प्राचीन भारतके शासक नाग, उनकी उत्पत्ति और इतिहास

प्राचीन भारतके शासक नाग, उनकी उत्पत्ति और इतिहास

प्राचीन भारतके शासक नाग, उनकी उत्पत्ति और इतिहास नागोंकी उत्पत्ति नागोंकी उत्पत्ति अनार्य नाग ऋृषि कश्यपसे हुई होगी ऐसा माना जाता है। कश्यपने राजा दक्षकी आठ कन्याओंसे विवाह किया था। उनके नाम इस प्रकारसे हैं। दिती, आदिती, दनु, ङ्कनु, दनाङ्मु, सिङ्कुक, विनता, दैत्ङ्म, देव, दानव, ङ्कानव और नाग। नागवंशीय लोग संभवत: पश्‍चिमी एसिया (असीरियासे) आये होंगे ऐसा माना जाता हैं। नाग राक्षस नहीं मानव थे। वे अपनी उत्पत्ति सूर्य से बताते हैं। उनका टोटेम (देवक)फनधारी नाग था। तक्षशिला नाग लोगोंका उत्तर भारतमें मुख्य केंद्र था। उनका सरदार भी तक्षक था। नाग तथा तक्षक दोेनोंही पूर्व ऐतिहासिक कालमें प्रसिध्द नागवंशी थे। वे अवश्यही बड़े सृजक तथा भारतके निर्माता थे। तथा अंतमें मध्ययुगमें असुरगढपर उनका अधिकार था और वे वहां बहुत पूर्वकालसे निवास कर रहे थे। उनका मूल निवासस्थान तक्षशिलामें था जो नागपूजाका सबसे बड़ा केंद्र था और यहीसे वे सारे देशमें फैल गये। नागराजा एलापात्र का मूलक्षेत्र भी तक्षशिलाके 10 मिल उत्तर-पश्‍चिममें था, जहा आज भी उसका एक तालाब हैं। (20-21) वासुकी नागका निवास भी कश्मीरमें कमलेश की चोेटीपर था। तक्षशिला का निकटतम संबंध कश्मीर घाटीसे हैं, जो कर्कोटा नाग का निवासस्थान था। लोहारा राजपरिवार जो अपनी उत्पत्ति सातवाहनोंसे बताते हैं, कर्कोटा, गोनंदा, नागपाल (भद्रवाह) राजपरिवार भी ऐतिहासिक युगमें कश्मीरपर राज करते थे। यह वंश यहांके न होकर उत्तर पश्‍चिमसे आये होंगे, ऐसा अनुमान फेरगूशन महोदयका कहना हैं। पर्सिया (इराण) का राजा जोहक भी नागपूजक बताये जाते हैं। उसने मध्य एशिया तक अपनी सत्ता बनाई थी, और बेबीलोन उसकी राजधानी थी। (22) नाग लोग पर्सिया (इराणसे) चलकर अफगाणिस्तान (काबुल) आये। इस प्रकार पूर्व इरानमें निवास करनेवाली नाग जाति पहले अफगाणिस्तान पहुँची। अफगाणिस्तानसे भारतमें प्रवेश होने के बाद उनका तक्षशिला यह प्रमुख केंद्र बना। (23) प्राचीन गोल सिखाले इराणी लोग दक्षिण और पूर्वी क्षेत्रोंकी ओर ढकेल दिये गये। इनमेंसे कुछ भारतमे स्थित हैं और कुछ दक्षिणी अरबमें ओमान चले गये। आर. पी. चंदाके अनुसार गोल सिखालेे (अल्पाईन) पूर्व इरानियोंका संबंध यदु, तुखस, अनु, द्रुह्यु, और पुरु आदी जनजातियोंसे बताया जाता हैं। विद्वानोंका कहना हैं कि, आस्ट्रेलियन तथा भूमध्य सागर तटीय द्रविड़ प्रकारके लोगोंकी उत्पत्ति भूूमध्य सागर तटीय क्षेत्रोमें हुई (24) नागपुजा न केवल पश्‍चिमी एशियामें अपितु इजरायल, फिलीस्तीन, असिरिया, बेबीलोन, मेसोपोटामिया, मिश्र, पेरु तथा ग्रीसमें भी होती थी। (25) तथागत बुध्द के कालमें साधारण तौरपर तीन प्रकारके जनसमुह माने जाते थे। 1) कुलीन समुह 2) व्यापारी, कृषक, शिल्पक और 3) गुलाम समुह बुध्दका शाक्यगण यह कृषक था। कोलीय गण, बुध्दके माताका गण था और यह गण बुनकर गण कहलाता था। तीसरा वज्जी गण या संघ था, जो बैलोके पीठपर माल यानी पण्य चीजे लादकर विश्‍वके सभी देशोंमे व्यापार करता था। इतिहासकार डी. डी. कोसंबीने कहा है कि साधारण जनजातियोंसे अधिक महत्वपूर्ण थे। व्यापारी जो आमतौरपर सार्थवाह या वैदेहिक कहलाते थे जिसका अर्थ हैं विशेष जनजातिसे संबंधित। आगे वे लिखते है कि बौध्द धम्मकी जातक कथाओंके अनुसार ऐसे सार्थवाहोके 500-500 गाडिओंके विशाल काफिले चोर, डाकुओं, जंगली जानवरोकी कठिणाईयोंको झेलते हुये रात-दिन भारतके बिहड जंगलो और रेगीस्तानोंके विभिन्न व्यापारिक मार्गोपर चला करते थे। अब लगभग एक सदी पूर्व हम बंजारा जातिको उक्त धंदा करते हुये पाते हैं। ये लोगही उनके उत्तराधिकारी लगते हैं। ऋृग्वेद कालमें और सिंधुघाटी सभ्यताके समयमें ऐसीही व्यापार करनेवाली जनजाति थी, जिसे पणि नामसे संबोधा जाता था। यह समुह उस समय आर्योंके द्वारा अनार्य नामसे संबोधी जाति थी और आर्योकी कट्टर शत्रू थी। क्योंकि दोनोंकी जीवन पध्दती परस्पर विरोधी थी। उस समय आर्योंका सेनापती एवं प्रमुख इंद्र था। आर्योंकी गायें चुराने के मामलेमें दोनों समुहोंमें युध्द हुआ और इस युध्दमे पणियोंकी हार होने के कारण वे वहांसे भाग गये। आर्य लोग पणियोंको असुर, दस्यु, दास नामसे भी संबोधा करते थे। पणिओंके देवताका नाम बल था और सूर्य देवताका प्रतिनिधि भी था। वह वृत्र नामसे भी जाना जाता था। डी. डी. कोसंबीका कहना है कि पणि आर्य नहीं थे, अनार्य, असुर, दस्यु थे। ऋृग्वेदमें कई स्थलोपर अमीर पाखंडी पणि इस नामसे भी संबोधा गया हैं। सिंधुघाटी सभ्यता व्यापारियोंकी सभ्यता थी। अत: पणि समुहको भी व्यापारी समुह माना जाता था। पणि शब्दके अनेक अर्थ है। उनमेंसे एक अर्थ व्यापारी हैं। व्यापार पण नामके सिक्केसे होता था। पण से ही पण्य (व्यापारी) चीजोंका व्यापार होता था। पण से ही पणि नामका विस्तार हुआ होगा। पणिका दुसरा अर्थ सावकार, धनी भी होता हैं। पणि धनवान औरा व्यापारी होने के कारण वे व्यापारका माल मेसोपोटामिया, मिश्र तथा बेबीलोनतक पहुँचाते थे। ऋृग्वेदमें पणियोंके अपार धनका बार बार वर्णन आया हैं। सिंधु नगरोंकी खुदाईमें साफ प्रगट हो गया हैं कि हडपाई वणिक अथवा शासन शक्तिका स्वामी एक बहुतही अमीर वर्ग था और वह पणि समुह ही था। पणि वास्तवमें अन्य कोई नहीं, सिंधु घाटीका व्यापारी वर्ग पणिही था। यह पणि समुह विश्‍वके दूर दूर देशोतक व्यापार करने के लिये समुद्र यात्रा करता था। बौधायन धर्म सुत्र 11-24 के अनुसार जो ब्राह्मण (आर्य) समुद्र यात्रा करते थे, शास्त्रविहित होने के कारण जातिसे बाहर माने जाते थे। किंतु पणि अनार्य होनेके कारण समुद्र यात्रा करते थे। यही वर्ग बादमें पणिक (पनिक) फिर बनिक कहलाया, जो आजके बनिया (बंजारा) व्यापारीक पूर्वज था। पाली भाषामें प के स्थानपर ब हो जाता हैं। अत: पणिक का रुप बनिक हो गया। अविनाश चंद्रदास का कहना है कि पणि व्यापारी जो भारतीय व्यापारी थे और पश्‍चिमी एशियायी देशोंसे व्यापार करते थे, आर्योके आक्रमण के परिणाम स्वरुप, सप्तसिंधुसे गुजरात तथा पश्‍चिम तटके रास्तेसे मलबार तटको चले गये। वहांसे उन्होंने अपनी सभ्यताका प्रसार प्रचार किया। आगे वे भूमिके रास्तेसे भूमध्य सागर के पूर्वी किनारे फोनिसिया और लेबनान चले गये। वहां उन्होंने उत्तरी अफ्रिकाके उत्तरमें भूमध्य सागरमें स्थित द्विपोंपर अपने उपनिवेश स्थापित किये। वहां वे युध्दमे पकडे गये अथवा खरिदे गये। गुलामोसे अपने मालका उत्पादन कराते तथा दक्षिणी युरोपमें व्यापार करते थे। उनका व्यापार समुद्री मार्गसे ब्रिटेन तथा स्केडनेविया तक होता था। इस प्रकार प्राचीन कालमें सभ्यता का फैलाव पूर्वसे पश्‍चिमके देशोंमे हुआ। पणि समुह आरंभमे अवैदिक, अनार्य था। बादके समयमें वह वैदिक बन गया था। किंतु बुध्दके समयमें वैदिक धर्मका त्यागकर उसने बुध्द धम्मका स्वीकार कर लिया था। खस जनजातिमे जाति प्रथा नहीं थी। बादके कालमे आर्य जातियोंके प्रभावसे खस-राजपुत व खस (भट) ब्राह्मण तथा गद्दी जातिमे खत्री गद्दी और भट गद्दी नामक दो वर्ग हो गये। किंतु इन दोनों वर्गके मध्य पूर्ववत विवाह संबंध होते रहे और आज भी होते हैं। ऐसा लगता हैं प्राचीन राजऋृषि प्रथक लोग दो वर्गोमे विभाजित हो गया था राजपूत तथा पुरोहित। पिछले डेढ़ सौ वर्ष के कालमें जब खस जाति के वंशजोने 1884 इ.मे स्वयंको राजपुत कहना प्रारंभ कर दिया तो वह सारी जातिही नहीं अनेक शुद्र जातियां भी जो विशाल खस वटवृक्षकी छायामें आ चुकी थी, भी स्वयं को राजपुत कहने लगी। सन 1885 की जनगणनामें खस जातिको खस देश गढवालमे शुद्र वर्गके अंतर्गत्र गिना गया था। संदर्भ टिप्पणियां ग्रंथ : बाद के हड़प्पाईयों का इतिहास तथा शिल्पकार आंदोलन लेखक : डॉ. नवल वियोगी, डॉ. एम. अन्वर अन्सारी प्रथम संस्करण : 2012, सम्यक प्रकाशन दिल्ली 1) कश्मिरके लोहारा वंश की स्थापना करनेवाला नारा नाग राजा खासी जनजातिका एक मुखीया था। अत: कुमायु के खांसी और उनका कत्युरिया राजवंश भी नागवंशी हुये। 2) खासी शब्दकी उत्पत्ति इजराईलकी हिब्रु भाषाके नाखस शब्दसे हुयी हैं, जिसका अर्थ नाग हैं। 3) प्राचीन कालसे बंजारा एक व्यापारी, माल ढोनेवाली जाति रही हैं, जिसका अतीत गौरवशाली रहा हैं। 4) कश्मिरके डामरोंका जन्म बंजारे अथवा लुबाणोंसे हुआ था। मध्यकालमें कश्मिरकी पुरी भूमिपर उनका अधिकार था। वे युध्दप्रिय, बहुत वीर सैनिक थे। किंतु ब्रिटिशोंने उन्हें जरायम पेशा घोषित कर दिया, ताकि उनकी वीरता नष्ट हो जाय। 5) औडुंबरा भी एक जाति समुह था, जिनका संबंध डामरोसे अथवा डूमसे था। 11वी सदीमे ब्राह्मण कवि कल्हनने उनकी काव्य रचना राजतरांगिणीमें डामरोंकी उत्पत्ति, भूस्वामित्व वीरताके गुणोंपर विशद रुपसे प्रकाश डाला हैं। इसके अतिरिक्त नागवंशी गोनंदा, करकोटा, लोहारा, नागपाल आदि वंशोपर भी प्रकाश डाला हैं। 6) कुमायुंके शिवप्रसाद डबराल के अनुसार कोल या मुंडा जाति भारत और हिमालयकी प्राचीन जाति हैं। उसके बाद क्रमश: किरात पूर्वसे, खस पश्‍चिमसे उत्तरापथ आये। अन्य जातियां बादमें आयी। कुमायुं के इतिहासकार शिवप्रसाद डबरालके अनुसार खस जातिने एशिया, युरोप और उत्तरी अफ्रिकामे विशाल साम्राज्योंकी स्थापना की थी। इस जातिने आज से छ: सहस्त्राब्दिपूर्व ही जब कि आर्य आदि जातियां अभी पाषाण युगीन संस्कृतिसे आगे न बढ़ सकी थी, कृषि और पशुचारणमें दक्षता प्राप्त कर ली थी और वह ताम्र संस्कृतिको भली प्रकार अपना चुकी थी। ये लोग (अल्पाईन) पश्‍चिमी एशियामें सुमेरियन कहे जाते थे। ये दुनियाके सर्व प्रथम लोग थे, जो सभ्य हुये, तथा जिन्होंने प्राचीनतम लिखित प्रमाण छोड़े हैं। ये सुमेरियन लोग संभवत: मेसोपोटामियाके मैदानमें 5000 इ.पू. मे पूर्वोत्तर दिशासे गये। अल्पाईनोंकी एक शाखा युरोपमें चली गयी थी, जिसका संबंध स्लाविक या स्लाव जातिसे हैं। इन्हें कस्सी जातिकी वंशज माना जाता हैं, जो गोल सिर की जाति थी। कस्सी जातिकी दुसरी शाखा एशिया, माईनरकी तारस पर्वतमाला से सीरिया और फिलीस्तीन होती हुयी दक्षिणकी ओर अफ्रिकामे प्रविष्ठ हुयी, जहां उसने नील नदीके बड़े मोड़ के पास वादी हलफेह तथा आबू हमीद के मध्य अपने शासनकी स्थापना की। इस जातिकी तीसरी शाखा तुर्की, इराण और इराक के मध्यवर्ती पर्वतीय भाग कर दूूंजी मे जा बसी, जहां वह आज भी कुर्द जातिके रुपमे उपरोक्त तीनों देशके लिये नित्य नयी उलझने पैदा करती रहती हैं। जाग्रोस पर्वतमालासे आगे बढकर इसकी एक शाखा फारसकी खाडीके पास चली गई, जहां सुमेरमें करदा, कसदा यानी चालियासे जानी गई। जाग्रोससे कसी आयु धजीनी निरंतर बेबीलोनीयाके समृध्द नगरों और गांवोंपर आक्रमणा करते रहे और लुटमार करते रहे और 150 साल तक वहां कृषि मजदूरोंके रुपमें शांतिपूर्वक काम करते रहे। सतरहवी सदीमें इस शहरपर कब्जा कर वहां 576 साल तक राज किया। (42-43) खस जातिकी दरद भाषाका प्रभाव सारे पंजाबमें मिलता हैं, खानी लहदी और पंजाबी पर भी। सारे हिमालय प्रदेशमें यानी कश्मिरसे लेकर नेपालतक आज भी काशु, कश्कर, कस्तवाडी, खस प्रजा, खसकुरा, खसोकी बोलीयां बोली जाती हैं। (43) खस जातिकी उत्पत्ति दक्षिण पश्‍चिमी सायबेरियामें प्रागैतिहासिक कालमें हुई। जहांसे वे पूर्वी युरोप तथा दक्षिणी अरबमें फैल गयी। बलुचिस्तानके मार्गसे भारतमें प्रवेश कर गई। क्योंकि इस जातिका फैलाव बादके हड़पाई उद्योग धंदो तथा सिंधुघाटी सभ्यताके विस्तार काल तथा भूगोलके साथ मिलान खाता हैं। अत: यह संभव हैं कि यह जाति उत्तर तथा मध्य भागमें सभ्यताके विकास के लिये अंशिक रुपमें उत्तरदाई हैं। हड़प्पा तथा अन्य स्थानोंसे खुदाईमें मानविय अस्थिपंजरोंकी प्राप्त हुई हैं, जिनमें उक्त जातिकी पहचानके विशिष्ट नस्लीय गुण निहित हैं। उक्त जातिके एक बड़े भागने उत्तरापथके रास्तोंका अनुसरण करते हुये, कश्मिर, हिमाचल प्रदेश व कुमायुमें प्रवेश किया। (44) 500 ई. मे बौध्द धर्म विरोधी महान शासक, मिहिरकुल शासन करता था। क्षेमगुप्त के राज्य कालमें खशोके राजाने कश्मिरके राजाको 36 गांव उसे सौपनेको उसे विवश कर दिया था। एक खस कश्मिरकी शैतान राणी दीद्या 11 वी सदीमे प्रेमी था। जो संभवत उसी जातिका था। क्योंकि वह उसके उत्तराधिकारी उदयराजा की बुवा थी, जो अभिसारके पासके एक छोटेसे राज्यशाही अथवा लोहाराका राजा था। शाही राजा अपनी उत्पत्ति शालीवाहनके वंश से मानते हैं। जिसने शक अथवा विक्रम सम्बतकी स्थापना की। स्पष्ट हैं शाही अथवा लोहारा वंश एकही होने के कारण दोनों खस जाति तथा सातवाहन अथवा तक्षक नाग वंशसे संबंधित थे। (45) महाभारतके युध्दमें खशोने दुर्योधनकी सहायता की थी और खड़ग, भालों पत्थरोंकी वर्षासे पांडव सेनाका विनाश किया था। विष्णु पुराणमें खशर जनपदका उल्लेख हुआ हैं। ललितविस्तार के अनुसार खश लिपिका विस्तार एवं प्रचार दर्दोस्तान से लेकर सिंधुकी उपरी घाटीमे चिन (तिब्बत) तक था। आधुनिक कालमेें केवल हिमाचल प्रदेशके निवासीही खश जातिसे संबंधित माने जाते हैं। लेकिन प्राचीन कालमे गंगा के मैदान और दक्षिणके पठारपर दूर दूर तक इस जातिका फैलाव हुआ था। मार्केंडेयपुराण के (55-56 पृ) के अनुसार खस जाति भारतके पर्वतीयक्षेत्र दक्षिण, पूर्व, उत्तर तथा पूर्वमें मगध तक बसी थी। (46) विंध्याचल और बिकानेरमें अब तक खाशी जाति के लोग रहते हैं जो अब मुसलमान बन गये हैं और खोशा कहलाते हैं। सिंध गजेटिअरसे पता लगता है कि खोशा (खश) जातिके लोग सिंध, थार प्रकारकी जंगली बस्तियोंमे तथा बलीचिस्तानमें बसे हैं। शखर तथा शिकारपुरमें उनकी बड़ी संख्या हैं, जो अब मुसलमान बन गई हैं। पंचानी महोदयका विचार हैं, कि खश लोग मध्य एशियासे आये। वे भारतीय लेखकोंके पिशाच्च वर्गसे संबंधित हैं। अर्थात वे पैशाची खूनसे तथा पैशाची भाषासे संबंधित जनजाति थी। छटवी सदी तक वे वलखमें बोली जानेवाली भाषाकाही प्रयोग करते थे। मगर बादमे उनके हिमालयके निचले क्षेत्रमें उत्तर आनेपर वहांके लोगोंके संपर्कमें आनेसे भाषाई परिवर्तन हुआ। डॉ. भोलानाथ तिवारीके अनुसार खश भाषा अपभ्रंश प्राकृतकी एक शाखा हैं। डबरालके अनुसार खश जातिकी दर्द भाषाका प्रभाव सारे पंजाबमें, जहां पंजाबी और लहंदी बोली जाती हैं, मिलता हैं। सारे उत्तरापथमें कश्मिरसे नेपाल तक आज भी काशु, कश्कर, कश्तवाडी, खश-प्रजा तथर खशकुरा आदि खशोसे संबंधित बोलियां बोली जाती हैं। (47) खस जातिमें जाति प्रथा नहीं थी। बादके कालमें आये जातियोंके प्रभावसे खस-राजपुत और खस (भट) ब्राह्मण तथा गद्दी जातिमें खत्री गद्दी और भट गद्दी नामक दो वर्ग हो गये। किंतु इन दोनों वर्गोके बीच पूर्ववत विवाह संबंध होते रहे और आज भी हो रहे हैं। ऐसा लगता हैं, प्राचीन राजऋृषि प्रथाके लोग दो वर्गोमें विभाजित हो गये यथा राजपुत तथा पुरोहित पिछले डेढ़ सौ वर्षोके कालमें जब खस जातिके वंशजोने 1884 इ.में स्वयंको राजपुत कहना प्रारंभ कर दिया तो वह सारी जातिही नहीं, अनेक शुद्र जातियां भी जो विशाल खस-वट वृक्षकी छायामें आ चुकी थी, और स्वयंको राजपुत कहने लगी। सन 1885 की जनगणनामे खस जातिको खस देश गढ़वालमें शुद्र वर्गके अंतर्गत गिना गया था। आदिवासी नाग गणसंघ समाजमें कुल व जन्मके आधारपर समानता थी यानी उनमें जातिभेद न था। (शांतिपर्व अध्याय 107 महाभारतकी बड़ी सुचिमे खसोंका नाम नहीं हैं। किंतु कर्ण पर्व र्ुीं -108 में उन्हें पंजाबका निवासी बताया गया हैं। प्राचीन कालमें पंजाब यक्ष अथवा खाशा लोगोंके निवासका केंद्र था। (49) यही कारण हैं पंजाब अल्पाईन लोगोंका देश पुकारा जाता हैं। अर्थात ये लोग पंजाबके मूलनिवासी थे और इनमें कोई जातिपाती नहीं थी। कहा जा सकता हैं कि खस प्राचीन कालसे ही एक जातिपांति विहीन समाज था। आज भी वह समाज मात्र खस राजपुत खस भट ब्राह्मण यानी कनेत और भटोमें बटा हैं, जो उनमें प्राचीन कालसे राजरुषि प्रथाके प्रचलित होनेका पक्का प्रमाण हैं। हिमाचल प्रदेशमें बसे कनेत या कुनैत जो प्राचीन कुनिंद या कुणिंद जातिके वंश हैं। आज खासिया और राव दो भागोंमे बटे हैं। (49) उत्तरापथकी जनसंख्यामे 90 प्रतिशत कनेत खस अथवा कोल जातिके लोग थे, जो अवैदिक, अनार्य थे। इसी कारण बौध्द धर्म अपनानेमे उन्होंने पुरी रुचि दिखाई होगी। आज भी उनमें प्रचलित ब्याह, शादी तथा अन्य धार्मिक, सामाजिक प्रथाये अनार्य दिखाई पडती हैं। हम जानते हैं कि, आसामके खस, कुमांयुके कत्युरिया स्रुहनके कुनिंद तथा कश्मिरके लोहारा खस जनजातिके राजा थे। इन आदिवासी नाग जनजातिकी परंपराओंकी निम्न पहचान हैं। 1) नाग पुजा 2) मातृ पुजा और मातृ प्रधान परिवार 3) महापाषाण शवदफनाकी विधि 4) गणसंघ अथवा गिल्ड प्रकारकी सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था 5) जातिपाति विहिन समाज 6) राष्ट्रीय तथा जनजातिय अथवा नेशन-इन आर्मस प्रकारकी सेना व्यवस्था 7) राजरुषि प्रथा 8) काले-लाल मृद भांड (55) महापाषाण समाधियोंका जन्म 3 री 4 थी सहस्त्राब्दीमें इ. पू. मे पश्‍चिमी एशियामें हुआ था, जो 10 वी 8 वी इ. पू. में अल्पाईन तथा सेमेटिक जातियोंकी दुसरी लहर के भारत आगमनके साथ-साथ इस क्षेत्रमें पहुच गई जो बादमें नाग सभ्यताकी प्रमुख पहचान बन गई। (59) राजऋृषि शब्द संस्कृत भाषाका हैं जो राज तथा ऋषि शब्दोंके संयोगसे बना हैं। इसका अर्थ ऐसा जनजाति प्रमुख जो राजा होनेके साथ-साथ प्रमुख पुरोहित भी था। आदिवासी समाजमे राजनीतिक, सामाजिक संघठणका आधार गणसंघ-गणतंत्र व्यवस्था थी, जिसके मुखीयाका चुनाव होता था। जब हम राजऋृषि शब्दका प्राकृत रुप तलाश करते हैं तो वह हमे उत्तरापथकी खासी परंपरामें मिल जाता हैं। वंशावली लिखनेवाला ब्राह्मण (रायभाट) कहे जाते हैं। छोटा नागपुरका प्रथम नाग राजा फानी मुकुट राय पुकारा जाता था जिसका अर्थ ऐसा राजा या राजप्रमुख हैं जो चुना हुआ व्यक्ति भी हो सकता था। हम पहले बता चुके हैं कि भट्ट खासी ब्राह्मण पुकारे जाते हैं। इसीका बिगड़ा हुआ रुप भट्ट या भाट हैं। इन दोनो शब्दों यानी राय और भट्टसे मिलकर बने शब्द रायभाट्ट का अपभ्रंश रावत बना हैं। रावत खशोकी एक प्रमुख शाखा या गोत्र नाम हैं, जो आज भी प्रचलित हैं। स्पष्ट हैं रावत शब्द राजऋृषिका प्रचलित प्राकृत शब्द हैं। इससे इस बातकी सप्रमाण पुष्ठी हो जाती हैं, कि यह एक आदिवासी उत्पत्ति की प्रथा हैं। आदिवासी नाग जनजातियोंमे आदिकाल यानी सिंधुघाटी सभ्यताकालसे ही गणतंत्र, गणसंघ, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक प्रथाओंका प्रचलन था। कश्मिरमें डामर लोग जो कृषक अथवा छोटे सामंत थे। स्वयंका संघ बना लेते थे, तथा अपनी ऐसी ही सैनिक व्यवस्थाके आधारपर अपने राजा तथा महाराजाओंके लिये भारी समस्या बन जाते थे। यहा तक की वे छोटे सामंत संघकी शक्तिके बलपर राजाओंको गद्दीसे उतर जानेको विवश कर देते थे। ऐसी एक घटना कश्मिर के राजा हर्षदेव के कालमें 1081-1101 इ. मे हुयी थी (67) खासी अल्पाई एक गोल सिखाली जाति हैं। इराण के उत्तरी भागमें अल्पाईन जातियां रहती थी और दक्षिणी पश्‍चिमी एसियामे लंबे सिरकी समेटिक (द्रविड़) जातियां रहती थी। सिंधू घाटी तथा सुमेर के पूर्वोत्तर भाग व इराण के मध्य भाग ल्युरिस्तानमें ये जातियां मिश्रित अवस्थामें थी। खस जातियां (वहिका) कभी सारे पंजाबमें निवास करती थी। चौव्हाणोंकी उत्पत्ति खस अथवा कनेत से हुयी ऐसा माना जाता हैं जो अनार्य शुद्र मानी जाती हैं। खश शब्दका अर्थ संस्कृत भाषामें हैं, वह देश जहां शुद्र जातियां निवास करती हैं। चव्हाण- पवार तथा तंवर राजपुतोंके प्रथम गोत्र हैं। अर्थात इन राजपुत जातियोंकी उत्पत्ति खासी अथवा अनार्य शुद्र जातियोंसे हुयी हैं। यह आठ गोत्रोसे हुआ हैं। यह गोत्र 1) कश्यप 2) वशिष्ट 3) भ्रगु एवं जमदाग्नि, भारद्वाज, गोतम, अत्री विश्‍वमित्र, तथा अगस्त, चव्हाण, पवार, तंवर गोत्र नहीं वंश माने जाते हैं। कश्मिर के खासी राजाओंमे सती प्रथाका प्रचलन था। लोहार वंशकी महान सुपुत्री तथा प्रसिध्द राणी दिद्दाको उसके पति क्षेमगुप्तकी मृत्यूपर अन्य राणियोंकी तरह पति की चितापर सती होनेके लिये विवश किया गया था। लेकिन वह सती नहीं हुई। स्पष्ट हैं कि आदिवासी खासी नागोंमे भी सती प्रथा का प्रचलन था। खासी जनजातियोंमे रावत, विष्ठ, नेगी, कराओली रणहोर गोत्र (वंश) थे, जो मुख्यतया उत्तर प्रदेश व उत्तरांचलके पर्वतीय क्षेत्र के निवासी हैं। प्रसिध्द राणा राजपुतोंका जन्म भी खशिओंसे ही हुआ। शक जातिके आगमन से बहुत पूर्वकी कश्मिरसे पश्‍चिम नेपाल तक सारा मध्य हिमालय खस देश बन चुका था। आंगतुक शक तथा अन्य जातियां कालांतरमें उसी खस सागरमें विलीन हो गई और खस रीतिरिवाजोको अपनाकर उससे अभिन्न हो गई। (73-74) कोलीयोंकी उत्पत्ति कनेतोसी हुयी जिसका संबंध मूलरुपसे खासी जनजातिसे था, जिन्होंने ठाकुर तथा राणा सामंतोंको जन्म दिया था। (75) कनेतोेंका जन्म मूलरुपसे खासी जनजातिसे हुआ हैं मगर वे प्राचीन कालमें निश्‍चय ही बौध्द धर्मके अनुयायी थे। आधुनिक कोली जाति कोल, खस, कनेतो तथा भटोकी संकर नस्ल हैं। कोली शुध्द राजपुत खुनसे नहीं थे, मगर कनेत उत्पत्तिसे थे। खस, कनेत, कोली जातिमे सामाजिक रीतिरिवाज भी एक समान थे शाक्य बुध्दकी ननीहाल परिवार रामगांवके कोली थे। वे नाग तथा बुनकर थे। उक्त कोलियोंंका किससे संबंध था, प्रमाणोंके अभावमें कुछ कहना कठिण हैं। पर उनका संबंध कनेतोसे सटीक प्रमाणित होता हैं, जो मूलरुपमें खासी थे, जिन्होंने महान कुनिंद राजवंशको जन्म दिया। (76-77) कश्मिर मूल रुपमें नाग देश हैं। प्राचीन कालमें कश्मिरमें नार नामका राजा राज करता था। नीलमाता पुराणके अनुसार नीलनाग राजऋृषि कश्यपका बेटा था, पद्मनाग सब कश्मिरकेही निवासी और राजा थे। (80-81) नीलमाता पुराणमे महानागोंको अतिरिक्त 500 से अधिक नाग, राजाओं अथवा नागोंका नाम दिया हैं। संभवत यह नाग खस जनजाति जो अल्पाईन जातिकी दीनारिक शाखा थी, से संबंधित थे। यही कारण हैं कश्मिर (खस-मीर) उन्हींके नामके पिछे जाना जाता हैं। कश्मिरका नाम कश्यप नहीं, खस शब्दकी पीछे पड़ा हैं। उन्हें प्राचीन कालमें यक्षु भी कहते थें। तिबती भाषामे कश्मिर और कश्मिरियोंको खछे कहते हैं, जिसका भारतीय रुप खस हैं। राजतरंगीने (1148-1149 ई) का प्रसिध्द लेखक कल्हन उल्लेख करता हैं, कि कश्मिर ऐसा स्थान हैं जिसकी सुरक्षा महान नीलनाग, शेषनाग तथा पद्म नाग करते हैं। कश्मिर के चार मुख्य नाग परिवारोंने शासन किया। जिसमे 1) लोहारा 2) गोनंदा 3) करकोटा तथा 4) नागपाल, इसमें करकोटा वंशका संबंध विष्णु पुराणके अनुसार तक्षक वंशसे था। ऐसाही दावा लोहारा वंशके नाग करते थे तथा स्वयंको शालीवाहनकी संतान बताते थे। (84) कश्मिरका लोहारा वंश अपनी उत्पत्ति शालीवाहनसे मानता हैं। शालीवाहन तक्षक नाग परिवारका राजकुमार था। लोहाराका नागवंश मूलरुपमें खाशी जनजातिका था, जिसकी पुष्ठी एक अन्य साक्षीसे होती हैं। कश्मिरकी प्रसिध्द महाराणी दीद्या जो लोहारा राजवंशकी राजकुमारी थी। इसका प्रेमी चहेता तुंगा खाशा जातिका एक चरवाह था। (अटाकेन्सन और रॉड जेम्स) 91 नारा राजाका नाम सर्वप्रथम कश्मिरकमे उत्पल पीडा (850-55) ई. के राज्यकालमें आया हैं उन्होंने राजगद्दीकी स्थापना की। संभवत: ये व्यापारी डामर या लबाना रहे होंगे, जो मुल रुपमें बहुत बड़ें व्यापारी थे। इस लबाना जातिका एक गोत्र खशयी हैं। इसका अर्थ है, खास जनजातिके प्रमुख लोहारा वंशका संबंध डामर या लुबाना लोगोसे संभवतया रहा होगा। यह लोहारा वंशी नाग लोग थे, यानी डामर या लुबाना जनोंका संबंध भी नागासे रहा होगा। लोहाराके राज्य की स्थापना नाराने (830-70 ई) मे की और 40 साल तक राज किया। वह संभवत: खश जातिसे संबंधित क्षत्रिय प्रमुख होगा। नरवाहन उसका बेटा था जिसने 890 तक राज किया। नरवाहनका बेटा फुला, फुलाके बाद उसका बेटा सातवाहन गद्दीपर बैठा। उसके बाद चंद हुआ। इसके बाद सिंहराजा 950 इ.मे. आया। सिंह राजाकी एक राणी ओहिंदके राजा भीमशाही की बेटी थी, उसकी बेटी दीद्या थी, जो कश्मिर के राजा क्षेमगुप्तको 950 मे ब्याही थी। 950 इ. मे. विधवा होनेपर अपने बेटे अभिमन्यु द्वितीय तथा तीन पोतो (नंदीगुप्त 972-73, त्रिभुवण) 973-75 इ. व भीमगुप्त 975-81 इ.) के संरक्षक के रुपमे राज किया। इसके बाद राणी स्वयं गद्दीपर बैठ गयी और 1003 तक स्वतंत्र राज करती रही। (91-92) सिंधुघाटी सभ्यताके मूल सृजनकर्ता आस्ट्रेलियन (कोल) तथा द्रविड़ प्रजातिके लोग थे। अल्पाईन प्रकारके लोग हडप्पा सभ्यताके सर्वोच्च प्रगतिकाल यानी 2100 इ. पू. के लगभग इराणसे आकर बस गये। इसका अर्थ हुआ ये तीनो प्रजातियां मांडामे भी उपस्थित रही होगी। इस आधारपर हम कह सकते है कि पश्‍चिम हिमालयका क्षेत्र यानी जम्मु कश्मिर तथा हिमालयका भाग, हडप्पा सभ्यताके कालमें अथवा उसके बाद उक्त तीनो जाति तत्वोंका निवासस्थान रहा होगा। पहाड़ी क्षेत्र के बहुजन जनसंख्या वैदिक लोगोंकी नहीं, खाशी लोगोंकी थी। अधिक जनसंख्या भट ब्राह्मण व राजपुत खशोकी हैं जो अनार्य हैं। खशोमें उनके आर्यकरणके पूर्व कोई जातिपाती नहीं थी। उन्होंने आदिवासी जातियोंसे रोटी बेटीका खुला संबंध बनाया होगा। आर्य एक लंबे सिरकी जाती थी, जबकी अल्पाईन लोगोंकी दीनारिक शाखासे खाशियोंका संबंध था, जिनका सिर कुछ गोल था। यह लोग सुंदर और पीले रंगके थे। ये लोग आर्य नहीं, अनार्य हैं। उनके आर्यकरणसे पूर्व जातिपाति विहीन समाज तथा पूर्व जातियोंसे रोटी बेटीका संबंध बनानेका पक्का प्रमाण यह हैं कि आज भी रंगरुपके विचारसे उन्हें अलग पहचानना बहुत कठिण हैं। मुख्यतया मेघा, सीपी जातियों का संबंध खाशियोंसे बहुत निकट का दिखाई पडता हैं। कारण खाशी (कुनिंदा जाति मूलरुपमें बुनकर थी) (126-27) पंजाब के कुलक्षेत्रमे पश्‍चिमोत्तर भाग की एक कुलूता नामकी प्रजातांत्रिक जनजाति बतायी जाती हैं। औडुंबरा, कुलूता, कुनिंदा तथा उत्तम भद्रा यह द्वितीय पंक्तिकी प्रजातांत्रिक जनजातियां थी और प्रथम पंक्तिकी मालवा, औधेय तथा अर्जुनेया यह जनजातियां थी। कुलूता लोगोंका उल्लेख महाभारत तथा रामायनके अतिरिक्त मारकेण्डेय पुराणमें भी हुआ हैं। इसके अलावा गंदे काम करनेवाली हाती, कोली, सीपी, वरवाला, लोहार, चमार, डुमना, रेहरा, चनाल, मेघ आदी भी कई जनजातियां हैं। पंजाब के उत्तरमध्य भागके एक प्रमुख गणतंत्र एवं गणसंघ था जिसको औडुंबरा नामसे पहचाना जाता था। ऋृषि विश्‍वामित्र उनके मुलपुरुष एवं राष्ट्रीय ऋृषि थे। वे आदिवासी भी थे और औडुंबरा जनसमुह के संरक्षक भी थे। औडुंबरायोंका संबंध शाल्वो एवं मद्रोंसे भी खुनका संबंध था। उनकी उत्पत्ति द्रविड़ प्रजातिसे मानी जाती हैं। औडुंबरा अथवा डामरा या डुम वर्गकी उत्पत्ति बंजारा अथवा लबानासे हुयी ऐसा भी माना जाता हैं। बंजारा-लुबाना रेलमार्ग बननेके पूर्व बैलगाडी अथवा बैलोके बड़े बड़े कारवाओंसे माल ढोकर व्यापार करते थे। जिस स्थानपर इन कारवाओंके ठहरनेके मुख्य केंद्र होते थे, वे टांडा कहे जाते थे। होशियारपुर और गुरुदासपुर क्षेत्रमें ऐसे बहुतसे टांडे थे। (148-49) इराणकी प्राचीन यदु जनजातिकी भारतमे चार शाखाये थी। वृष्टि, कुकुर, भोज तथरा आंध्र तथा आंध्रक। तक्षक अथवा टाक वंशकी उत्पत्ति आंध्र शाखामें से हुयी जो वहिका पुकारे जाते थे, तथा कर्पटी उनका गोत्र था। इस तक्षक वंशकी और मूल टक्का, मालन और मद्र ऐसी तीन शाखाये थी।.

G H Rathod

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