मनुष्यको विचार एवं बुध्दिनेही मनुष्य बनाया है। यदि मनुष्यके पास विचार और बुध्दि नामकी शक्ति ना रहती तो वह पशुही कहलाता। दुनियामे पशु तो अनेक कुंटल या टनके भी है। किंतु वे मनुष्य या इन्सान नहीं कहलाते। प्रकृतिने मनुष्यको बुध्दि, विचार और दोनो हाथ दिये है। विचार, बुध्दि और हाथोके कारण वह आज अंतरिक्षमे बस्ती बनाने लायक बना है। इतनाही नहीं तो उसने पुरी प्रकृतिको भी अपनी मुठ्ठीमे दबा रखा है। पशुमे भी कुछ हदतक बुध्दि है। प्रशिक्षणसे पशुमें बुध्दिका विकास किया जाता हैं। किंतु हाथोंके अभावमें वह कुछ भी नहीं कर सकता। मनुष्यके आगे पशु नही बढ़ सकता। इन्सानने प्रकृति प्रदत विचार, बुध्दिकी सहायतासे प्रकृतिको भी मुठ्ठीमे रखनेका, प्रयोग करनेका प्रयास कर रहा है। प्रकृति प्रदत यह बुध्दि भी दो प्रकारकी है। यह दो प्रकार अविकृत और विकृत माने जाते है। इन्हे मानवतावादी-अमानवतावादी, उपयुक्त-अनुपयुक्त, सर्जनकारी-विनाशकारी, समतावादी-विषमतावादी, शोषक-पोषक, विधायक-विध्वंसक, आदी नामोंसे भी संबोधा जाता है। अविकृत विचारोंसे प्रकृतिका सर्जन, कल्याण होता है। विकृत विचारोसे प्रकृतिका, विनाश, विध्वंश होता है। जब प्रकृतिपर अविकृत विचारोंका प्रभाव बड़ी मात्रामें होता है, तब मनुष्य समुह सुख, समृध्दि और शांति के शिखरपर रहता है। किंतु जब विकृत विचारोंका प्रभाव बढ़ता है, तब मानव समुह, दु:ख, पीड़ा, वेदना, हैरानियोंसे परेशान होकर विनाशकी ओर बढ़ने लगता है। सृष्टि प्रकृतिके आरंभसे यह अविकृत-विकृत विचारोंका संघर्ष चालू है। कुछ समयके लिये अविकृत विचारधारा, बुध्दि सफल होती है, तो अगले कुछ समय के लिये विकृत विचारधाराका विकृत, बुध्दिका विजय होता है। दोनोंमे स्पर्धा लगी रहती है। यह स्पर्धा, मेरे विचारसे सृष्टि, प्रकृतिके अंत तक चलती रहेगी।
आर्य ब्राह्मण भारतमे आने के पूर्व भारतमें केवल एकही अविकृत विचारधारा का प्राबल्य था। इस अविकृत विचारधाराको प्रसिध्द इतिहासकार डॉ. स्वपनकुमार बिस्वास ने तथागत गोतम बुध्द के पूर्व के 27 बुध्दोंकी धम्म विचारधारा मानी है। उनका मानना है, कि आर्य भारतमे आने के पूर्व सिंधू क्षेत्रकी सभ्यता यह श्रमण, समण, सतज्ञानी, सतमार्गी, सतजीवी, सत आचरण, व्यवहार, सतप्रेम, सहजीवी, भाईचारा प्रधान प्रकृति, पूर्वज, पशु, पंचतत्व वंदक थी। उनकी विचारधारामें भगवान, भाग्य, धर्म, जाति, मंदिर, मूर्ति, पूजा, प्रार्थना, अवतार, यज्ञ, स्वर्ग-नरक, वर्ण व्यवस्था आदि शोषक और काल्पनिक संकल्पनायें नहीं थी। किंतु विदेशी आर्योने भारतमे प्रवेश किया। इतिहासकार डॉ. एस.एल. निर्मोहीने उनकी रचना ’ॠग्वेदिक असुर और आर्य‘ इसमें बताया है, कि आर्य लोग मध्य आशिया और युरोपके 21 देशोंसे टोली टोलीके रुपोंमे इराण इराक होते हुये भारतमें आये। आर्य लोग पूर्णत: जंगली, असभ्य, असंस्कृत, घुमंतु, अकृषक, अश्रमी, कंदमुल, फल, मांसाहारी, स्वैराचारी, भोगवादी, स्वर्गवादी, लढावू, अश्वधारी, शस्त्रधारी थे। भारतके जंगलोंमे छूपकर इन्होंने हजारो साल सिंधू निवासियोंके साथ संघर्ष किया। संघर्षमें हारने के बाद शरणार्थी और भिक्षूक बने और उनकी गोरी कन्याये (अप्सराये) सिंधूवासियोंके राजा, महाराजा, राजपुत्रोंको, धनवानोंको भेट देकर और दामाद, समधी बनाकर प्रथम विश्वास संपादन किया और बादमें धीरे धीरे एकेक राजाओंकी हत्या करके सिंधूवासियोंपर कब्जा कर आर्योकी सत्ता स्थापन की। यह लोग खेती और मेहनत करना नहीं जानते थे। शरणार्थी, भिक्षुक थे। पूर्णत: परोपजीवी थे। इसलिये बिना कष्ट बैठकर आरामदायी जीवन बितानेके लिये उन्होंने एक योजना बनाई। भगवान, भाग्य, कर्मफल, पूर्व जन्म, अवतार, धर्म, वर्ण, जाति, व्यवसाय, मूर्ति, मंदिर, पूजा, प्रार्थना, ग्रंथ सप्ताह, यज्ञ, दान-दक्षिणा आदि कृत्रिम काल्पनिक साधनोंका उन्होंने निर्माण किया। सिंधुवासियोंपर शिक्षा, सत्ता, संपत्ती, शस्त्र धारण न करने के बंधन लादकर, गुलामी लादकर, दान दक्षिणा और राजा के कृपापात्र बनकर आजतक यह आर्य ब्राह्मण विलासी जीवन बिता रहा है। आर्य ब्राह्मणोंने लगायी हुयी बिमारी या रोग आजतक बहुजनोंके दिल दिमाखमे घुसे हुये है। इस ब्राह्मणी षडयंत्रको बिमारी, रोग के साथही साथ विकृत, अंधश्रध्द, विचार भी कहना चाहिए। आर्य ब्राह्मणोंके यह विकृत, अमानवी, शोषक विचारोंके, जब तक हम बहुजनोंके दिमाखसे निकालकर उन्हें मानवतावादी सत्य मार्गसे चलने के लिये प्रेरित और जागृत नहीं करेंगे तब तक बहुजन आर्योने बनाये देवी देवता, कर्मकांडोंके गुलाम बने रहेंगे और पशुवत जीवन बिताते रहेंगे। भगवान, भाग्य, कर्मफल और धर्म, कनिष्ठ जाति, वर्ण के कारणही हम ब्राह्मणोंकी गुलामी कर रहे है, यह भ्रमात्मक विकृत विचार जब तक हम बहुजनोंके दिल दिमागसे हटाकर उन्हें मूल सिंधूकालीन आदर्श, मानवी सभ्यताकी पहचान करानेमें हम असमर्थ रहेंगे, तब तक ब्राह्मणोंकी गुलामी निश्चित है, ऐसा सभी बहुजनोंको समझ लेनेकी अवश्यकता है। इसल्लिये बहुजनोंके विचारवंतोंका यह परम कर्तव्य है, कि आज की देव, दैव, जाति, वर्ण, मूर्ति, मंदिर, पूजा, प्रार्थना, तीर्थयात्रा, ग्रंथ पठण की विकृत विचारधारा हमारी न होकर, यह ब्राह्मणी, आर्य लोगोंकी विचारधारा है और इस विकृत विचारधाराका त्याग कर हमे हमारी प्राचिन अविकृत विचारधारासे जुड़कर या स्वीकार करके ब्राह्मणी गुलामीसे मुक्त होना अवश्यक है।
बहुजनोंकी प्राचीन सत्यनिष्ठ विचारधारा, विज्ञान मानवतानिष्ठ विचारधारा और आर्योकी स्वार्थपूर्ण, कृत्रिम, काल्पनिक विकृत, आमनवी विचारधारा इनमे पूर्व पश्यिम दिशाके या छत्तीस के अंक के भांति विरोधाभास है। प्राचीन सिंधूकालीन, सत्य, ज्ञान, विज्ञान, श्रमनिष्ठ विचारधारा और आजकी आर्य ब्राह्मणोंकी, ईश्वर, धर्म, जाति, वर्ण, कर्म प्रधान विचारधाराके कारण बहुजनोंके सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजकिय जीवनशैलीमे क्या फरक है। साथही आर्योकी विकृत अमानवी संस्कृति स्वीकार लेने के या उसमें फस जाने के कारण बहुजनोंका जीवन क्यों और कैसा पशुमय बन चुका है, इस दुरावस्था पर सोच, विचार, चिंतन, मंथन, करके बहुजनोंको विचारोंमे परिवर्तन क्यों अवश्यक है, इसका निर्णय लेना हैं।
आर्य ब्राह्मण सिमेंट, टार रोडसे, या वायुयानसे यात्रा कर रहे है और बहुजन बैलबंडीसे कच्चे रस्तेसे यात्रा कर रहे हैं। दोनों रस्तोंकी यात्रामे किसका बहुत बड़ा फायदा और किसका बहुत बड़ा नुकसान हो रहा है, इस बारेमें बहुजन यदि सोचते नहीं होंगे, तो उन्हें रस्तोके फल भोगनेही पडेंगे। इसलिये बहुजनोंको विचार, चिंतन करके अपनी विचारधाराकी दिशा बदलना अनिवार्य हैं। बहुजनोंको लक्ष्यपूर्तिके लिये पूर्व दिशाको गमन करना था। लेकिन वह गलतीसे पश्चिम दिशा की ओर निकल पड़ा है। इस कारण वह लक्ष्य, साध्य तक कभी भी पहुजनवाला नहीं हैं। उसे पश्चिम दिशा का त्याग कर पूर्व दिशाकी यात्रा करनी होगी। तथी वह अपने लक्ष्य तक पहुच सकता है। आर्य ब्राह्मणोंकी विकृत विचारधारा बहुजनोंकी ना कभी थी और भविष्यमें भी कभी ना रहना चाहिए।
इसलिये बहुजन विद्वानोंका बहुजनोंकी वर्तमान ब्राह्मणी विचारधारा में बदल करके उन्हें उनकी प्राचीन बहुजन विचारधारासे जोडनेेकी अवश्यकता है। विचारोंकी दिशा बदलनेके बादही परिवर्तन होता है। परिवर्तन होने के बादही किसी कार्यमें या समाजमें बदल होता है। इसलिये सामाजिक, आर्थिक, राजकिय, सांस्कृतिक परिवर्तन यदि लाना चाहते हो तो प्रथम समाज के विचारोंमे परिवर्तन लाना अनिवार्य होता है। अन्यथा कोई परिवर्तन संभव नहीं होता। वर्तमान समयमें बहुजनोंको ब्राह्मणी विचारधाराको त्याग कर प्राचीन श्रमण, सत्य, वैज्ञानिक, प्राकृतिक धम्म विचारधाराको धारण करना होगा। अन्यथा भविष्यमें हजारो साल और ब्राह्मणोंकी गुलामी करते पशुमय जीवन जीना होगा।
जय भारत - जय विश्व - जय संविधान
प्रा. ग.ह. राठोड