दुनियाकी प्रथम सभ्यतामें दजला फरात नदी किनारेकी मेसोपोटामिया, नील (अलऊबेद) के किनारेकी विश्व (गाजीयन) तथा सिंधू नदीके किनारेकी मोहेजोंदडो हडप्पा सभ्यताने जन्म लिया।
1) दुनियाकी प्रथम सभ्यतामें दजला फरात नदी किनारेकी मेसोपोटामिया, नील (अलऊबेद) के किनारेकी विश्व (गाजीयन) तथा सिंधू नदीके किनारेकी मोहेजोंदडो हडप्पा सभ्यताने जन्म लिया। पृ. न. 18
2) मेसोपोटामियाके लोग सिंधुघाटीको (विश्व बाजार, विश्वव्यापारी) कहते थे। पृ. 31
3) द्रविड लोग भूमध्य सागर तटकी ओरसे भारतमें आये थे। पृ. 41
4) सिंधु नदी के (सभ्यताके) विनाशका काल इसापूर्व 2000 से 1750 के मध्य का माना जाता हैं। पृ.46
5) सिंधुघाटी खुदाईमें प्राप्त मूर्तियोंसे सिंधु घाटी के लोग ऑस्ट्रोलाईड तथा सुमेरियन (भूमध्यसागर तटीय) लोग महसूस होते हैं। पृ. 48
6) सुमेरियन लोग भूमध्यसासगर तटीय प्रदेशसे चलकर पहले मेसोपोटामियामें आ बसे और वहांसे आगे बढ़कर सिंधुघाटीमें आ बसे। कुछ इतिहासकारोंका कहना है कि, सिंधुघाटीमें बसने के पूर्व दो ढाई हजार साल वे पाकिस्तान के काछी मैदान (मेहरगड) बसे थे। ये लोग मूल आदिवासी ऑस्ट्रेलियन तथा द्रविड प्रकारके थे। वे अल्पाईन (खासी या यादव) प्रजाति या उनकी संकर थी। सिथियन या आर्य नहीं थी। आर्य समुह अभारतीय था। और भारतमें आने के बाद इस समुहने सिंधू घाटीकी हजारों सालकी पुरानी मौल्यवान संस्कृति बालक जिस प्रकार खिलौंने तोड़फोडकर फेक देता हैं, उसी प्रकार भारतीय सभ्यता नष्ट कर डाली।े
7) सिंधुघाटीके सभ्यताके सर्जनकर्ता ऑस्ट्रेलाईड तथा भूमध्य सागर तटीय प्रकारके लोग थे। इस सभ्यताके सर्जनमें भूमध्यसागर तटीय प्रकारके लोगोंके दिमाग ने काम किया तथा ऑस्ट्रेलाईड लोगोंके हाथोंने। क्योंकि भूमध्य सागर तटीय प्रकार के लोग यहा बादमें आकर बसे। यही वर्ग यहांका शासनकर्ता वर्ग भी था। इस वर्गका संबंध ऋृग्वेदिक कृपण व्यापारी पणियोंसे बतलाया जाता हैं, जो बादमें आर्य संघर्षमें हार होनेके कारण गुजरातके पश्चीमी तटसे सौराष्ट्र होते हुये, मलबार तटतक चले गये। वहांसे और आगे मेसोपोटामिया और फिर फिनिशिया या लेबनानमे, जिनका संबंध यहुदी लोगोंसे बतलाया जाता हैं। दूर दूर तक जाकर व्यापार किया और युरोपवासियोंको सभ्य बनाया। पृ. (184)
8) हब्सी (नीग्रो) प्रकारकी जातियां जो की इस देशकी आदिवासी थी, तथा आस्ट्रेलाईड प्रकारकी जातियां, जो कि संभवत: भूमध्यसागर तटीय प्रदेशसे चलकर इस देशमें आनेवाली सर्वप्रथम जाति थी। आज यह मिश्रित अवस्थामें जनजातियां तथा समाजकी सबसे नीची जातियों (अछुतों) में गिनी जाती हैं। दुसरी सुमेरियन प्रकारकी जाति थी, जिसने सिंधूघाटी सभ्यताको विकास के उच्चतम शिखरतक पहुचाया। पृ. 185
9) अनार्योकी एक खास जाति थी पणि, जो धनिक व्यापारी थे। वे विश्वासघातकी तथा लालची थे और युध्दमें इंद्रके सम्मुख नहीं खड़े हो सकते थे, ऐसा वर्णन पणियोंके बारेमें ऋृग्वेदिक रुचाओंमे पणियों तथा दूती सरङ्काका वार्तालाप हैं। पृ. 199
10) पणि लोग आर्य नहीं थे। आजके व्यापारी बनिया संस्कृत शब्द बनिकसे आता हैं, जो अवश्यही पणि शब्दसे आया होगा। संस्कृतमें ‘पण’ यह एक सिक्का हैं। व्यापारका सामान पण्य हैं। अत: पणसे पण्य खरिदे जा सकते हैं। दोनों शब्दोंका घनिष्ठ संबंध हैं। अविनाशचंद्रदासने कहा है कि, ऋृग्वेदमें कई स्थलोंपर अमीर पाखंडी पणियोंका वर्णन आया हैं। यह भली प्रकारसे विदित है, कि सिंधुघाटीकी सभ्यता व्यापारिओंकी सभ्यता थी और वे मेसोपोटामिया, मिश्र तथा बेबीलोनतक व्यापार करते थे। ऋृग्वेदमें पणियोंके अपार धनका बार-बार वर्णन आया है। यह वर्ग शासक भी था। पश्चीमके देशोंमे व्यापार करनेवाले उक्त भारतीय व्यापारी पणि लोग संभवत: बादमें आर्य आक्रमणोंके परिणाम स्वरुप सप्त सिंधुसे गुजरातके पश्चिमी तटसे होते हुये मलबार तटपर जा पहुँचे। वहां उन्होंने अपनी सभ्यताको फैलाया। वहांसे आगे भूमिके मार्गसे चलकर भूमध्य सागरके पूर्वी तटपर फिनिशिया (लेबनान) पहुँचे। वहा उन्होंने भूमध्य सागरके द्विपो तथा अफ्रिकाके उत्तरमें अपने उपनिवेश बना लिये। खरिदे हुये गुलामोंसे माल बनवाया और दक्षिणी युरोपमे व्यापार किया। यहां तक की उन्होंने ब्रिटेन, स्केंडेनेविया तक समुद्र मार्गसे व्यापार किया और वहां अपनी सभ्यताको फैलाया। इस प्रकार प्राचीन युगमें सभ्यता पूर्वसे जाकर पश्चिमी देशोंमे फैली, जैसा कि आधुनिक कालमें सभ्यताको पश्चिमी व्यापारी देशोंने पूर्वमें फैलाया। आजसे कुछ पूर्व काल तक स्केंडेनिवियामें (पणि लोगोंके) बल देवताके पर्व मनाये जाते रहे हैं।
एक पहाड़ के शिखरपर लकडों के ढेरो में आग लगाई जाती थी तथा आसपास के क्षेत्र के लोग इकट्ठे होकर गाते नाचते और शोर मचाते थे। बल के नामपरही बाल्टीक महाससागर, बेल्ट, बेल्टे बर्ग, बालसोजीन, बाल्सट्रोडींन नाम पड़े हैं।
विद्वानोंका कहना हैं की पणिक (पनिक) से प्युनिक तथा इससे फिनीक, फिनीक से फिनिक्स शब्द की उत्पत्ति हुई जिनके नामपर फिनिशिअन नाम पड़ा। ये लोग जहाज बनानेमे कुशल, समुद्रयात्रा के प्रेमी, धन लोलुप थे तथा बल नाम की इष्ट देवता की पुजा किया करते थे। इनके देवता बल की मूर्ती के हाथो के बीच अग्नीकुंड रहता था। राष्ट्रीय आपत्ती के समय उसमें शेकडों बालकोकी आहुती दी जाती थी। इस प्रकार युध्दमें पकड़े गये शत्रु भी जला दिए जाते थे। इनकी एक बस्ती किसी समय इरान के दक्षिणी भाग, अरब के पुर्वी भाग या अरब की दक्षिणी सागर में थी। इसी प्रकार फिनिशियन उत्तरमें अंतिम बस्ती कारक्षेज में थी। जिसे कई युध्द के बाद रोमवालोंने नष्ट कर दिया था। वे युधध्द प्युनिक युध्द कहे जाते हैं। भुमध्य सागरपर रहनेवालोंने इन्हीसे जहाज चलाना तथा व्यापार करना सिखा। ऋृग्वेद के बाद 600 इसापुर्व से 300 इसापुर्व के मध्य पणि समुह भारत के व्यापार की मुख्य रिड की हड्डी थे।
11) वनिक जो सार्थ वाहक कहलाते थे। वे 500, 500 बैलगाडीओंके विशाल कारवा बिहड जंगलो व रेगीस्तान के चोर डाकुओं और जंगली जानवरोंकी कठीनाईओको झेलते हुए निशीतिदन भारत के विभिन्न व्यापारीक मार्गोपर चला करते थे। वनिक जो सार्थवाह या वैदेहिक (कारवा) चलानेवाले कहलाते थे। जिसका अर्थ विदेह जनजाती भी होता हैं। (पृ. 102 से 205)
12) प्राचिन कालमें पाताल के तक्षक या टाक या वहिका नाम से भी जाने जाते थे। वहिका जनो का जाती पाती विहीन समाज था। वास्तव मे ये लाग अनार्य वैदीक, बौध्द या जैन लोग थे। ये क्षत्रिय, वैश्य वैदीक हिन्दु रितीरीवाजोंका पालन नहीं करते थे। उनका कोई ब्राह्मण नहीं था। इसी कारण पौड्र, औड्र, द्रविड, र्किता दर्द और खस सभी शुद्र बन गये थे। खस यह एक आदिवासी जाती थी। खस लोग मुलरुपसे विरान के रहनेवाले थे। जो कसाईट, कस, कुस, खस नाम से पुकारे जाते थे। (पृ. 304 - 305)
13) वंजही अथवा ववंजही :- इस शब्द का मुल अर्थ व्यापारी है साथ ही इसका अर्थ खसव्यापारी हैं।
ग्रंथ:- उत्तरापक्ष के नाग शासक तथा शिल्पकार आंदोलन का इतिहास, लेखक : डॉ. नवल वियोगी और प्रो. एम. अन्वर अन्सारी लिखीत रचना के कुछ संदर्भ-
14) द्रविड लोग (भुमध्य सागर तटीय लोग) भुमध्य सागर तट की ओर से भारत आये। पृ-4
15) द्रविडोंने बहुत पहले मेसोपोटामियाके कुछ भूभागपर अधिकार कर लिया था, और उसके पश्चात वे मकरान तटसे भारत प्रवेश कर सिंधु घाटी सभ्यताकों जन्म दिया। पृ-5
16) राजपुतोंके तीन प्रमुख गोत्रों चव्हाण, तंवर इन जातियोंकी उत्पत्ति अनार्य शुद्र खासी नाग जातिसे हुई हैं। पृ-65
17) सिंधुघाटी सभ्यताके मूल सर्जनकर्ता आस्ट्रेलियन (कोल) तथा द्रविड प्रजातिक लोग थे। अल्पाईन प्रकारके लोग हडप्पा सभ्यताके सर्वोच्च प्रगतिकाल यानी 2100 इसापूर्वके लगभग इरानसे आकर बस गये। सर्वाधिक संख्यावाले वर्ग कुनैत, राठी, राणा, डोगरा तथा ठाकूर जातियोंका संबंध खासी जातिसे है। ये लोग आर्य नहीं, अनार्य हैं। उनके आर्यकरणसे पूर्व जातिपातिविहिन समाज तथा पूर्व जातियोंसे रोटी-बेटी व्यवहार (संबंध) बनानेका पक्का प्रमाण यह हैं कि आज भी रंग रुपके विचारसे उन्हें अलग पहचानना बहुत कठिण हैं। मुख्यतया मेघ, सीपी जातियोंका संबंध खासियोंसे बहुत निकटका दिखाई पडता हैं। कारण खासी (कुनिंदा) जाति मूल रुपमें बुनकर थी। मेघ तथा सीपी जातियोंके धंदे भी उन्हींसे संबंधित थे। पृ. 73
18) औडुंबरोकी मुल उत्पत्ति द्रविड प्रजातिसे प्रतीत होती हैं। पहाड़ोमें उनका रुधिर मिश्रण खस जातियोंसे हुआ, ऐसा मानववंश शास्त्रका शोध हैं। औडूंबरा अथवा डामरा या डुम वर्गकी उत्पत्ति बंजारा अथवा लबाना जनजातिसे हुई हैं। यह जनजाति रेलमार्ग बनानेसे पूर्व बैलगाड़ियों अथवा बैलोके बड़े बड़े कारवांवोसे माल ढोकर व्यापार करते थे। जिन स्थानोंपर इन कांरवावोंके ठहरने के मुख्य केंद्र होते थे, वे टांडा कहे जाते थे। (तांडा, जमाव, समुह, थवा, जमघट, पुंज, कारवां)। जिल्हा होशियारपुरमे टांडा उडमड ऐसा प्रमुख केंद्र था, बराडाके पास टांडवाल था। होशियारपुर तथा गुरदासपुर जिल्हे जहांसे औडुंबरोके सिक्के मिले हैं। यह डोम और लुबाना जातियोंके सबसे बड़े केंद्र हैं। प्राचीन कालमें द्रविड़ बहुत बड़े शिल्पी तथा व्यापारी रहे हैं। टांडा उडमड शब्द उड शब्द द्रविड़ भाषाका हैं, जिसका अर्थ गांव हैं। इसका अर्थ हुआ वह झोपडियोंका गांव जहां कारवां (जनसमुह) ठहरा करते थे। अर्थात उक्त केंद्रका नामकरण करनेवाले, कारवां चलानेवाले लोग द्रविड़ जनजातिसे संबंधित रहे होंगे। अर्थात लुबाना अथवा डुम लोग मूलरुपमं द्रविड़ जातिके लोग थे। ऐसा लगता हैं, मैदानमें इन्होंने अधिक शुध्द रक्त बनाये रखा। मगर पहाड़ी क्षेत्रमें इसके उलट वे औडुंबराके रुपमें शासक रहे और खस तथा अन्य उच्च जातिकी नारियां स्वीकार करनेसे उनके रुधिरमें भारी परिवर्तन हो गया, जो राजपुत क्षत्रियके निकट पहुँच गया। आजके पठानीया राजपुत औडुंबरा लोगोंकीही संतान हैं। यह भाषा विज्ञान और जैविक शास्त्रके वैज्ञानिक प्रमाण हैं। औडुंबरा जनजातिका राष्ट्रीय गुरु अथवा मूल पुरुष विश्वामित्र था। और वे अनार्य ऋृषि थे। पृ. 97 और 99
19) डोम लोगोंका संबंध लुबानोंके साथ था। जो बहुत बड़े व्यापारी थे। पृ. 100
20) डुम समाजकी एक प्रमुख शाखाका नाम पठाण (पाटन) हैं। डुमरा या डुम शब्दकी उत्पत्ति औडुंबरा शब्दसे हुई। याने औडुंबराही डुम थे। तथा उनकी एक प्रमुख शाखाको पठान (पाटन) बताया हैं। इस पठान (प्रतिस्थान) शब्दसे पठानीयां शब्दकी उत्पत्ति हुई हैं। औडुंबरा या पठानीया वंशकी एक अन्य शाखा शहापुर थी, जिसका इतिहास आज अनुपलब्ध हैं। औडुंबराजनोंका संबंध डुमरा या डुम या डोम शब्द बना हैं। इस शब्दका प्रयोग काश्मीरमें भूस्वामी, कृषक, या छोटे सामंतके लिये होता हैं। जैसे की भारतके अन्य भागोंमें ठाकूर या राठी, या राणा शब्द हैं। इतिहासकार हुचिसनने कहा है कि काश्मिर घाटीमे सामंतका पदनाम डामर होता हैं। वे लोग मूल रुपमें लुबाना जातिसे संबंधित थे। जो कृषक थे, तथा उनकी लगभग वही सामाजिक स्थिती थी जो राठी तथा ठाकूरकी थी। वे कई पीढ़ियोंसे भूस्वामी थे। डामरोंकी उत्पत्ति लुबाना या वंजारोंसे हुयी हैं, जो नमकके बहुत बड़े व्यापारी होते थे। जब कि बंजारे अन्य वस्तुओंका व्यापार करते थे। इतिहासकार रोजके अनुसार लबाना शब्द की उत्पत्ति लुण (नमक) तथा वान (व्यापार) शब्दसे हुई दिखाई देती हैं। तथा लोबानाा, लबाना अथवा लिबाना निसंदेहही महान नमक व्यापारी अथवा नमक ढोनेवाली जाति हैं, जब कि वंजारा प्राचीनकालसे अन्य साधारण वस्तुवोंका व्यापार करने या ढोनेवाले लोग थे। वास्तवमें लबाना अक्सर वंजारा पुकारा जाता हैं। अंबालामें उसे बहुरुपिया भी कहा जाता हैं। क्योंकि वह अक्सर धंदे बदलते रहता हैं। लबाना लोगोंका मुखीया नाईक (नायक) होता है, या पुकारा जाता है और उसके नेतृत्वमें कामकाज होता हैं। लबाना खास प्रकारके लोग हैं। उनका संबंध भारतके बंजारोंके साथ हैं, जो भारी संख्यामें लदे हुये बैलोसे बड़े स्तरका व्यापार करते हैं। अभी हालमे उन्होंने कृषिको अपना लिया हैं। मगर यह उनके धंदेमें एक वृध्दि हैं। व्यापारके मूल धंदेको उसने नहीं बदला। समाजके एक अंगके रुपमें वे बड़े समझदार तथा साहसी लोग हैं। पुष्ठ शरीरके हैं, तथा जोशीले स्वभावके लोग हैं। उनका प्रमुख गांव टांडा कहा जाता था, जिसका अर्थ हैं, बैलोंका लदा हुआ बड़ा कारवां या पड़ाव कत्युरिया = कातोडिया पृ. (110-112)
कुमायुं के प्रसिध्द इतिहासकार एस. बी. डबराल तथा हाना का मानना हैं, कि कुमायुं के कत्युरिया शासक तथा उनकी जनजाति खस या खश यह अनार्य जनजाति हैं। यह जनजाति नागवंशीय हैं। इस जनजातिके चार राजपरिवार काश्मिर में राज्य करते थे। वे लोहारा, गोनंदा, करकोटा और नागपाल राजवंश हैं। काश्मिरके लोहारा राजवंशकी स्थापना करनेवाला नारा नागराजा खासी जनजातिका एक मुखीया था। अत: कुमायु के खासी और कत्युरिया राजवंश भी नागवंशी माने जाते थे। काश्मिरसे संलंग्न पश्चिमसे स्थित तक्षशिला नागोंका प्राचीनतम सबसे बड़ा केंद्र था। ये नाग तक्षक नामसे पुकारे जाते थे। खस जाति प्रसिध्द लडाकु जाती थी। अत: वहां की कोल के साथ मिलकर रहनेवाली किरात जाति खस जाति के सामने नहीं टिक सकी। खस जातिने धीरे धीरे किरातोंके चराईके क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। काश्मिर, भांगडा, हिमाचल, गढवाल, कुमाउं तथा नेपाल में हिमालयके ढालोंपर खसोने अपना अधिकार जमा लिया। वहां की भिल्ल किरात आदि जातियोंने दुर्गम स्थानोंमे शरण लेली। इनका अपना स्वयंका इतिहास न होने के कारण वह अल्पाईनअनार्य होते हुये भी आर्योके गुणगाणमें लिन हो गई।
राजा अशोक के समयमें यक्ष जातिका वर्णन मिलता हैं। यह वास्तवमें खस जाति थी। आगे यक्षके जख और कश ऐसे दो रुप बने। इसी कारणसे कस व खस शब्द बने ऐसा इतिहासकार का माननाा हैं। भारतके प्राचीन साहित्यमें यह जाति तुषार, दर्द, कश, कुश, खोशा, खोजा आदि नामसे प्रसिध्द हैं। इससे सिध्द होता हैं, कि खसा मूलरुपमें एक दर्द जनजाति थी। हिमालयमें पठारोपर बसी 90 प्रतिशत जनसंख्या जो अब हिंदु, बौध्द और इस्लाम धर्मकी अनुयायी बन चुकी हैं जो खस जाति की ही वंशज हैं। ए. बी. कीशने खसोकी उत्पत्ति अल्पाईनोंकी दिनारिक शाखासे बतलाई हैं। कुमाऊं के प्रसिध्द इतिहासकार शिवप्रसाद डबरालने कहा है कि, खस जातिने एशिया, युरोप और उत्तरी अफ्रिकामें विशाल साम्राज्यकी स्थापना की थी। ये लोग (अल्पाईन) पश्चिमी एशियामें सुमेरियन कहे जाते थे। ये दुनियाके सर्वप्रथम लोग थे, जो सभ्य हुये तथा जिन्होंने प्राचीनतम लिखित प्रमाण छोड़े हैं। ये सुमेरियन लोग संभवत: मेसोपोटामिया के मैदानमें 5000 इ. पूर्व. मे पूर्वोत्तर दिशासे गये। इ.पू. सत्रहवीं सदीमें इस जातिने बेबीलोनियापर अधिकार जमाकर वहां उन्होंने 576 वर्षोतक राज किया। (पृ. 5-8)
इस जातिने कृषी, पशुपालन, व्यापारमें सबसे महत्व कुशलता प्राप्त कर ली थी।