्मुख रखकर अनुयायिओंको, वंदकोको, उनके गुण, स्वभाव, महान कार्योको अंतकरणमे, दिमाखमे उतारकर उनपर निष्ठा के साथ कृति या अंमल करनेकी प्रतिज्ञा नतमस्तक होकर करना, उनके सपनोंकी पूर्तता करनेमेही धन्यता, जीवनकी सार्थकता, जीवनका परमकर्तव्य, जीवन का ध्येय मानना यही उपरोक्त महामानवोंकी, महानुभवोंकी सच्ची वंदना और आदरांजली है। महापुरुषोंके गुणकर्मोको पूर्णत: अपनेमे उतार लेना यही महापुरुष सभी वृक्षफलोंकी फलप्राप्ति और अनुयायी बननेका उद्देश है। अन्य सभी कर्मकांड, निरर्थक, दिशाहीन और अविचारी है। संत तुकडोजीने उनकी मराठी भाषी ग्रामगीतामें ठिकही कहा है,
1) ‘कलकत्याच्या गाडीत बसावे आणि म्हणावे देवा मला पंढरीसी न्यावे।
ऐसिया पूजा प्रार्थने फळ यावे, कोण्या प्रकारे।’
2) ‘उगीच भरले चमत्कार आणि पूजा वातीचे डोंगर।
जवीनाचे काहीच सार नसेल, ते काय कामाचे।’
महापुरुषोंके सद्गुण, स्वभाव, अच्छे आदर्शोकी फल फलरुपी रस का पान करना, गर खाना और छिलकोंका मतलब निरर्थक कर्मकांडोका त्याग करना, यही उद्देश महापुरुषोंने मानने के पीछे हैं।
जय भारत - जय संविधान
प्रा. ग.ह. राठोड