ऋृग्वेदिक असुर और आर्य

ऋृग्वेदिक असुर और आर्य डॉ. एस. एल. सिंहदेव (निर्मोही)

1) पौराणिक ग्रंथोंमें देवासुर, देव-दानव, आर्य-अनार्य, संग्राम ऐसा उल्लेख मिलता है। इनमें असुर, दानव, दैत्य, राक्षस, अनार्य ये भारतके मूलनिवासी हैं और देव, आर्य, सुर आदि विदेशी आर्य युरोपसे भारत आकर बसे लोग हैं। देव, आर्य, सुर वास्तवमें जंगली, असभ्य, घुमक्कड, पशुपालक, कंदमूल, फल खानेवाले अकर्मण: और अकृषक थे। कृषि का इन्हें कोई ज्ञान न था। वेदोंमें यहांके मूलनिवासी बादमे असुर, दैत्य, दानव, राक्षस, अनार्य माने जानेवाले वेदोंमे विशाकुरमी। कृषक। कषक। किनास। कुटुंबी, अर्य। व्रात्य आदि नामोंसे प्रसिध्द थे। वेदोंमे असुर शब्द प्राणवान, शक्तिवान, ऐश्‍वर्यवान, देवता, अथवा ईश्‍वर के पर्याय के रुपमें भी आया हैं। असुर शब्द काही रुपांतर इसर, ईश्‍वर, परम ईश्‍वर, परमेश्‍वर आदिमें हुआ हैं एैसा भाष्यकारोंका कहना हैं। मात्र पौराणिक ग्रंथोंमे असुर शब्दको दैत्य, दानव, राक्षस, भूत, पिशाच, ऐसे दुष्टता, तुच्छता, भयानक, हिंसक, नरमांस भक्षक, अगडबंब, बड़े बड़े दातवाले, बालबाले के रुपोंमे दर्शाया गया हैं। लेखक निर्मोही एवं सिंहदेव के कथनानुसार असुर, (अर्य) शब्द वेदमें श्रेष्ठताके रुपमे 88 बार प्रयुक्त हुआ हैं, जब कि आर्य शब्द केवल 31 बार प्रयुक्त किया गया हैं। अर्य और आर्य दोनों शब्दोंका उच्चारण थोडा समान होने के कारण या दोनों शब्दोंको एक ही समझ लेने के कारण आर्य शब्द को भी श्रेष्ठताका प्रतिक मान लिया गया हैं, जो उचित नहीं हैं। मा. सिंहदेवके अनुसार वेदमें प्रयुक्त ‘कृण्वन्तोविश्‍वमार्यम’ का अर्थ विश्‍वको अर्य अर्थात खेतीहर (कृषक) बनाना हैं ना कि आर्य। आर्यका अर्थ अकृषक हैं। वेद प्राकृत भाषामें लिखा गया हैं। उसमें संस्कृत भाषा की तरह ‘कृणवन्तो+विश्‍वम+आर्यम न होकर कृण्वन्तो+विश्‍वम+अर्यम होता हैं। यहा हलंत की आवश्यकता नहीं होती। इसी प्रकार तथागत बुध्दके ‘चत्वारि अरिय सच्चानि’ तथा अरियो अठग्गो मग्गो’ का अर्थ भी चार अर्य सत्य और अर्य अष्टांग मार्ग होता हैं। इन्हें चार आर्य सत्य, तथा आर्य अष्टांग मार्ग कहना गलत हैं। देव, सुर, आर्य जो शीत देश युरोप-मध्य अशियासे भारत आये थे, इनमे और भारतीय मूलनिवासियोंमे अखंड रुपसे संघर्ष चलते रहा। किंतु इस संघर्षमें प्राचीन के पूर्व कालमें आर्योंका हमेशाही पराभव होते रहा। किंतु इस संघर्षमें प्राचीन के पूर्व कालमें आर्योंका हमेशाही पराभव होते रहा। अत: अन्तत: मजबूर होकर, देव-सुरों, आर्योने अपनी अप्सराये अति सुंदर और गोरी कन्याओंको मूलनिवासी राजा-महाराजाओं, अधिकारियो, सेनापतियों युवकों आदि को भेट देकर बार बार होनेवाला संघर्ष बंद करनेका, खुन का रिश्ता निर्माण करनेका प्रयास किया। कुछ कन्यायें ब्याहकर संघर्षशील मूलनिवासियोंको दामाद बनानेका बडा कार्य किया। कुछ कन्यायें सामर्थ्यशाली, बलवान, पुष्ट, वैभव संपन्न राजाओं और युवकोंकी, राजपुत्रोंकी ओर आकर्षित होकर भागकर जानेकी संभावनासे भी नकारा नहीं जा सकता। इस प्रकार मूलनिवासियोंके ससुर, श्‍वसुर बनकर आर्योने भारतमें शरण पा ली और यहा घुल मिल गये। इस प्रकार मूलनिवासियोंद्वारा विष कन्याओंका स्वीकार, दामाद बनना और आर्योको भारतमें शरण देना ही भारत देशकी संस्कृतिके पतन एवं गुुलामी का कारण बना। क्योंकि बार बार की लढाईयोंंसे पराजित होनेवाले ब्राह्मण। आर्य जबक ब्राह्मण वर्गमें स्थान पा गये, और भारतके संपर्कमें पढ लिखकर श्रेष्ठ बन गये तो उन्होंने उनको पराजित करनेवाले, अप्सराये (कन्याये) भगानेवाले, भिक्षा मांगनेके लिये मजबूर करनेवाले, सत्ता, संपत्ति, शिक्षासे दूर रखनेवाले मूलनिवासियोंको सत्ता पाते ही दुष्ट, नीच, पापी, तुच्छ घोषित कर दिया। इतनाही नहीं तो मूलनिवासियोंको चार वर्णोमें बाटकर एवं श्रेष्ठ कनिष्ठ की भावना उनमें निर्माण कर उनकी संघटित शक्तिको नष्ट कर दिया। इसके बाद कुछ शक्तिशाली राजाओंका संव्हार कर, किसीको सत्ताकी लालच देकर या उनका प्रमुख बनाकर अन्य देशी राजाओंका सहयोग पाकर मूलनिवासियोंकी सत्ता नष्ट कर खुद सत्ताधिश बन गये। पृ.10-11 2) प्राचीन सिंधु संस्कृति कालीन विशोंद्वारा लिखित ऋृग्वेदमे 31 बार आर्य शब्द प्रयोगमें लाया गया हैं। किंतु शब्द प्रयोगमें कही भी इसका अर्थ श्रेष्ठताका प्रतिक नहीं जान पड़ता। जितने भी प्राचीन वाङमय विभिन्न शब्दकोशों तथाा विद्वानोंकी दृष्टिमे आर्य शब्द श्रेष्ठ अर्थ प्रगट नहीं करता। हर प्रयोगमें उसका अर्थ, जंगली, असभ्य, लुटारु, क्रुरता, घुमक्कड का ही पर्यायी शब्द मालूम होता हैं। उपनिषद में भी आर्य पाप कर्म करते थे। बिना श्रम किये, दूसरोंकी श्रम की संपत्ति लुटते थे, साथही संतानोत्पति कर उनका पालन पोषण नहीं करते थे, ऐसा कहा गया हैं। इनकी संतती योगयोग से या बलात्कार से पैदा होती थी। पशुवत जीवन के कारण संतती किसकी हैं (किस पिता) की हैं यह भी मालुम नहीं होती थी। इससे यह ज्ञात होता हैं, कि, पुरुष स्त्रीसे केवल शरीर सुख के लिये ही प्रयोग करता था। संभालने की, पालन पोषण की जिम्मेदारी केवल स्त्री की ही होती थी। इसका मतलब वे असभ्य, स्वार्थी, मतलबी, धोखेबाज, बलात्कारी थे। इसका अर्थ यह भी होता हैं, कि वे पूर्णत: अनपढ़ थे। कृषि कार्य कर संसार करना नहीं जानते थे। वे हमेशाही पेट के लिये संघर्षशील रहते थे। वे केवल पशुमांस, कंद, मुल, फल आदि खाकर ही रहा करते थे। इन सभी बातोंसे वे जंगली, असभ्य, क्रुर, लडाखु थे, यह बात भली भांति सिध्द होती हैं। पृ. 118-123 3) आर्य आदिम विदेशी जंगली अवस्थाके लोगों को कहा गया हैं। इन लोगोंके अंदर मानवीय गुण नहीं थे। क्योंकि वे सामाजिक आचार-विचार नहीं जानते थे। अत: उनका जीवन प्राकृतिक एवं पशुवत जंगली जीवन था। मांसाहार ही उनका प्रमुख आहार था। आर्य प्राथमिक अवस्थामें युरोपमें नंगे रहते थे। गुफाओंमे सोते थे। कच्चे मांस, कंदमूल, फल खाना, बिना विवाह काम संबंध रखना, खेती न करना, श्रम न करना, परिवार, गांव, नगर न बसाना ऐसा आर्योका जीवन था। ऐसा यह जीवन आर्योका भारतमें आने के पूर्व का युरोप देशीय था, जिसे वे सुवर्ग, स्वर्ग कहते थे। इसी कारण वे भारतमें आने के बाद भारतीय कृषिको पाप कर्म मानने लगे और आज भी मानते हैं। वास्तवमें वेदोंमे खेती पाप कर्म, अधर्म, अकरणीय, अपवित्र हीं माना गया हैं। कारण भारत यह असुरोंका देश था और हैं। भारतीयों के लिये तो खेती काम सबसे पवित्र कर्तव्य हैं। इससे सिध्द होता हैं कि भूसूर/ भूदेव/ भूपति ही आर्योके वंशज हैं। रामायण, महाभारत, गीता, स्मृति, पुराण जैसे वैदिकोत्तर ग्रंथ ही क्यों खेती जैसे जीवनदायी, सभ्यता-संस्कृति स्त्रोत मानव कर्म के आधार कर्म को पाप कर्म, अधर्म, गर्हित, अनृत, अकरनीय कर्म कहते हैं। खेती को अकरनीय कहनेवाले का जीवनाधार कर्म प्रस्तुत समयमें कौनसा हैं। अत: गंभीर रुपसे विचारणीय प्रश्‍न हैं, कि, कृषि प्रधान भारतमें कृषिको पाप कर्म, अधर्म कहनेवाले क्या भारतीय हो सकते हैं? वास्तव मे आर्यो के मूल देश युरोपीय प्रदेश थे। जिसे आर्य/ सुर लोेेक/सुवर्ग/सुंदर/ स्वर्ग/ गोरे लोगोंका/भोगवादी लोगों का देश कहते थे। वैदिक कालमें या उसके पहले आर्य देशोंमे खेती नहीं होती थी। आर्य लोग खेती को पाप कर्म/अधर्म समझते थे। इसलिये जो लोग खेती करते थे, उनसे आर्य लोग घृणा करते थे। इसीलिये भारतीयोंके संपर्क मे आकर सभ्य, सुसंस्कृत बनने के बाद भी उनके ग्रंथोंमे खेती को पाप कर्म/अधर्म कहा गया हैं। आर्य ग्रंथ श्रीमदभगवतगीता, सभी शुद्र और कृषि, पशुपालन, व्यापार, करनेवाले वैश्योंको पापयोनि कहती हैं। रामायन भी खेतीको अधर्म कहती हैं। साथही मनुस्मृति खेतीको गर्हित (निंदित) कर्म कहती हैं। पाराशर स्मृति भी खेतीको पाप कर्म कहती हैं। इसाईयोंके धार्मिक ग्रंथ लुका मे भी खेतीको पाप कर्म माना गया हैं। इसलिये ईश्‍वर ॠजऊ ने भी केन के ज्वार को नहीं स्वीकार किया। मुसलमानोंके धर्मग्रंथ कुरान मे भी खेती द्वारा उत्पादित अन्न गन्दुम (गेहूं) खाने को अधर्म कहा गया हैं। गेहूं खा लेने पर ही आदम हब्बा को अपराधी मानकर स्वर्ग से निष्कासित कर दिया गया था। अत: आर्य देशोंमे खेती का न होना भी उन्हें असभ्य सिध्द करता हैं। पृ. 127-28 4) श्रीमद भगवद गीता का कृष्ण धर्म और भगवान के नामपर परिवारके सभी रिश्तेदारोंको, इतना ही नहीं तो गुरु को विचारोंके अभाव अपनेे स्वार्थ व बड़प्पन एवं अहंभाव के कारण सभी का संव्हार करने की शिक्षा अर्जुन शिष्य को देता हैं। हिंदू संस्कृति जहां परिवार के घनिष्ट सदस्योंद्वारा, संसार एवं दुनिया का निर्माण होता है एवं उससे भी आगे बढ़कर वसुधैव कुटुंबकम और सारे संसारको कर्मशील कृषक (अर्य) बनाने की वेद शिक्षा देते हैं, वही गीता रिश्तेकी दुनियांमें आग लगाकर युध्द का उन्माद निर्माण करती हैं। रामायण भी एक ही जाति के राम और रावण को युध्द की आग में झोंककर जाति विनाशका ही निमंत्रण देती हैं। इन दोनों ग्रंथोंका परस्पर संबंध हो या ना हो, परंतु जातीय गृहयुध्द की परिस्थिति का उन्माद आवश्य पैदा करती है। पृ. 189-90 5) ऋृग्वेद के मूल मंडलों में कही भी वर्ण व्यवस्था का उल्लेख नहीं हैं। उनमें विश समान (जाति) के ही कुछ लोग कविता लिखने/ गाने की पुरोहिता करने के कारण ब्राह्मण तथा कुछ लोग रक्षा तथा शासन करने के कारण क्षत्र के रुपमें पहचाने जाते थे। परंतु आर्योने दसम मंडल मेंं महाभारत और मनुस्मृति की वणारक्षण की व्यवस्था घुसेड दी। आगे उसे वैदिक सिध्द करने के लिये तथा प्रस्थापित करने के लिये ही ब्रम्हा के मुंहसे ब्राह्मण, दंड से क्षत्रिय, जांघोसे वैश्य और पैरोसे शुद्रोकी उत्पत्ति बताई गई। क्योंकि यह व्यवस्था स्वीकार करने के लिये उन्हें वेदोंका आधार लेना अनिवार्य था। 5) प्राचीन वेद ग्रंथोंका प्रक्षिप्तिकरण - आर्य भूसुरोंने उनकी स्वर्गवादी भूसूर संस्कृति एवं स्वयंको स्थापित करने के लिये नये नये ग्रंथो की रचना की। इन नये ग्रंथोमें उन्होंने प्राचीन कालसे प्रस्थापित वेद आदि प्राचीन ग्रंथोमे मिलावट कर उन्हें अपना अथवा अपने अनुरुप बनाने की कोशिश की। उदाहरण के लिये हिंदुओं की एवं विश्‍वकी प्राचीनतम पुस्तक ऋृग्वेद मे पहले मात्र छ: मंडल (2-7) मंडल तक ही थे, जिन्हें वंश मंडल या मूल मंडल कहा जाता हैं। यही मूल ऋृग्वेद था। शेष मंडल प्राचीनतम और हिंदुओंकी प्राचीनतम पुस्तक में क्यों जोड़े गये। जब इन जोडे गये मंडलो के कश्य को देखते हैं तो उत्तर समझमें आने लगता हैं। उदाहरण के लिये ऋृग्वेद के मूल मंडलों में कही भी वर्ण व्यवस्था का उल्लेख नहीं हैं। दसवे मंडल के माध्यमसे उन्होंने (आर्यो) ने महाभारत के नायक भगवान कृष्ण के मुख से कहलवाया कि वर्ण व्यवस्था गुण कर्म के आधारपर मैने बनाई हैं। परंतु उनकी यह प्रस्थापना उसी समय धूल धुसरित हो जाती हैं, जब की गुण कर्मसे क्षत्रिय एकलव्य और कर्ण को उनके सामने ही उनके साथी पांडव आदि उन्हें शुद्र के अलावा क्षत्रिय मानने को तयार नहीं होते। परशुराम गुण कर्मसे क्षत्रिय होते हुये भी ब्राह्मण ही बने रहे। इसी प्रकार भगवान राम द्वारा भी वर्ण व्यवस्था की वकालत कराई गई, परंतु उन्हीं के हाथों गुण कर्म से ब्राह्मण शंबुक का वध भी कराया गया। क्योंकि उसे शुद्र ही माना जाता रहा। राम के हाथों शंबुक का वध कराय जाने का उद्देश भी वर्णारक्षण को प्रस्थापित करना ही था। क्योंकि इससे लेखक भूसूर यह दिखाना चाहते थे कि, ऐ शुद्रों, जिस राम को तुम आदर्श मानकर ‘राम उपाधि’ धारण करते हो और राम राम आदि करते हो, ाावह राम भी नहीं चाहता था कि शुद्र पूजा/तपस्या आदि करे। इसीप्रकार कर्मभूमि भारत के लोगोंको कर्मवादी, यथार्थवादी, वैदिक आचरण से भिन्न भाग्यवादी, स्वर्गवादी, भगवानवादी बनाने के लिये ही संभवत: भूसुरोंने आत्मा-परमात्मा, भाग्य, मोक्ष, पुनर्रचना, कर्मफल, स्वर्ग, नरक आधारित दर्शन दिया। जिसे वेदांत दर्शन कहा गया। इसे कहा गया तो वेद का अंतिम दर्शन, परंतु यह वेद का अंत करनेवाला दर्शन सिध्द हुआ। क्योंकि इसने भारतीयोंको वेदोंके यथार्थवादी दर्शन से हटाकर भाग्यवादी बना दिया और लोग इसे दुनिया से आस्था रखने के बजाय भूसुरों के स्वर्ग में अधिक आस्था रखने लगे। काल्पनिकता यहां का आदर्श बन गया। वेदांत का यह भाग्यवादी, मायावादी दर्शन भी दसम मंडल में ही मिलाया गया हैं। इसका उद्देश भूसुरों को वेदांत दर्शन को वैदिक सिध्द करना तथा उसे प्रस्थापित करना था। पृष्ठ. 191-92

G H Rathod

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