विश्‍व जनसमुहकी धर्म धारणा

विश्‍वमें, संसार, दुनिया,जगतमें, ब्रम्हांडमें अनेकानेक प्रकार के जनसमुह निवास करते है। इन जनसमुहकी आप आपनी वि

 

विश्‍वमें, संसार, दुनिया,जगतमें, ब्रम्हांडमें अनेकानेक प्रकार के जनसमुह निवास करते है। इन जनसमुहकी आप आपनी विशेष प्रकारकी जीवनशैली रहती है। इस जीवनशैली, जीवन पध्दतीमें उनकी प्रथक प्रथम रुढी परंपरा, रीतिरिवाज, नियम, विधि, विधान, प्रथाये, व्रत, उपवास, पर्व, उत्सव, त्यौंहार, देव, पूजा, प्रार्थना, मंदिर, क्षेत्र दर्शन, दान-दक्षिणा, मंत्र, यज्ञयाग, स्वर्ग, नरक, रक्त संबंधके और वैवाहिक नियम की बाते आदि घटनाओका समावेश होता है। विश्‍व के प्रथम प्रथक समुह उपरोक्त बाते नियम एवं पूर्व घटनाको प्रथाओंके अनुसार आचरण, व्यवहार करते हैं, इसी आचरण एवं व्यवहारको उस जन समुहकी जीवनशैली कहा जाता है। विश्‍वमे जो अनेक एवं प्रथक जनसमुह है, उनमें प्रमुख रुपसे आर्य हिंदु, मुस्लिम, शिख, इसाई, पारसी, जैन, बौध्द, ब्राह्मण, वैदिक आदि है। इन सभी जन समुहोंकी आप अपनी अलग जीवनशैली है, और इसी जीवनशैलीको प्रत्येक जनसमुह अपना धर्म, पंथ, संप्रदाय, मजहब, रिलीजन, एकही मानता है, समान या पर्यायोके साथ ही साथ अपना अलग धर्म, जीवनशैली, नियम एवं कानून भी मानता है। भारत देश यह एक ऐसा देशय है, कि, यहां किसी भी अन्य देशों से सर्वाधिक धर्मवालोकें जनसमुह रहते हैं और हर एक समुह अन्य धर्मोसे अपना धर्म सर्व श्रेष्ठ मानता है।

किंतु उपरोक्त सभी धर्म नहीं, वे सभी अधर्म है। क्योंकी विश्‍व के सभी समुहोके लिये या लोगोंका एकही धर्म होता है। धर्मका अर्थ आचारसंहिता, नियम, कानून, विधि, विधान, संविधान मान्यतायें है। जिससे विश्‍व के हर एक जनसमुहकी, समाज और शासन की व्यवस्था बनी रहती है और उनके माध्यमसे विश्‍व मानवकी उन्नति, कल्याण एवं सर्जन होते रहता है। किंतु उपरोक्त माने जानेवाले विभिन्न धर्मोमे कोई परस्पर समानता, आपसी मेल, मित्रता, कल्याण स्नेहभाव, एकता, सर्जनता, विधायकताक भावना या संबंध नहीं है। सभी परस्परोंकी हत्या करनेवाले, शोषण, लुट, करनेवाले, श्रेष्ठ, कनिष्ठ, माननेवाले, दुसरों की अवन्नती होते देखकर या उनके दु:ख मुसीबतोमें आनंद माननेवाले, दुसरे धर्मवालोंको गुलाम बनाये रखनेकी सोचवाले होने के कारण सभीके सभी धर्म नहीं अधर्म है।

फिर धर्म क्या है या उसकी व्याख्या कौनसी है? वैसे तो विद्वानोनें धर्म की अनेक परिभाषाये की है। किंतु धर्म की सबसे योग्य परिभाषा ‘धारयति प्रजा’ यह मानी गयी है। ‘धारयति प्रजा’ इस धर्म का अर्थ यह है कि, जिस आचरण, व्यवहार, संहिता, नियम, कायदा, कानून, विधि, विधान, रुढी परंपरा, रितीरिवाज, व्रत, कर्म, संकल्प, प्रतिज्ञा, संविधानद्वारा संपूर्ण विश्‍व समाज की धारणा शक्ति, या अस्तित्व बना रहता है। सभी सुरक्षित, सुखी, शांतिसे, मेलमिलाप, प्रेमसे रहते है, ऐसे ही नियम,  सुत्रोंकापे आचारसंहिताको, संविधानको धर्म माना जाता है। जिस धर्ममें उपरोक्त गुण या विशेषताये, लक्षण नहीं है, वह अधर्मही है, धर्म नहीं। धर्म यह समता मूलक, मानवतावादी, सर्जनशील और विश्‍वमानवको अपनी संततीसम माननेवाली धारणा एवं विचारधारा, संविधान है। इस सुत्रके अनुसार विश्‍वके अलग विशेषतावाले पंथ, संप्रदाय, नियम, कर्म, संकल्पना या संविधान भी धर्म नहीं कहला सकते। क्योंकि उसमे विश्‍व मानवको न्याय देनेकी भावनाओंका अभाव है। अत: विश्‍वके सभी पंथ, संप्रदाय, धर्म और संविधान भी धर्म नहीं, अधर्मही है। यदि विश्‍वके सभी पंथ, संप्रदाय, संविधान, सत्य धर्मका रुप होते तो विश्‍वमे कही भी मानव समाज में विषमता और असुविधा दु:ख, दर्द, पीडा यह सभी बाते नजर नहीं आती थी। अत: वर्तमान समय मे विश्‍वमे धर्मका कोई और कही भी अस्तित्व नहीं है।

वर्तमान समय में विश्‍वमे जो भी संप्रदाय, पंथ, धर्म, संविधान है, वे सभी विशिष्ट देश, मर्यादित क्षेत्रके लोगों की भलाईके स्वार्थभरे केंद्र, व्यापार, राजनीति, पेट भरनेके साधन मात्र है। ऐसे सभी लोक मानवद्रोही है। अत: विश्‍व शांतिकी कल्पना भी झुटी है। सब प्रकार का परिवार, समाज, देश और ब्रम्हांड एकही परिवार है, और इस परिवारको सभी प्रकार की सुविधा उपलब्ध करके देना, यह अपना परम कर्तव्य है, ऐसी भावना जिस परिवार, समाज, देश और ब्रम्हांड, प्रमुखकी है, वही सत्य धर्मका अस्तित्व रहता है। अन्यथा अधर्मका नंगानाच और वहां कर्तृत्ववान, आदर्श इमानदार, बुध्दिमानों को भी नरक यातना भोगना पडता है। इसी लिये अधर्म, असत्य, स्वार्थी, विषमतावादी, भोगवादीकी विकृत संस्कृति या धर्मको पनपने या बढने देना यह राष्ट्र प्रमुखका सबसे बडा गुनाह है।

कुछ लोग, मूर्ति, मंदिर, मजीद, विहार, चर्च, गिरजाघर, देव घर, तीर्थक्षेत्र निर्माण को, साथही पूजा प्रार्थना, अभिषेक, नमाज, व्रत, उपवास, पर्व, उत्सव, त्योहारोंको धर्म मानते है। वास्तवमें यह धर्म नही है। यह स्वार्थी परोपजीवी, आलसी, कष्ट न करनेवाले, शोषक, कामांध, धर्मांध समाज और राष्ट्रद्रोही, भट, पुरोहित, साधूसंत, मौलवी, मुल्ला आदिने पेट भरने के लिये खोले हुये दुकानों व्यापारोका, धर्मांध लोगोंका  समर्थन है। निरक्षर, धर्मांध, ईश्‍वर भोले, बुध्दिहीन, अविचारी बौध्दिक गुलाम, ऐसे लोगही ऐसी धर्मविहीन बातोंको समर्थन देते रहनेके कारणही भोगवादी लोग, इस क्षेत्रको बढावा देकर सामान्य लोगोंको दिशाहीन बनाकर अधर्मको धर्म बनाकर बढावा दे रहे है। देश मे स्वार्थ के लिये झुटे देवी-देवताओंकी, प्रतिमा, मंदिर, मजीद, चर्च, तीर्थक्षेत्र, कर्मकांड निर्माण करके उनके माध्यमोंसे देव धर्मभोले लोगोंका धन, समय एवं बल बरबाद करना, उनका शोषण करना, देव धर्मवालो में विवाद और संघर्ष बढाना, देश की बर्बादी, सामान्य लोगो को अपघातो में लोटकर उनके परिवारका सत्यानाश करना, यह सभी कर्म, अधर्म, समाज और देशद्रोही है। किंतु जिस देश का राजाही अधर्मी और मानवद्रोही, शोषक है वहा राजा नहीं, राजाके कार्योको समर्थन देनेवाली जनताही गुनहगार होती है।

क्या देव एवं धर्मकी किसीको आवश्यकता है? प्रथम हम देव के बारेमें सोचेंगे। वास्तवमे देव या देवी देश या दुनियामे जो जो महापुरुष, मतलब सत्य ज्ञानी, महान त्यागी, परोपकारी, सेवाभावी, समर्पनका कार्य, सत्य मार्गदर्शक, संकटोपर विजय पाने के लिये जिन्होने मार्गदर्शन या सहयोग दिया। समतावादी, मानवतावादी, विवेकी, विज्ञानवादी, क्रांतीकारी, पुरोगामी परिवर्तनवादी कार्य जिन जिन महापुरुषोंने किया वे सभी देव एवं देवी माने गये हैं। इन महापुरुषोंके मार्गपर चलना या इनके महान विचारोंका प्रचार-प्रसार बहुसंख्य जनताको लाभान्नित करना यही उनका अनुयायित्व है। मंदिर, पुतलेको खडे करना, पूजा, प्रार्थना करना, और उनके कार्य विचारोंपर आचरण न करना यह उन महापुरुषोंका तथा माने गये देवताओंका अपमान है। इसके अलावा उन्हें जीवन निर्वाह के वैयक्तिक साधन बनाना यह महापाप और देशद्रोह है। देव-देवी, महापुरुष हमे प्रेरणा, विचार, कार्य और आदर्श व्यवहार देते हैं। अन्य कुछ भी नहीं देते। अत: उन्हे मूर्त रुपमें मंदिरोमें विराजमान करके भोले लोगोंको लुटना उनसे प्रार्थना कर धनसंपत्ति, संतती, सुख-साधनोंकी मांग करना मूर्खता एवं अंधश्रध्दा है। मनुष्यको जो कुछ प्रशिक्षणसे भी मिलता है, वह शिक्षण समाजस, निसर्गसे, पशुपक्षी, वृक्ष, लता और, मनुष्यके कष्टके माध्यमसे, शासनसे, मनुष्य निर्मित यंत्रोसे, बुध्दिवादियोंसे, डाक्टरोंसे, जवानो सें, किसानोंसे, मजुरोसें मिलता है। इतनाही नही देवी देवताओंको भी उपरी घटकोंसे ही सब कुछ मिलता है। मृत नकली देवी-देवताओंको भी उपरी घटकोसे ही सब कुछ मिलता है। मृत, नकली देवी-देवताओने किसीको कुछ दिया है और भविष्यमें देनेवाले भी नहीं है। देवी-देवताओं, मंदिरो, क्षेत्रों और कर्मकांडोको साधन बनाकर, भट पुरोहितो, पुजारियो, ब्राह्मणों, कामांध, गांजाकस, आलसी, भोंदू साधू संतोने, देशको बरबाद करनेका देशद्रोहका, समाजद्रोहका काम किया है और आज भी कर रहे हैं।

क्या समाजको धर्मकी आवश्यकता है? मैने पीछले पन्नोपर सत्यधर्म और अधर्मके विषयमें सविस्तर लिखा है, भारतमें आर्यवैदिक, सनातन, हिंदु, शैव, शाक्त, शिव, मुस्लिम, शिख, जैन, इसाई, पारसी आदि अनेक धर्म (अधर्म) है, यह कारणोंसहित बता ही दिया है। अत: ऐसे धर्मोकी देशकी कोई जरुरत नहीं है। देव-देवी उनसे संबंधित धार्मिक (अधार्मिक) घातक, निरर्थक, सामान्योंके शोषक रुपी, धन, समय, और मनुष्य शक्ति बरबाद करनेवाले, जातिनिहाय कृत्रिम धर्मोकी भारतको कोई आवश्यकता नहीं है। किंतु, समाज और शासन व्यवस्था सुव्यवस्थित, शांतिपूर्ण, समता, न्याय, स्वातंत्र्य, भाईचारायुक्त, मानवतावादी, ऐहिक, सुख सुविधाओंसे परिपूर्ण ऐसे जो निरयम, कानून, आचारसंहिता विधिविज्ञान, प्रथा-परंपरा, व्रत, उत्सव, त्यौहार, संकल्प, ध्येय, प्रतिज्ञा, कर्म और देशके संविधान धर्मकी मात्र प्रत्येक व्यक्ति, परिवार, समाज और देश, विश्‍वको अनिवार्य है। क्योंकि मानवी धर्म नियमोंके अभावमें किसीको भी सुख एवं शांतिसे जीवन बिताते नहीं आता धर्मके (नियमोंके) अभावमें मनुष्यका जीवन सार्थक नही बनता और ध्येय भी साध्य नहीं होता। अत: देशको, विश्‍वको धर्मकी नितांत आवश्यकता है।

वेद ग्रंथोमे कहा भी गया है कि ‘धर्मो रक्षिति रक्षत:’ अर्थ जो धर्मकी रक्षा करता है उसकी धर्म (नियम, कानून) रक्षा करता है । यह धर्म, नियम, कानून, संकल्प, प्रतिज्ञा, अनुशासन, कर्म आदि सभी पर्यायी मतलब समानअर्थी शब्द है। वर्तमान समयमें इन सभीका समावेश संविधानमें किया गया है। अत: संविधानही भारतियोंका धर्म और धर्म ग्रंथ भी है। अन्य नहीं। भारतमें हिंदु धर्मका बहुत बोलबाला है। हिंदु धर्म संसारमें सर्वश्रेष्ठ कहलाता है। किंतु यह धर्म उनके देश केही बौध्द, इसाई, शिख आदी धर्मअवलंबियोपर अखंड रुपसे अन्याय, अत्याचार कर रहा है। घुमंतु अर्ध घुमंतु, विमुक्त आदिवासी, अनुसूचित जनजातिओं पर भी अन्याय, अत्याचार कर उनका हिंदुकरण, ब्राह्मणीकरण कर रहा है। स्वाधिन भारत में संविधानका संरक्षण होते हुये भी उनके हक्क अधिकार छीने जा रहे हैं। उनको जानबुझकर निरक्षर, बेकार, कुपोषित, बेघर, रोगी, असुविधामय जीवनोपयोगी साधनोंसे, शिक्षा, सत्ता, संपत्ति, सुरक्षा आदीसे वंचित रखकर उनको मिटानेका प्रयास किया जा रहा है। पीछड़ोको जलाया, मारा जा रहा है। स्त्रियोंका शिलभंग किया जा रहा है। उनकी शिकायते नही दर्ज की जा रही है। गुनहगारोंको निरापराध घोषित किया जा रहा है। हिंदुत्वका स्वीकार करो नहीं तो भारत देश छोड़कर चले जावो ऐसी धमकिया दी जा रही है। लोगोंको रहनेको कराड़ोको निवासस्थान नहीं है। वहा लाखो, खरबों मे मंदिर बनाये जा रहे है। गरिबों की झूगी झोपड़िया जलाई या तोड़ी जा रही है। मनुष्योंको जलाया, मारा जा रहा है और पशुओंको पाला पोसा जा रहा है। किसानोंकी खेतिया हड़प की जा रही है और किसानोकी अनाज, सब्जी, दूध आदीको उचित भाव नहीं दिया जा रहा है। कारखाना उत्पादित वस्तुओंके भाव आसमानको भिड दिये गये है और नौकरोंके वेतन भी चारसे छ: गुणा दिये गये हैं। बेकारोंको रोजगार नहीं के बराबर है, ऐसी अवस्थामे सामान्य इन्सानोंका जीवन पशुमय हो चुका है। ऐसे अमानवी, अन्यायी, अत्याचारी धर्म, समाज और शासन व्यवस्था को सर्वश्रेष्ठताकी उपाधि देना कहा तक उचित है। इस प्रकार के, हुकुमशाही, पुंजीवादी, ब्राह्मणवादी, देव- दैववादी, कर्मकांडवादी, शोषणवादी धर्मको धर्म मानना और उसको समर्थन देना, उसका अनुकरण करना कहा तक योग्य है, इस विषय में बहुजनोंने सोच समझकर उसका त्याग करनेकी आवश्यकता है।

भारतमें देवी-देवताओके लाखोसे ज्यादा मंदिर, तीर्थक्षेत्र है। 5 लाख से अधिक संत लोग है। इन छ: लाख मंदिरोंके 33 कोटी देवी देवता और श्रेष्ठ धर्म की देशके लिये कौनसी उपयोगिता और फायदा यह बात देव देवी और हिंदु धर्म समर्थक एवं अनुयायी बता सकेंगे क्या? आलसी साधू संत, पुजारी, पुरोहित, भ्रष्ट विश्‍वस्थ, अधिकारी, मंत्री, व्यापारी, उद्योगपती, भोग विलासमय जीवन जी रहे है। कष्टसे देशको समृध्द बनानेवाले किसान मजूर लोग कष्टमय जीवन जी रहे है क्या यही श्रेष्ठ देवी देवताओंका और श्रेष्ठ धर्म का न्याय है? 33 कोटी देवी देखनेवाले और श्रेष्ठ हिंदु धर्मवाले भारत देशमें बार-बार सुखा (दुष्काळ) की अवस्था क्यों निर्माण होती है। महापुरों मे और पवित्र तीर्थ या क्षेत्र स्थलोंपर हजारोंकी मौते क्यों होती है और मृत्योंको भगवान क्या देता है? आप आपने देवियों, पंथ, संप्रदायों मतोंवालोने, धर्मोके आधारपर सभी धर्मपंथ, संप्रदायवालो ने बहुत बड़े बड़े विशाल, भव्य, सुंदर, आकर्षण वालोने सफाईदार किंमती, हिरे, मोती, माणिक, सोना, चांदी आदिसे मढे हुये शिखर, भीतरी खंबे, दिवारे, प्रतिमाये सजाई हुयी, प्रतिमाओके सामने सुगंधी धूप दिपक, पंखे लगाये हुये, अंदर-बाहर सुरक्षा जवान, प्रतिमाओंकी सफाई, स्नान कराना, दही, दुध, घी से मालिश ऐसी व्यवस्था उस क्षेत्र एवं मंदिरों विश्‍वस्त पुजारीओंकी ओरसे रखी हुई रहती है। किंतु ऐसी चमत्कारी, प्राणप्रतिष्ठित, सर्वशक्तिमान संकटमोचन मूर्ति, परावलंबी होती है। इस मूर्ति एवं प्रतिमाको कोई भी चुराकर ले जा सकता है। यह मूर्ति ना कुछ खाती-पिती, हिलती-डूलती, मलविसर्जन करती ना कुछ सुनती और ना कुछ बोलती है। वह ना कुछ मांगकर लेती और ना कुछ किसी को देती, यह मूर्ति फूट भी जाती है, जल जाती है, दब भी जाती है, बहकर भी चली जाती है। ऐसी किसी पर निर्भर, पत्थर प्रतिमाकी पूजा, प्रार्थना, आरती, अभिषेक करना क्या मानव समुहकी बुध्दिमत्ता समझी जा सकती है। गाय, बैल, घोड़ा, बकरी, भैस, गधा, कुत्ता, वृक्ष, लता, बिल्ली, बंदर, उल्लु, अन्य मनुष्यके मांसाहारी जीव तो भी मनुष्य की अनेक जरुरते पुरी करते है। किसान मजुरो, जवानो, जन्मदाता माता-पिता, धरती, जल, प्रकाश, वायु चांद, सुरज आदी सभीका मानव समुहपर अनंत उपकार है। इस सभी घटकों एवं तत्वोंकी देखभाल, संरक्षण, पोषण, उचित उपयोग, व्यवस्थापन, सर्जन आदीमें तो भी मनुष्यकी बुध्दिमत्ता और उपकार वृत्ती का दर्शन होता है। किंतु देवो एवं धर्मी के लिए श्रम, समय , धन और शक्ति व्यर्थ में व्यय करना इसमें तो नादानी, विवेकहीनता, अज्ञान, अंधविश्‍वास एवं अविचार के बगैर और कुछ भी नजर अनुभव नही आता। यह सभी कृतियां मानवता विरोधी, धर्मविरोधी दिखाई देती है। एक मालक अपने मजूर को उसके कष्ट के बदलेमें मुवावजा, मजुरी देता है। किंतु देवदेविओंकी अपने साधनोंसे, भ्रष्टसे रात-दिन मुल्यवान समय, धन, बल, व्यय कर सेवा, भक्ति, पुजा, प्रार्थना, आराधना, आरती, अभिषेक, वस्त्र, अलंकार, पहनाने, स्नान कराने, गुणगान करने के बाद भी भक्त को कुछ न देनेवाले देव-देवी एवं धर्मको निरर्थक एवं बालपण के बच्चोंका खेल समझकर उसका त्याग करनेके स्थान पर बड़ेपण मे भी उसका समर्थन करते रहता यह मनुष्यता एवं बुध्दिमत्ता, विद्वता के लक्षण नहीं है। दुसरी बात आर्य, ब्राह्मण, खुदको हिंदु ना मानकर, समझकर ब्राह्मणही मानता, समझता है और अन्योंको हिंदु बनाकर, हिंदु के नामसे संघटित कर खुदका संरक्षण कवच मजबुत करता है। हिंदुओंके भलाईके काम न करत ब्राह्मणोंके भलाईके काम करता है और हिंदुओका गुलाम बनाये रखनेके षडयंत्र रचते रहता है, हिंदु विद्वानोंका लाभ लेने के लिये उनकी अप्सरा, विष कन्यायें हिंदु युवको को ब्याह देता है। किंतु, हिंदु कन्यासे विवाह नहीं करता। यदि आर्य ब्राह्मण और बहुजन हिंदु सब एकही हिंदु धर्मकेही है तो वे हिंदु कन्याओंने साथ सरास एवं बेधड़क, तुच्छ एवं कनिष्ठ न मानकर विवाह क्यो नहीं करते। हिंदुओंसे उनका स्वतंत्र एवं प्रथक अस्तित्व क्यों रखना चाहते है? इसका मतलब यही होता है कि वे भारतीय न होकर विदेशी है और केवल भारतियोंका वापर करना चाहते हैं। सभी भारतियोंका धर्म यदि एकही हिंदु है तो सभी का हिंदुकरण क्यों नहीं करते? जाति, पंथ, संप्रदाय, व्यवसाय, राजकारण, अर्थकारण, समाजकारण, संस्कार एवं साहित्यकारण, आदीके भेदभावकी नीति क्यों अपनायी जा रही है? कुल मिलाकर भारतमें विभिन्न धर्म, जाति, पंथ, संप्रदाय, व्यवसाय आदीके आधारपर अन्याय, अत्याचार, विषमता, बहुजनोंकी गुलामी और अभिजनोंकी उन्नति के कपट कारस्थान बड़े पैंमानेपर रचे जा रहे हैं। इसी कारणवश ब्राह्मण, हिंदु, मुस्लिम, शिख, इसाई, पारसी, जैन, सनातन, आर्य, वैदिक कोई धर्म न होकर अधर्मही है। क्योंकि इन प्रथक धर्म पंथो, संप्रदायों, जातियोंके कारण समाजकी धारणा अथवा अस्तित्व, सर्जनशिलता कल्याण ना होकर विनाश अधोगति हो रही है। इसी कारण भारतमें धर्मका अस्तित्व नहीं है। सभी और अधर्म ही अधर्म के परिणाम दिखाई दे रहे हैं। केवल बुध्द (बौध्द) धर्म (धम्मका) ही अस्तित्व और धर्म बनाये रखनेको केवल बुध्दा बौध्द (धम्म) धर्मही एकमात्र आधार है।

आज संसारमें देवी-देवता और पंथ, संप्रदाय, धर्मो के एवं जातिको नामसे जितने विवाद, संघर्ष, खुनखराबी, अन्याय, अत्याचार, शोषण हो रहे है, उतने अन्य घटनाओसे नहीं हो रहे हैं। संसार में सबसे घातक एवं विध्वंसक शोषण घटनायें जनसमुह के प्रथक, जाति, पंथ, संप्रदायोंके कारणही हो रहे हैं। अत: ऐसे सामाजिक, प्रतिकोंको धर्म एवं धार्मिकताकी उपाधी देना या संबोधना मनुष्यकी सबसे बड़ी कमजोरी, दोष या गलती मानी जानी चाहिए। जब तक देश एवं संसार के सभी धर्म, पंथ, संप्रदायोंका सभी के लिए सामान्यकारण करके सभीमेंसे मानवतावादी तत्वोका सकलन कर सभी के लिए समान हक अधिकारोंमे नियम, कानून, आचारसंहिता या संविधान नही बनाया जाता, जब तक देश और दुनियामें सत्य धर्म और धार्मिकताकी स्थापना या अस्तित्व, अनुभूति नही मानी जा सकती।

अब हम प्राचीन भारतीय आदिवासीयोंके धर्म धारणा का इतिहास देखने प्राचीन आदिवासी यानी भारत काप मूलनिवासी, जिसे वर्तमान समयमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जमाति, अन्य पीछड़ा वर्ग, घुमंतु वर्ग, गुन्हगार, साथही विमुक्त जमाति आदी सभी वर्ग उपरोक्त सभी जनसमुह आर्य भारतमे आने के पूर्व भारतके आदि निवासी, शासक और देशके मालक थे। यह जनसमुह भारत में इसापूर्व सात से छ: हजार वर्षपूर्व रहता था। यह समुह भारतमें जंगली अवस्था से लेकर किसान, पशुपालन, आंतरराष्ट्रीय व्यापारी और आदर्श शासक, आदर्श गांव शहर निर्माता था। आर्य ब्राह्मणोंका भारतमें आगमन इसापूर्व लगबग तीन हजारमें युरोप देशोकी ओरसे हुआ। इतिहासकार एस. एल. सिंहदेवका कहना है कि यह आर्य समुह या लोग नग्न घुमकड़, जंगली, असभ्य, पशुपालक थे और कृषि करना इन्हें कतई मालुम नहीं था। ये लोग बर्फीले ठंडे युरोपके देशोंमे रहते थे और पशुमांस, कंदमूल, फल आदी खाकर अपना जीवन यापन करते थे। जब युरोपमें असह्य ठंडी पड़ने लगी, अखंड रुपये बर्फ पड़ने लगा, कंदमुल, फल और पशुमांस भी मिलना मुश्किल हुआ, तब ये लोग धीरे धीरे टोली टोलीसे तीन हजार इसापूर्व भारतमें घुस आये। आरंभ मे केवल पुरुषोंकाही आगमन हुआ और पशुमांस, स्त्रिया अनाज के लिये मुलनिवासी आर्यों में संघर्ष हुआ। मुलनिवासिको लुटना, उनका संव्हार, जलाना, तोडना, फोडना और स्त्रियोंको भगाकर अज्ञात स्थलोंपर भाग जाना यह काम शेकडो सालोंतक चलते रहा। ये लोग शस्त्रधारी, घुडस्वार और युध्द कलामें होशियार थे। फिर भी मुलनिवासियोंने लढ़ाईमे उन्हे हराया और केवल भीक मांगकर और मुलनिवासीयोंकी सेवा करके रहनेकी शर्तपर उन्हें भारतमें शरण या आश्रय दिया गया था। आर्य अनार्योसे संघर्षमे बार-बार पराभूत होने के कारण और उनकी मातृभूमि युरोपको भी कोई सुविधा न होने के कारण शरणागत के रुपमे भारत मे अनार्योकी सेवा, पुरोहितगिरी और भीक मांगकर रहने की शर्तोपर भारतमे रहने लगे। किंतु कुछ समय या सालोके बाद युरोपमे रहनेवाली उनकी बिरादरी भी उनकी पत्नी, बहु और बेटियो के साथ भारत आ गये। पीछेसे आनेवाले आर्य ब्राह्मणोंकी गोरी पत्नियां, बहु बेटिया को देखकर यहां के मुलनिवासी, आदिवासी, राजा, महाराजा और उनकी संतती यानी लड़के भी इन गोरी ललनाओकी ओर आकर्षित हुये और उठा उठाकर लाकर उनका उपभोग लेने लगे। इस कारण आर्य अनार्योमे और युध्द भड़क उठा। किंतु अल्पसंख्य और सत्ता, संपत्ति विहिन भीक मांगनेवाले आर्य ब्राह्मणोंका पराभवही होते रहा। अत: अंतत: मजबूर होकर आर्य ब्राह्मणोंने अपनी कन्याये राजा महाराजाओंको, राजपुत्रोंको देकर या ब्याहकर उनको उनके दामाद जमाई बनाया और मिलजुलकर शांतिसे रहने लगे। किंतु अनार्य राजा-महाराजा और राजपुत्र अनेक गोरी कन्यायोके भोग-बिलास में लिप्त रहने लगे। शासन-प्रशासन और समाज व्यवस्था या सेवाकी और उन्होने ध्यान नहीं दिया। अत: जनताका विरोध बढकर अशांति फैल गयी। इस अवसर का लाभ लेकर और अनार्योमें फुट डालकर उन्होंने अनार्योसे संघर्ष किया और संघर्षमे अनार्योको हराया। राजा महाराजा और राजपुत्रोंकी हार, संव्हार और शरणागतिके कारण सामान्य जनता का कोई रक्षक ना रहा और उनपर भी अन्याय अत्याचार बढ गये। पत्नी, मां, बहनोंकी अब्रु लुटी जाने लगी। आर्योने अनार्योपर पुरा वर्चस्व पा लिया था। बच्चे खुचे अनार्योका, बहुजनोंका, मुलनिवासीयोंका कोई वाली नहीं बचा था। अत: अनार्य बहुजनोंने पहाड़ पर्वतोंका सहारा ले लिया। वे दुबारा 1947 तक गाव नगरमें नर्ही आये थे। गाव-नगर छोड़कर जो लोग आर्य ब्राह्मणोंकी शरण गये, वे गांव-नगर मे रहने लगे और आर्य ब्राह्मणों के इशारेपर, आदेशोंपर गुलाम बनकर उनकी सेवा करते रहे। परंतु जिन्होने पहाड़-पर्वतोंका सहारा लिया वे आर्योको कभी शरण नहीं गये। तबसे ये लोग आदिवासी कहलाने लगे। यह घटना इसा पूर्व 1800 से 1750 के लगभग घटित हुई ऐसा इतिहासकारोंका कहना है। 1949 के पश्‍चात भारतीय संविधान के कारण पहाड़ो एवं पर्वतोंकी गोदमे बसे हुये कुल आदिवासियोंमे से 10-15 प्रतिशत आदिवासी गाव-नगरमें या पास पड़ोसमे आकर बस गये है। फिर भी निरक्षरता, बेकारी, बेघरी, आदी के कारण उनकी हालत अभी भी बहुत खराब है। शेष 80-85 प्रतिशत आदिवासी आज भी पहाड़ो पर्वतोंके पास पड़ोसमे रह रहे है। उनकी हालत तो जंगली पशु समान है। उनका भी प्रस्थापित जातिवादी शासन और अधिकारी लोग जानवरोकी भांति उपयोग कर रहे हैं और उन्हे गुनाहगार, चोर, डाकू संबोधकर, उनका संव्हार कर रहे हैं या जेलोंमे सड़ा रहे है। ऐसे लोगो मे भिल्ल, बंजारा, गोंड, पारधी, कैकाडी, कोरकु, वैदु, गोपाळ, पांगुळ, मसान जोगी, डोम, चांडाळ, गाड़ी लोहार, मुसक, वडार, धनगर आदी हजारो जातियां है। ये सभी जमाति शुद्र वर्ण मानी जाती है और मोहेंजोदाड़ो, हड़प्पा शहरों कि निर्माता और प्राचीन यानी आर्य ब्राह्मण पूर्व कालीन 4000/3500 वर्ष, आजसे 5000-9000 वर्ष प्राचीन मानी जाती है। पौराणिक आर्य ब्राह्मणोंने इन्हें वेद ग्रंथों मे उनकी शत्रु जाति, मानकर उनको आव्रत, अनिंद्र, अब्राह्मण, अदेवस्य, अश्रध्द, अयाज्ञिक आदी नामोंसे संबोधा है। सिंधू घाटी कालीन आदर्श सभ्यता एवं संस्कृतिके समयमे यह सभी जमातियां पणि, द्रविड़ और मेलुआ नामोसे संबोधी जाती थी। यह सभी जमातियां निसर्ग यानी धरती, वायु, जल, अग्नि, वृक्ष, लता, पहाड़, नदी, सागर, सुरज, चांद, तारे, पालीत पशु-पक्षी, पूर्वज वंदक थी। देव-देवी, धर्म, जाति, विविध दैवी कर्मकांड, मंदिर, तीर्थक्षेत्र, मूर्तिपूजा आदि संकल्पना एवं धारणायें उस समय उनमें नहीं थी। आर्योंको भारतमे आगमन पूर्व भारतका मुलनिवासी, आदिवासी, बहुजन जनसमुह जो सिंधु घाटी सभ्यताक निर्माता, आदर्श, खेतीहर, पशुपालक, आंतरराष्ट्रीय व्यापारी था, वह पूर्णत: जात, पंथ, संप्रदाय, धर्म, देव-देवी, दैव और उनसे संबंधित सर्व कर्मकांडोसे मुक्त था। मतलब मुलनिवासी देव-देवी, धर्म, जात निरपेक्ष, आज की भाषामें नास्तिकम, परंतु सिंधु संस्कृतिमें वे अस्तिक, धार्मिक, समता, मानवतावादी, परिवर्तनवादी, आदर्श नागरीक, पुरोगामी विचारधाराका समुह था। देव-देवी, जाति, धर्म, पंथ, संप्रदाय, निरर्थक कर्मकांडोकी निर्मिति आर्य ब्राह्मणोंने पौराणिक कालसे की है। यह समय आर्योके वर्चस्व पश्‍चातका है। उत्तर प्रदेश के इतिहासकार डॉ. एस. एल. निर्मोही एवं सिंहदेवने उनकी रचना ‘‘वैदिक असुर और आर्य’’ नामक मे लिखा है कि प्राचीन माने गये वेद ग्रंथोंकी रचना आर्य आगमनके पूर्व ही इसा पूर्व 3000 पूर्व असुर अनार्योने की थी। आर्य ब्राह्मणोंने वेदोंकी रचना नहीं की। क्योंकि उनका भारतमे आगमन इसा पूर्व 3000 के बादमें हुआ है और वे युरोपीय देशोसे आने के कारण जंगली, असभ्य, मांसाहारी, कंदमुल फल खाकर रहनेवाले लोग थे। उन्हें कृषि का ज्ञान और अन्नाहार मालूम नहीं था। भारतमें आने के बाद वे अन्नाहार करने लगे। किंतु खेती को वे पाप कर्म समझते थे। उन्होंने अनार्योपर वर्चस्व पाने के बाद पौराणिक ग्रंथोंकी रचना की, और प्राचीन अनार्य, असुरोने लिखे ग्रंथोमें बड़ी मात्रामें हेरफेर कर वेदग्रंथ उनके अनुकूल बना लिये। उन्होने वेदोंमे और पौराणिक ग्रंथोमे भी कृषिकार्य को पाप कर्म बताया है। किंतु प्राचीन वेदग्रंथोंमे कृषकको भी ही प्राचीन कालमें देव, ईश्‍वर माना गया था। वेदोंमे कृषकोंको विश नामसे संबोधा गया है। विश शब्दका विस्तार बादमे इश, इसर, ईश्‍वर, परमेश्‍वर आदीमें माना जाता है। प्राचीन कालमे खेती कार्यको ही धर्म कार्य माना जाता था। क्योंकि विश्‍वकी धारणा कृषि कार्यपर ही आधारित थी। भारतीय कृषिका किसान यह सचमुचही भगवान, ईश्‍वर था। आज भी है। क्योंकि भारतीय विशोनेही विश्‍वमें कृषिकार्य फैलाया और कृषिका ज्ञान भी दिया। कृषि कार्य के बगैर कोई जिंदा नहीं रह सकता। अत: कृषि कर्मही विश्‍व धर्म और कृषकही विश्‍वका पालनहार, ईश्‍वर है। कृषक और कृषिकार्य की रक्षाही आज वास्तवमें सच्चा धर्म है। क्योंकि कृषक, कृषि कार्य करता है। इसी कारण पुरा विश्‍व जिंदा है, पुरे विश्‍वकी धारणा, सर्जन अस्तित्व बना है। यदि किसानोंने कृषि कार्य नहीं किया तो किसानोंके उत्पादित उत्पादनोंपर आधारित एवं संचलित उद्योग भी बंद पड़ जायेंगे और अनाज, फल, दही, दुध, घी, पशुओंका मांस भी नही मिलेगा और पुरे विश्‍वका उपरी चीजोंका अभाव में अस्तित्वही खत्म हो जायेगा। अत: विश्‍वकी धारना बनी रहनेके लिये कृषि यह विश्‍व धर्म है। कृषक के अस्तित्वपर पुरे विश्‍वका अस्तित्व निर्भर है। इसी कारणवश कृषक को वेदोंमे विश्‍व की उपाधि दी गई है। किसानही पुरे विश्‍वका प्राणतत्व, जीवनसार, विश ही इसर, ईश्‍वर और परम इसर अथवा परमेश्‍वर और सभी की धारणा शक्ति एवं विश्‍व धर्म है। पौराणिक, गीता ग्रंथमे श्रीकृष्णने जिस धर्मकी चचाृ या परिभाषा की है, वह धर्म नहीं अधर्म है, चातुर्वणीय धर्म के संबंधमे कृष्णने कहा है, कि गुण एवं स्वभावके आधारपर मैने चारवर्णीय धर्मकी स्थापना की है। लेकिन कृष्णको शायद यह सत्य ज्ञात न होगा कि मनुष्य गुण, स्वभाव, स्थल, काल परिस्थितीमें अनेक कर्म कर सकते हैं। अत: कृष्ण की चार वर्णोकी निर्मिति यह अन्यायपूर्ण, स्वार्थप्रेरित है। अत: चार वर्ण, धर्म, यह धर्म न होकर वास्तवमें अधर्म है। क्योंकि सहयोग, सहजीवन, सत्यकर्म, अखंड सर्जनशील कर्म, कल्याण कर्म, समता, न्याय, भाईचारा, स्वातंत्र्य, हक्क, अधिकार, जीवन का अधिकार, सुख-सुविधा, सुख साधन, शांति, संयम, सहिष्णुता, इन्हीं सब आचारसुत्रोमें, नियमोंमे, कानुनमें सत्य एवं विश्‍व धर्म समाया हुआ है।

कृष्णने ‘स्वधर्मे निधनं मेय:, परधर्मो भयावहं’ ऐसी धर्मकी परिभाषा की है। जो सौ प्रतिशत गलत है। क्योंकि धर्म एकही है और वह है विश्‍वधर्म कृष्णने बताया हुआ धर्म नहीं वह राष्ट्रीय कर्म है। राष्ट्रीय कर्तव्यकी जिम्मेदारी यह प्रत्येक मनुष्यकी जिम्मेदारी होती है। अत: कभी कभी, स्वधर्म, परिवार धर्म, समाज धर्मका त्यागकर राष्ट्र धर्म (कर्तव्य) का ही पालन करना अनिवार्य होता है। कभी-कभी राष्ट्र धर्मके साथही साथ विश्‍वधर्म, कर्तव्य को भी निभाना होता है। अत: इन्ही कर्तव्योंको सत्यधर्म कहा जाता है। कृष्ण के वर्ण धर्म के कारण भारतमें अनेक जातियां निर्माण होकर शुद्रोपर अनंत अन्याय और अत्याचार हो रहे हैं।  अत: कृष्णका चार वर्णी धर्म यह धर्म नही अधर्म है। कृष्ण का गीता धर्म यह आर्य, ब्राह्मण, सनातन, पौराणिक, अपरिवर्तनीय, प्रतिगामी, विषमतावादी, अमानवी धर्म है। इसे धर्म कहना अज्ञान है। क्योंकि उसमें विषमता की कोई सीमाही नहीं है। अत: गीता धर्म यह अधर्म है। उसे धर्म कभी भी नही माना जा सकता। कृष्णने गीतामें एक श्‍लोक मे कहा है कि, ‘सर्व धर्म परित्यज्यं, मामेकं शरणं’ अर्थ सब धर्मोको त्यागकर मेरी शरण मे आ जावो। कृष्णके कथनानुसार अर्जुन और उनके सभी भाई, परिवार कृष्ण की शरणमें चले गये थे। किंतु अर्जुन परिवार का और अंतमे कृष्णका भी पुरा सत्यानाश हो गया। अर्जुन परिवार और कृष्ण भी बहुत ही बुरी हालमते नष्ट हो गये। यह सब जो हुआ, वह कृष्णकी गीता ग्रंथ के अधर्म के कारणही हुआ। कृष्णके अंधभक्त कृष्णके गीता उपदेशको गीता एवं मानव धर्म मानते है, यह सबसे बड़ी भूल और विनाशी भूमिका है। वर्तमान समय मे भारतीय संविधान का जो मूल रुप है, उसपर सौ प्रतिशत आचरण एवं अंमल करना यही सच्चा राष्ट्रधर्म, विश्‍वधर्म और मानव धर्म है। शेष सभी अधर्मही अधर्म माना जाना चाहिए। वर्तमान समयमे जो विविध धर्म है, उनको किसी मंदिर, मूर्ति, क्षेत्र दर्शन, विहार, मठ, चर्च, मजीद, पूजा, प्रार्थना, आरती, अभिषेक, घंटानाद, जुलूस, स्मरण, आदीसे जोड़ना गलत है। धर्म कोई ग्रंथ, महापुरुष नही है। धर्म यह एक सार्वजनिक आचारसंहिता, नियम, कानून, विधि, कर्तव्यच, जिम्मेदारी एवं प्रतिज्ञा, देश, विश्‍वका संविधान है।

 

जयभारत-जयसंविधान

प्रा. ग. ह. राठोड

 


G H Rathod

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