सिंधू नदी और सिंधू सभ्यताका सच्चा इतिहास

सिंधू नदी और सिंधू सभ्यता/संस्कृति/जीवन पद्धती के बारेमें बहुत सारी साधक-बाधक चर्चा चालु है। विवाद भी उभर आते दिखाई देते है।

ता. 28/12/2021 सिंधू नदी और सिंधू सभ्यताका सच्चा इतिहास सिंधू नदी और सिंधू सभ्यता/संस्कृति/जीवन पद्धती के बारेमें बहुत सारी साधक-बाधक चर्चा चालु है। विवाद भी उभर आते दिखाई देते है। यदि इस बारेमे प्राचीन सत्य इतिहास उपलब्ध नहीं है, तो कुछ सीमातक तर्क के आधारपर सत्य इतिहास के पहुचनेकी अवश्यकता है। केवल कुछ इतिहासकारोंके कथनपर विश्‍वास कर लेना ठिक नहीं है। वर्तमान समयमे जिस नदीको हम सिंधू नदी मानते है, यह वास्तवमे सरस्वती नदी है। इस सिंधू या सरस्वती नदीकी उत्पत्ति वास्तवमे हिमालय पर्वत/कैलास शिखर से हुई है। हिमालय पर्वत या कैलास शिखरपर मानसर या मानसरवर नामका एक सागर है। इसी सागर या सरवर/सरोवरसे सरस्वती नदीकी उत्पत्ति हुयी हैं। सिंधू नदी का जन्मनाम सरस्वतीही है। क्योंकि सर/तालाब/सरवर/सागर से उत्पत्ति होने के कारण, उसका नाम सरस्वती पड़ा है। सरस्वती यानी सरसे निकलकर बहती/वती/वहती/बहती होने के कारण सरस्वती कहलायी। आगे बहती रहने के पश्‍चात उसे और छह नदियां आकर मिल जाती है और इन छ: नदियोंकी संधी/संगम होने के कारण उसे सिंधू नामसे पुकारा जाने लगा। संधी यानी संगम/मिलाप ऐसा अर्थ ध्वनीत होता है। अन्य छ: नदियां बहती हुई आकर सरस्वतीको मिलने के/संगम होने के कारण मुल सरस्वती नदीको बाद के समयमे संधी नामसे संबोधा जाने लगा। कुछ समय बितने के बाद संधी के अलावा सिंधू और सिंधू नामसे पुकारा जाने लगा। इस सिंधू, सिंध, या संधी नदी के दोनों किनारोंपर रहनेवाले लोगोंको सिंधू निवासी, सिंधू सभ्यता, सिंधू संस्कृति के सिंधू जीवनशैली के लोग कहने लगे। वास्तवमें मानसर/महानसरसे, महान सरवर/सरोवरसे उसकी उत्पत्ति होने के कारण उसका मूल नाम सरस्वतीही/सरसे बहनेवालीही श्रेष्ठ नदी है। सिंधू यह उसका दुसरा नाम है। नदी सरस्वती और अन्य छ: नदियोंका संगम होने के कारण उसे सप्त सिंधू नामसे भी संबोधा जाता है। छ: नदिया सरस्वती/सिंधू नदीकी सहोदर, सहयोगीनी या उसकी सगी बहने मानी जाती है। क्योंकि अन्य छ: नदियोंकी उत्पत्ति भी अन्य स्थलोंसे हिमालय पर्वत/कैलास शिखरसेही हुयी थी। अत: वे सभी सप्त नदियां एकही पिता एवं माताकी मानी जाने लगी और सप्तसंधी/सिंधू नामसे संबोधी जाने लगी। इस सप्तसरस्वती/बादकी सप्तसिंधू नदियोंके क्षेत्रमे रहनेवालोकोंही भारत के मुलनिवासी माना जाता है। इन मुलनिवासियोंनेही इसापूर्व 2000 मे वेदग्रंथोकी रचना की थी। इन्हेंही मुल वेद ग्रंथ माना जाता था। जब आर्योने मुलनिवासियोंको युध्दमे हराया तो उन्होंने मुल वेदग्रंथोको बदलकर उनके हितमें लिखा। इन्हें उत्तरकालीन प्रशिप्त वेदग्रंथ या पौराणिक/पुराण ग्रंथ आज के समयमें माना जाता है। आरंभमें आर्य लोग सरस्वती सिंधू नदीसे दूर गंगा नदी के क्षेत्रमें जंगलोेंमे रहते थे। बादमें धीरे धीरे वह ेयुद्ध करते करते सप्तसरस्वती/सप्तसिंधू पहुंचे और मुलनिवासियोंको हराकर उनकी सत्ता स्थापन की थी। गंगा नदीको भी अन्य छ: नदियां आकर मिलती है। इस कारण गंगा नदीको भी प्राचीन समयमें सप्तगंगा नदी माना जाता था। किंतु इन दोनों नदियोेंमे बड़ा अंतर है। आर्योने प्रथम जंगल छोड़कर इसी गंगा नदी के किनारे बस्ती बनायी थी। आर्योकी सप्तसिंधू के स्थानपर गंगा नदीही अधिक प्रिय है। किंतु सप्तसरस्वती/सिंधू नदीकी ऐतिहासिकता, महानता जानकर अब वे यह बताने की कोशीसे कर रहे है, कि, वे सरस्वती नदी के मुलनिवासी थे। किंतु यह असत्य कथन है। वे मुल युरोप के रिनवासी थे, बादमें भारतमें गंगा नदी के नजदिक जंगलोंमे जंगली के रुपमे रहते थे। बादमें गंगा नदी पहुंचे और वहांसे सिंधुवासियोंपर आक्रमण करके उन्हें विषकन्याओंके माध्यमसे और विश्‍वासघातसे हराया और वे भारत के शासक बन बैठे है। उन्हें यहांसे भगानेकी या शासक पदसे दूर रखनेकी अनिवार्यता है। क्योंकि यह आर्य समुह अमानविय एवं विषमतावादी है। अब आर्योद्वारा सरस्वती नदी सुख गयी, गायब हो गयी, ऐसा अपप्रचार करके लोगोंको भ्रमाया जा रहा है। गंगा नदीको सरस्वती नदी बतानेका प्रयास या वे भी सप्तसिंधू/सरस्वती नदी स्थल के रहिवासी है, यह बतानेका प्रयास चालु है। वास्तवमें आर्यजन भारत के नहीं, युरोपीय देश के है और असभ्य, असंस्कृत, घुमक्कड़, जंगली, स्वैराचारी, मांसाहारी लोग थे। कृषिकार्य उन्हें ज्ञात नहीं था। वे कृषिकार्य पसंद नहीं करते थे। इसी कारणसे उन्होंने मुलनिवासीयोंके सिंचन तालाब तोडे, खेती, नगर जलाकर सिंधुवासियोंका नाश किया और बादमें यहा के शासक बन बैठे और मुलनिवासी उनके आजतक गुलाम है, यह सच्चा इतिहास है। हिमालय/कैलास शिखरपर स्थित मानसर/महानसर/तालाब/झीलको मानसरके साथही ब्रम्हसर भी कहा जाता है। इसी कारण सरस्वती नदीको ब्रम्हा की पुत्री भी माना जाता है। सरस्वती नदी के कारण वहांका पुरा क्षेत्र हराभरा हुआ था। समृद्ध हुआ था। कारण सरस्वती नदीकी जलधारा यह अखंड रुपसे बहती थी। इसी अखंड बहती जलधारा के कारण उसे सदानीरा यह नदी अब भारत के दो टुकडो के कारण पाकिस्तानसे बहती है। इस नदीकी उपयोगिता/श्रेष्ठता के कारण सरस्वतीको नदीतमा देवी यानी देनेवाली/मां/प्राणदा/द्विवीतमा/आंम्बितमा/ज्ञानदेवी (वेद इस नदी के किनारे लिखे जाने के कारण) अन्नदा/ज्ञानदा/हंसवाहिनी/विनावादिनी/श्‍वेत पद्मासन/शुभ्रवस्त्रावृता/श्‍वेत तुषार हारधारीणी/नारीरुपा सरस्वती आदी नामोंसे भी पुकारी/संबोधी जाती है। वास्तवमें यह नदी ना सुखी है और ना गायब हुई है। वह अखंड रुपसे बह रही है और बहती रहनेवाली है। उसका नाम सप्तसिंधू रखा जाने के कारण, अब सरस्वती नदी अस्तित्वमें नहीं है, ऐसा माना जाता है। किंतु नाम परिवर्तन का ज्ञान न होने के कारण सरस्वती नदी गायब हो गयी है, सुख गयी है, ऐसा भ्रम फैलाया गया है। वर्तमान समयमे अनेकानेक भ्रम फैलाकर आर्य ब्राह्मण हमही या हम भी सरस्वती/सप्तसिंधू नदी क्षेत्रमें रहनेवाले है। हम युरोपीय ना होकर भारतीयही है, ऐसा झूटा प्रचार-प्रसार करके इतिहास बदलनेका प्रयास आर्य ब्राह्मण कर रहे है। किंतु उनके इस भ्रमको माननेवाले कोई सच्चा मुलनिवासी भारतमें नहीं। क्योंकि आर्य भारत के ना होकर विदेशी है, यह आर्य ब्राह्मणोंनेही लिख रखा है। मुलनिवासियोंको अब इनके फैलाये सभी भ्रमोंको हटाकर सच्चा इतिहास लिखने के लिये आगे बढ़नेकी वर्तमान समयमे अवश्यकता है। जय भारत- जय संविधान प्रा. ग.ह. राठोड

G H Rathod

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