गोर बंजारा इतिहासकारों एवं विचारवंतोके लिये डॉ. एस. एल. निर्मोही और डॉ. नवल वियोगीकी रचनाओंसे कुछ महत्त्वपूर्ण संदर्भ
ता. 19-11-2021
गोर बंजारा इतिहासकारों एवं विचारवंतोके लिये डॉ. एस. एल. निर्मोही और डॉ. नवल वियोगीकी रचनाओंसे कुछ महत्त्वपूर्ण संदर्भ
1) नाग लोक (साप नही) मानव थे। (डॉ. सी. एफ. ओल्डाम) वे पश्चिम एशिया (असिरियासे) आये थे और राक्षस नहीं बल्कि मानव/मनुष्य थे।
2) उत्तर भारतमे तक्षशिला नाग लोगोंका मुख्य केंद्र था।
3) तक्षक यह नाग लोगोंका मुखिया (राजा था) और वह तक्षशिला मे रहता था। यह तक्षशिला नाम तक्षक के नामसे पड़ा था।
4) नाग लोक इराणसे चलकर अफगाणिस्थान (काबुलमे) आ बसे थे। उसके बाद उन्होंने भारतमे प्रवेश किया, जिसका प्रमाण तक्षशिला है।
5) विद्वानोंका मानना है कि, ऑस्ट्रेलियन तथा भूमध्य सागर तटीय लोगोंकी उत्पत्ति भूमध्यसागर पूर्व तटीय क्षेत्रोंमे हुयी। नागपुजाकी उत्पत्ति वास्तव में पश्चिम एशियासे हुयी ऐसा माना जाता है। वहांसे बादमें इजरायल, फिलीस्तीन, असीरिया, बेबीलोन, मेसोपोटामियामे और पड़ोसी देश मिश्र और ग्रीस (युनानमे) फैल गयी। नागपाल नाम के राजासे नागवंश शुरु हुआ होगा।
6) दो नदियोंके मध्यभागको ग्रीक भाषामें मेसोपोटामिया कहते है। दज़ला और फ़रात नदी के बीचका यह मैदान है। एक काली चमडीवाली जाति उत्तर-पश्चिम भारतसे आयी और यहा बस गयी। वे स्वयंको कालेसिरवाले याने सुमेर के लोग पुकारते थे। ये दुनियाके पहले आदमी थे, जो सभ्य हुये। मेसोपोटामियाके मैदानमे उनका प्रवेश इ.पू. 5000 में हुआ था।
7) खासी, नाग, कुकी, बोदो, कोलीय, पायो, अंगामी, रेंगम ये जातियां हैं। खासी जाति दिनारिक प्रकारकी अल्पाईन जाति है।
8) द्रविड लोग जो सिंधू घाटीके सृजनकर्ता है, वे सुमेरसे आये थे।
9) वृत्र, अहि, नाग, दास एकही है। अहिवृत्र यह सिंधू लोगोंका प्रमुख था।
10) आंध्र, पुंड्र, सबर, पुलींद आदी दसु जातिके बताये गये है। बुद्ध यह इक्ष्वाकुवंशी थे। शाक्य गण यह वज्जी महासंघका एक घटक था। सार्थवाह यह एक व्यापारी महासंघ था। शिशुनाग विदेहोंकी संतान थे और विदेह इक्ष्वाकुवंशी एक शाखा थी। वैदेहिक यानी बैलो और गाडियोंपर माल ढोनेवाला समुह था। सार्थवाह और वैदेहिक व्यापार भी करती थी। विद्वानोंने वास्तवमें इस जनजातिकी तलाश या खोज नही की। ये चरवाहक का भी काम करते थे। इनके कारवांओंकोही सार्थवाह या वैदेहिका कहा जाता था। ये लोग बहुत धनवान और शक्तिशाली सेना रखते थे। इनके वैशाली, विदेह, वज्जी, पालव, शुद्रक, अंधक, वृषिनी, त्रिगतशास्ता, आदी महासंघ थे। प्राचीन समयमे तीन प्रकारके संघ थे।
1) राजनीतिक 2) धार्मिक 3) व्यापारिक एवं शिल्पक
तक्षक का अर्थ संस्कृतमे नाग, साप है। नाग जातिकी उत्पत्ति असिरियामें हुयी थी। टका, टक्खा, तक्खा, सभी तक्षक शब्द के अपभ्रंश शब्द है। टका लोग गणसंघ, गणतंत्र के लोग थे। पालव, अर्जूनिया, मद्र, कर्पटी, आंध्र, वहिका, जार्तिक, मद्रक, अंध्रका, कुनिंद, औधेया, अम्बस्था, कठामिया वृषिनी एकही वंश के लोग है। टका जातिका मूल पुरुष सहारण टका था। इजरायलीका सूर्य देव बल या बाल था। सिंधूघाटी के पणि लोगोंका देवता भी बल था।
कश्मिरमे चार नाग परिवारोने राज्य किया। 1) लोहरा 2) गोलंदा 3) नागपाल और 4) कर्कोटक । मुख्य परिवार या राजा कर्कोटक वंशने बौद्ध धम्मका संरक्षण किया।
सिंधूघाटीकी सभ्यता व्यापारी लोगोंकी सभ्यता थी और वे मेसोपोटामिया, मिस्त्र, बेबीलोन तक माल पहुंचाते थे। ये व्यापारी पणि लोगही थे। विश्व प्रसिद्ध व्यापारी यहुदी दास पणिकी संतान है। पृ. 310
खासी शब्दकी उत्पत्ति इजरायलकी हेबु्र भाषाके नाखस शब्दसे हुयी है, जिसका अर्थ नाग है। महाराष्ट्र के लोग इराणी, द्रविड प्रकार के है। वे लोग इराणसे चलकर बलुचिस्तान सिंध रास्तेसे चलकर गुजरात और महाराष्ट्रमें पहुंचे। स्कंद पुराणमें नागोंके अनेक नाम दिये गये है। वे निम्न प्रकार के है।
एलपात्र कंबल, कर्कोटक, धनंजय, वासुकी, पन्नगश्रेष्ठ, तक्षक, नील पदमक, अर्बद, परमघोर, नाग, ऐरावत, महाभाग, कालिप, शंखचुड़, महान तेजस्वी, धृतराष्ट्र, वृकोदर, कुलिक, पदम, महापदम, शंखपाल वामन आदी। तक्षकोंने विभिन्न नामोंसे स्थानों और तिथिओंमें लगभग 2500 तक राज्य किया। तक्षक सबसे आगे थे। वे सारी व्यवस्थाका केंद्रबिंदू बनकर जिये और तेजीसे आगे बढे। वे महान उत्पादक थे। स्वामी, श्रमिक और वीर सैनिक भी थे। धनवान, शौर्यवान थे। वे बराबरी और भाईचारेके सिद्धांतमें विश्वास रखते थे। जात और वर्णव्यवस्था, हिंसामे विश्वास नहीं रखते थे। वे बहुतही शांत, समताप्रिय, न्यायी और मानवतावादी थे। खासी जाति बौद्ध (ज्ञान) धर्मीय या बौद्धानुयायी थी। किंतु शंकराचार्यके प्रादुर्भाव के पश्चात वह हिंदुत्व की और झूक गई और 1884 के पश्चात राजपूत कहलाने लगी। कुनिंद, किरात, कनैत, कुनेत, कत्युरिया आदी खस जातिकीही शाखा मानी जाती है।
शाही तथा लोहरा वंश एकही होने के कारण दोनों खस जाति तथा सातवाहन अथवा तक्षक नाग वंशसे संबंधित थे। खस जातिका ‘शू’ शब्द उनके देवतासे लगाव था। अत: अमलासु, उतरासु, कडासु, तंगसु, भदरासु, थलासु, वासु, मांगसु, आदी नाम पाये जाते है। खासी जातिमे साझी पत्नीयां और पतीकी प्रथा मानी जाती थी।
वज्जीगण (समुह, गट, टोली, समाज) यह वर्तमान उत्तरी बिहारमे आठ गणराज्योंका संघ था। जिसमे शाक्य, कोलीय, बुली, कोलाम, भग, पिप्पलवन विदेह, लिच्छवी आदी सामील थे। उत्तर पश्चिम भारत के वर्तमान पंजाब सिंध और कश्मिर क्षेत्रमें गांधार, कंबोज, कैकय, मुद्रक, त्रिगर्त, औधेय, सौबीर, शिबी, अम्बष्ट, शुद्रक, अभिसार, प्रोस्थ, अश्वक, पौरव, नीसा, गौर, उसा, कठ ऐसे छोटे छोटे राज्य थे।
शक यह जनसमुह इ. पूर्व 140-120 तक राज्य स्थापनामें सूल रहा। कुशान यह समुह इ. पूर्व 50 से 186 इसवीतक शासक के रुपमे सफल रहे। हुण यह जनसमुह असभ्य, बर्बर, अतताई, रक्तपिपासु, निर्दय एवं भ्रमणशील मध्य एशिया के कबीले थे। इराण, चीन, युरोप, फारस आदी स्थानोंको अतंकीत करते करते भारत पहुंचे। भारतपर आक्रमण करनेवाले पाच हुण कबीले माने जाते है। इन सभीका एक संघ था, जिसमे प्रतिहार, परमार, चाहमान, चालुक्य/चौल, गहलोत आदी कबीले थे। उनका नेता तोरमनके नेतृत्वमे उन्होंने मध्य भारतमे प्रवेश किया। यह समय ईसाके बादका 526 का या उसके बादका माना जाता है। कलहनकी राजतरंगीनी के अनुसार तोरमलके नेतृत्वमें हुणोंने कश्मिर, पंजाब, सिंध, राजस्थान और मालवापर अधिपत्य स्थापन कर लिया था। तोरमलका उत्तराधिकारी मिहिरकुल या मिहिर भोज था। बादमें इनपर तुर्क और फारसियोंने अधिकार जमा लिया। बचे हुये हुण भारतमें छोटे-छोटे कबीलो के रुपमे भारतमें फैल गये। मध्यकालमें इन्होंने अपने आपको राजपूत घोषित किया।
हर्षवर्धन के इतिहासकार बाणके हर्ष चरित्रनुसार हर्षवर्धनके पूर्वज श्रीकंठ थानेधरके सामंत थे। इस कुल के संस्थापक पूष्यभूति माने जाते है। इस वंशका शक्तिशाली राजा प्रभाकर वर्धन था। प्रभाकर वर्धन की पत्नी यशोमतीसे तीन संताने हुयी थी। राज्यवर्धन, हर्षवर्धन व कन्या राजश्री । राजश्रीका विवाह कन्नोज के नरेश गुणवर्धनसे हुआ था। राज्यवर्धनकी मृत्युके बाद सत्ता हर्षवर्धन के हाथ आयी। हर्षवर्धनने राजा शशांक का पराभव किया। उसने अपनी बेटीका विवाह हर्षवर्धनके साथ कर अपने प्राण की रक्षा की।
विदेशीयोंके प्रवेश द्वार- हिमालय पर्वत और उसके तराईके प्रदेशकी खैबर, बोलन, मकरान, टोची, गोयल आदी दरोंसे विदेशी भारतमें घुसते थे। इराणी, युनानी मध्य एशियाके शक, कुशान, हुण, मंगोल यह सभी समुह विदेशी आक्रमक थे। भारतके गर्व्हर जनरल लार्ड केनिंग (1856-1962 मे) 1860 इसवीमे सर्व प्रथम भारतमें पुरातत्व विभागकी स्थापना हुयी, जिसके प्रथम निदेशक सर अलेक्झांडर कनिंघम थे। पाकिस्तान, पंजाब, हरियाना, राजस्थान, गुजरात, दिल्ली, उत्तरप्रदेश आदी स्थलोंपर सिंधूघाई सभ्यताके अवशेष मिले हैं। भारतमे युनानियोंका शासन 183 इ. पूर्वसे 50 इ. पूर्वतक रहा। शक, कुशान, प्रथियनोंने इ. पू. 130 से 425 इसवीतक राज किया।साधारण तौरसे कालगणना निम्न प्रकारसे की जाती है।
प्राचीनकाल: मानव सभ्यताके आरंभसे की जाती है।
मध्यकाल : आठवी शताब्दिसे पंधरहवी शताब्दि तक।
आधुनिक काल : सोलहवी शताब्दिसे आजतक।
आदियुग : आदिलकालसे 13000 इ. पूर्वतक।
पाषाणयुग : 14000 इ. पूर्व से 8000 इ. पूर्वतक।
मध्य पाषाणकाल : 9000 इ. पूर्वसे 7000 इ. पूर्वतक।
उत्तर पाषाणयुग : 6000 इ. पूर्वसे 5000 इ. पूर्वतक।
धातु ताम्रयुग : 5000 इ. पूर्वसे 4000 इ. पूर्वतक
धातु ताम्रकास्य युग : 4000 इसा बादसे 1000 इ.पूर्वतक।
लोहयुग : 1000 इ. पूर्वसे आजतक।
मिश्रका राजनैतिक इतिहास इ. पू. 3400 से शुरु हुआ। मिश्रकी सभ्यता नाईल नदीके क्षेत्रकी है। इ. पूर्व 332 में इराण और मिश्रको सिकंदरने गुलाम बनाया था। मध्य एशियामें दजला और फरात नदियोंका बीचका भूभाग मेसोपोटामिया कहलाता था। किश, अर, बेबीलोन, सुसा और निनेवा यह इसके प्राचीन नगर माने जाते है। इसके मुलनिवासी सुमेरियन थे। वे सूर्य, चंद्रमा, इंद्रदेव, तारों आदीके वंदक थे। बेबीलोन मे मेसोपोटामिया सबसे बड़ा व्यापारी केंद्र था। बादमें बेबीलोनपर कसाईटोने अधिकार जमा लिया था। यहां पर इ. पू. दुसरी शताब्दिमे राजा हमुरावीने 42 वर्ष राज किया था। गौर राज्य यह अश्वक राज्यकी सीमासे लगा पंजकौर नदी घाटीमे था। तक्षशिला यह राज्य गांधारके पूर्नमे सिंधू और झेलम नदियोंके बीचमे था।
कश्मिरके पश्चिम स्थित तक्षशिला प्राचीन कालसें भारतमें सबसे बड़ा नागसत्ता और सभ्यताका केंद्र था। प्राचीन और मध्यकालमे खशादि अनार्य नाग शासकही यहा अधिकतर शासन करते रहे। इनमें गोनंदा, करकोटा और लोहारा, उत्पल और भद्रवाहाका नागपाल वंश प्रमुख है। करकोटा वंशका ललितादित्य राजा इसवी 700 में मध्ये एशिया तक पहुच गया था। लोहारा वंशकी बेटी महाराणी दिधा चतुर शासक के रुपमें प्रसिद्ध है। राजनैतिक लोहारा वंशकी स्थापना 830 इसवीमें नाराने की थी। यह नारा खास जातिसे था। नारा का बेटा नरवाहन ( 840-890) नरवाहन का बेटा फुला और फुला का बेटा सातवाहन था। कश्मिरका लोहारा वंश अपनी उत्पत्ति शालीवाहनसे मानता है। शालीवाहन तक्षक नाग परिवारका राजकुमार था। शालीवाहन अनंता क बेटा था। लोहारा का नागवंश मूलरुपमे खासी जनजातिका था, जिसकी पुष्ठी एक अन्य साक्षीसे होती है। काश्मिरकी प्रसिद्ध महाराणी दिधा जो लोहारा वंशकी राजा सिंहराजकी बेटी थी। उनका पति क्षेमगुप्तके देहांत के बाद उसका चहेता, प्रेमी तुंगा खासी जातिका एक चरवाहक के साथ थी। उसने 1003 तक राज्य किया था। क्षेमगुप्त 950-958, पुत्र अभिमन्युगुप्त 958-97, पौत्र नदीगुप्त 972-973, त्रिभुवणगुप्त 973-975, भीमगुप्त 975-981 और दिधा राणी ने 981 से 1003 तक राज्य किया था।
मेसोपोटामिया यानी आजका इराक यह सिंधू संस्कृति समयमे विश्व व्यापार एवं व्यापारियोंका केंद्र था। पणि (द्रविड) व्यापारी आज के गोर (बंजारा) यह जनसमुह भूमध्य सागरकी ओरसे इराण-इराक मार्गसे भारतमें आये थे। गुजरात के पश्चिमी तटसे सौराष्ट्र होते हुये मलबार तटतक पहुंचे। वहांसे आगे मेसोपोटामिया (इराक पहुचकर) वहा फिनिशिया (फिनलँड) और बेबीलोन नगर बसाये। यह लोग आर्य नही, आजके सभी पीछड़े वर्ग के थे। इनमें पणि नामकी एक खास धनिक, व्यापारी जाति थी, जो वर्तमान समयमे बंजारा नामसे संबांधी जाती है। भूमध्य सागर के द्विप तथा अफ्रिकाके उत्तरमें पहुचकर वहां उपनिवेश बनाये। वे दक्षिण युरोप तक गये और ब्रिटन स्केंडेनिया तक समुद्र मार्गसे व्यापार किया और सिंधू सभ्यता फैलाई। स्केंडेनियामे इनकी बल नाम की देवता है। पणिसे पणिक, प्युनिक, फिनिक, फिनिक्स, फिनीशिया, फिनिशियन आदी नामाकरण हुये, ऐसा विद्वानोंका मानना है। पणि लोगोंकी एक बस्ती इराण के दक्षिण भाग, अरब के पूर्वी भाग था। अरब के दक्षिणी सागरमे थी। फिनिशिया के उत्तरमे कारक्षेजको इनकी अंतिम बस्ती थी।
आर्य आगमन पूर्वकालमें यानी मुल वेदकालमे पणि जनसमुह यह द्रविड, अरि, अहि, नाग, श्रमण, अर्य, असुर, अनार्य, अव्रत, अपव्रत, अन्यव्रत, अनिंद्र, अदेवस्य, अदेववू, अब्रम्हण, अयज्वन, अयाज्ञिक, अश्रद्धान, मनुष्य, विश, वैश्य, किनास, कुर्मी, कुडूंबी, कुटूबी, कुणबी, कष्टक, कृषक, पंजजन्य आदी नामोंसे संबोधे जाते थे।
उत्तर वेदकालमें याने पुराणिक कालमें दैत्य, दानव, राक्षस, दस्यु, दास, सैतान, भूत, पिशाच्च, निशाचर, नरमांस भक्षक, अगडबंब, विचित्र, लोभी, कंजूस, पाखंडी, पापी, दुष्टात्मा, मायावी, जादूपरायण, अवर्ण व्रतहनं, अनाश, मृध्रवाक आदी नामोंसे पहचाने जाते थे।
सिद्धार्थ गोतम (बुद्ध) के धम्म कालमें वज्जी, ववंजही, वैदेही, वैदेहीक, सार्थवाह, तक्षक, कोलीय (बुनकर), शाक्य (किसान), वज्जी यानी मालवाहक व्यापारी ऐसे तीन गणसंघ थे।
इसवीसन दसवी शताब्दि के बाद गोर जनसमुह के पणि नामक जनसमुहके नामका रुपांतर पणिसे वणी, बनी, वणीज, बनीज, वाणिज्य, बानिज्य और अंतमे वंजारा और बंजारामे हुआ, ऐसा इतिहासकारोंका मानना है। इसके अलावा बंजारोंको लबाना, लभाना, लुभाना, लमानी, लभानी, लमाना, लंबाडा, लंबाडी, नायक, गोर, गंवार, गवारीया नामोंसे भी जाना जाता है। धंदे और धर्म के आधारपर गोर (बंजारा) निम्न नामोंसे भी पहचाना जाता है।
वंजारा, बंजारा, लभाना, लुबाना, लंबाडा, लदेनिया, बाळदिया, बळदिया, गराशा, गोर, गंवारीया, गंवार, सुगाळी, गोर ढाडी, गोर ढालीया, गोर भाट, चारण गोर, जांगड गोर, गोर नावी, गोर सनार, कंजड गोर, मथुरा गोर, नट गोर, बाजीगर गोर, सिंगाडा गोर, कांगसिया गोर, ओसरीया गोर, मारु गोर, मुकेरी गोर, मुलतानी गोर, कापडी गोर, धानकुटे गोर, फनाडा गोर, सिरकी गोर, घुगरीया गोर, काली गोर, ब्रींजारी गोर, तुरी गोर, गमळीया गोर, बागोरा गोर, जिप्सी गोर, रोमा गोर आदी
इसके अलावा प्रथक प्रथक धर्म के आधारपर बौद्ध गोर, मुस्लीम गोर, रविदास गोर, सिख गोर, इसाई गोर, राजपुत गोर, बामणिया गोर, हिंदू गोर आदी नामोंसे भी गोर बंजारा पहचाना जाता है। गोर बंजारा आज विश्वमे शेकडों नामोंसे पहचाना जाता है। फिर भी इन गोर बंजारोंकी जीवनशैली, भाषा, अलंकार, पोशाख, त्योहार आदी में बड़ी मात्रामें समानता, समता, भाईचारा, नैतिकता, शिष्टाचार, श्रम, आदीमे एकता दिखाई देती है।
विश्व जनसमुहकी भ्रमणशीलता - बड़ी संख्यामें इतिहासकार यह वास्तविकता मानते है, कि विश्व के सभी जनसमुह यह आफ्रिका देश से पुरे विश्वमें फैले है। भारत का मुलनिवासी प्रथम आफ्रिकासे बेबीलोनियाके निप्पुर एवं उर नामक स्थलपर स्थाईक होने के बाद कई सालोंके पश्चात पाकिस्तान के काछी नामक मैदानपर स्थाईक हुआ। पाकिस्तानका यह काछी मैदान (मेहरगड़) यह पाकिस्तान के बलुचिस्तान राज्यमें बोलन खींडके पास है। यह काछी मैदान (आजका मेहरगड़) क्वेटा, कलात और सिबीत जिल्हे के बीच है। सिंधू नदीसे यह स्थल पश्चिमकी और 200 कि.मी. दूरीपर है। यहां का जनसमुह यह बड़ी संख्यामें पणि जनसमुह था। काछी मैदानपर स्थाईक होने के पूर्व यह पणि जनसमुह लाल समुद्र के किनारेपर रहता था। यह लाल समुद्र सौदी अरबीयाके पश्चिमको और आफ्रिकाके बीचोबीच और अरबी समुद्र के उत्तर किनारेको संलग्न एडन के आखातसे भुमध्य समुद्र के किनारेपर स्थित कैरोतक बहुत लंबा लाल समुद्र फैला है। इस लाल समुद्र के पश्चिम किनारेसे आफ्रिका तक विशाल रेती क्षेत्र फैला हुआ है। यह रेतीक्षेत्र भूमध्य समुद्रके दक्षिण किनारेतक फैला हुआ है। आफ्रिका के कांगो पहाड़ीसे निकली नाईल नदी जगह जगहपर छह स्थानोंपर मोड लेती हुयी भूमध्य समुद्रके दक्षिण-पूर्व किनारेपर समुद्रको मिलती है। यह नाईल नदी कांगो पहाड़से बाहर निकलतेही सहारा बालुमय (रेती) क्षेत्रसे बहती बहती अंतमे भूमध्य समुद्रको मिलती है। नाईल नदीका छटवे मोड तक का दक्षिणकी ओरका हिस्सा यह कांगो पहाड़ोसे निकली स्वेत और नील ऐसे दो नदीका हिस्सा है। छटवे मोडसे यह दोनो नदियां एकरुप हो जाती है। यह नदी आफ्रिका के इजिप्त देशसे बहती है। इजिप्तका भूमध्य सागरकी ओरका क्षेत्र नीचला इजिप्त और दक्षिण ओरका उपरी इजिप्त कहलाता है। नाईल नदी कैरोसे विभाजित होकर बहती हुयी पाच मार्गोसे अलेक्झेंडरीया के पास भूमध्य समुद्रको मिलती है। लाल समुद्रके किनारेपर रहनेवाले और नाईल नदीकी किनारेसे दक्षिणकी ओरसे पूर्वके ओर स्थलांतरीत होनेवाले लोग एक समय कैरो और अलेक्झेंडरीया के क्षेत्रमे भूमध्य सागरके किनारेपर आकर, वहां कई सालोतक रुककर इराण और अफगाणिस्तान मार्गसे भारत पहुचकर पाकिस्तानमेें मेहरगड़को बस्ती बनाई थी।
यह जनसमुह पाकिस्तान के बलुचिस्तान राज्य के काछी (मेहरगड) को लगभग इ. पू. 7000 से 4500 तक याने 2500 साल रहा। इसके पश्चात यह जनसमुह धीरे धीरे इ. पू. 4500 के लगभग सप्तसिंधू नदियोंके क्षेत्रमे आ बसा। यहांपर इस जनसमुहने आदर्श अति विकसित, आधुनिकतम नगर सभ्यता और संस्कृतिका निर्माण किया था, जो इ.पू. 2000 मे प्रगति एवं समृद्धि के शिखरपर थी। किंतु यह सभ्यता एवं संस्कृति युरोपसे (उत्तर ध्रुवसे) आर्य ब्राह्मणोंने अप्सरा तंत्रका प्रयोग करके और विश्वासघात करके यह आदर्श और समृद्ध संस्कृति इ. पूर्व 1800 से 1750 के बीच तोड़फोड़ करके संव्हार करके, जलाकर के नष्ट कर डाली। सिद्धार्थ गोतमका और उनके अनुयायियोंका शासन काल छोड़कर आज तक यह विदेशी आर्य ब्राह्मण सप्तसिंधू नदीके क्षेत्रमे बसे मुलनिवासीयोंपर उन्हें बौद्धिक मानसिक, शैक्षणिक, आर्थिक, राजकिय, सांस्कृतिक क्षेत्रमें कमजोर बनाकर उनपर असहनीय अन्याय, अत्याचार कर रहे है।
सनातनी पौराणिक आर्य ब्राह्मण यह खुदको वैदिक कहलाते है। किन्तु वे वैदिक न होकर पौराणिक (पुराण ग्रंथ) रचियता है, जो अमानवियता और विकृतियोंसे परिपूर्ण है। यह आर्य ब्राह्मण भारत के निवासी न होकर युरोप खंड के उत्तरीय धु्रुव 21 प्रदेशोंसे टोली टोलीसे भारत आकर यहांके मुलनिवावसी बहुजनोंका विश्वासघात करके शासक बने हुये है। युरोप के हंगेरी, आस्टेरिया, बोहेमिया, डेन्युब नदी, स्वीत्झरलँड, मिश्र, जर्मनी, लिथुनिया, रुस का क्षेत्र, कॉस्पीयन सागर, मध्य एशिया, सिरिया, असिरिया, उत्तरी क्षेत्र, सुमेरु पर्वत, जंबुद्वीप, केतुमालखंड आदी देशोंसे आये हुये है। आर्य लोग वास्तवमें घुमंतु, जंगली, असभ्य, असंस्कृत, स्वैराचारी, अश्रमण, अकर्षक, लढावू, अश्वधारी, विश्वासघाती, शरणार्थी, भिक्षुक, स्वर्गवादी, भोगवादी, अमिथुनी, कंदमुल, फल, मांसाहारी थे। किंतु बहुजनोंको युद्धमे हराकर आज वे शासक बन बैठे हैं।
आज वे खुदको देव, सुर, वैदिक, आर्य, ब्राह्मण, याज्ञिक, नियोगी, भूपति, पृथ्वीपति, भूसुर, जगत्पति, ईश्वर, परमेश्वर, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्याप्त, संकटमोचक, सनातनी, विश्वगुरु, सवर्ण, श्रेष्ठ, सनातनी, द्विज, पुरोहित, भटजी आदी नामोंसे पहचाना जाता है।
सभी इतिहासकारोंने अनार्य पणि और आर्योके बीचके संघर्षका इतिहास बताया है। अनार्य पणियोंकी सभ्यता, संस्कृति, उन्होंने बनाये खंदक एवं नहरोंके बीचके सभी सुविधाओंसे परिपूर्ण सुरक्षित, आदर्श, समृद्ध, सुखीजन और नगरवासियोंके जीवनशैली के बारेमें भी बहुत कुछ लिखा बताया है। उनके विकास, पतन के बारेेमे, धार्मिक संकल्पनाएँ, उनके व्यवसाय, उद्योग, शिल्पकारी, आभूषण, बर्तन, शस्त्र, स्थलांतर आदीके बारेमें भी बतया है। दोनो समूह कहासे आये और दोनो के संबंध कैसे रहे, इस संबंध का नतीजा क्या हुआ आदी विवरण भी इतिहासकारोंने दिया है। किन्तु आज के समयमें अनार्य पणि भारतमें विशेषत: कौनसा जनसमूह है इसके विषय में बहुतसे इतिहासकारोंने विस्तारसे जानकारी देने में जानबुझकर टाला-टाली की है, ऐसा दिखाई देता है। क्योंकि कुछ इतिहासकारोंने पुराने इतिहासकारोंके सुत्रोंको पकड़करही अनार्य, पणियोंके बारे में बहुतही विस्तारसे जानकारी देनेका प्रयास किया है, और यह जानकारी संदर्भोके, सूत्रोंके अनुसार सच्ची और इमानदार मालूम होती है। इन इतिहासकारोंमे प्रमुख रुपसे प्र. रा. देशमुख वकील यवतमाळ, डॉ. नवल वियोगी, नीरज साळुंखे, पु. श्री. सदार आदी इतिहासकार है। इन इतिहासकारोंने आर्यपूर्वकालीन अनार्य (पणिजन) मौल्यवान चीजोंके अंतरराष्ट्रीय धनवान बेपारी थे और इन्होंनेही मोहेंजोदाड़ो और हरप्पा नगरों को आदर्श सभ्यता एवं संस्कृतिका निर्माण किया था। इसी सभ्यता संस्कृतिको वर्तमान कालीन इतिहासकारोंने सिंधू सभ्यता का नाम दिया है। वास्वतमें यह अनार्य, असुर, पणि, मोहेंजोदाड़ो-हरप्पा, अहि, नाग एवं द्रविड सभ्यता, संस्कृति मानी जानी चाहिए। इस संस्कृति, सभ्यता के निर्माता एवं सृजनकर्ता पणिजन और उनके समकालीन शिल्पकार, किसान और सामान्य जन थे। उपरोक्त चार इतिहासकारोंने पणिजन यह आज के बंजारा जनसमूह है, इस सच्चाईपर अधिक प्रकाश डाला है और इस सच्चाई के प्रमाणमें उन्होंने वेदोसे अनेक संदर्भ दिये है।
1) प्र. रा. देशमुख - इस इतिहासकारने मराठी भाषामें लिखी ‘सिंधू संस्कृती, ॠग्वेद व हिंदू संस्कृती’’ नामक पुस्तक में पन्ना क्र. 125 से 158 तक पणिजन यह आज के बंजाराही है, यह सच्चाई बतानेका प्रयास किया है। इसके प्रमाणमें उन्होंंने पणियोंकी अहि, मृध्रा और आर्योके शत्रु नामसे पहचान, साथही उनका व्यापार उनके वस्त्र और अलंकार, बोलीभाषा, पशुपालन कुछ कर्मकांड आदीका पणियोंके साथमें तुलना की है, अधिक जानकारी के लिये इस पुस्तक के 125-158 तक के पन्ने अवश्य पढ़े।
प्रसिद्ध इतिहासकार प्र. रा. देशमुख के बंजारा गण के बारे में कुछ निश्चित विचार निम्न प्रकारके है।
2. बंजारा समाज वैदिक आचाराच्या आणि चातुर्वर्णीयाच्या बाहेर आहे. पान क्र. 154
3. अहिसी संबंध असणे, जिभेला चिरा देणे, मृध्रा या नावाने संबोधले जाणे, या सर्व पुराव्यांवरुन, वेदातून वर्णन असलेल्या अहि म्हणून संबोधलेल्या व ओळखल्या जाणार्या आर्यांच्या प्राचीन शत्रुंशी बंजार्यांचा संबंध संशयापलीकडे सिद्ध होतो. पान क्र. 58
4. सिंधू उत्खननात देवळे, देवांचे ओटे, देवांच्या मूर्ती अथवा मूर्तींचे भग्नावशेष यापैकी काहीही उपलब्ध झालेले नाही. सिंधू संस्कृतीतील लोक मूर्तिपूजक असल्यास वरील गोष्टी अथवा त्यांचे अवशेष उत्खननात सापडणे अगदी स्वभाविक होते. परंतु ते का सापडत नाहीत याचे काही कारण दिसत नाही, कदाचित ते लिंग आणि योनीच्याच प्रतिकांची पूजा करीत असावेत आणि देवाच्या मूर्तीची पूजा करीत नसावेत. पान क्र. 166
5. दुसरे इतिहासकार डॉ. नवल वियोगीने अपनी पुस्तक ‘‘सिंधू घाटीकी सभ्यता के सृजनकर्ता शूद्र और वणिक’’में पणिजन बंजारा होने के बारे में निम्न प्रकारसे अपने विचार व्यक्त किये हैं।
6. सिंधूघाटीकी सभ्यता के सृजनकर्ता आस्ट्रोलाईड तथा भूमध्य सागर तटीय प्रकार के लोग थे। इस सभ्यता के सृजनमें भूमध्य सागर तटीय प्रकार के लोगोंके दिमागने काम किया और आस्ट्रोलाईड लोगोंके हाथोने। यही वर्ग यहां का शासक वर्ग भी था जिनका संबंध ॠग्वेदिक कृपन व्यापारी पणियोंसे बताया जाता है। सिंधूघाटी के पतन के बाद ये पणि लोग सौराष्ट्र होते हुए मलबार तट चले गये। वहांसे मेसोपोटामिया, फिर फिनिशिया या लेबनान पहुचे। वहां उनके संबंध यहुदियोके साथ ब़ढ़े। वहां उन्होंने युरोपमें दूर दूर तक बेपार किया और युरोप जातियोंको सभ्य बनाया’’ (पान क। 184)
7. अनार्योकी एक खास जात थी, जिसे पणि, बनिक आदी नामोंसे पुकारा जाता था। इनको आर्य लोग विश्वासघाती, लालची, अंधश्रद्ध, याज्ञिक, कंजूष, भेडियें, कुव्यवहारी, सतकर्म न करनेवाले, ब्याजका धंदा करनेवाले, मृध्रवाच (न समझे जानेवाली भाषा बोलनेवाले), ऐसे अनेक दोष लगाए हैं। किंतु यह पणि लोग कृषक, धनवान व्यापारी, पशुपालक थे। आर्योकी दूती सरमा और पणियोंमे हुआ संवाद वेदोंमे दिया हुआ है। (पन्ना नं. 199-200)
8. ‘‘पणि लोग सिंधूघाटी के पतनके बाद गुजरात के पश्चिमी तटसे सौराष्ट्र होते हुए आगे मलबार पहुंचे। वहांसे फिर समुद्रके रास्तेसे दजला-फरातके किनारोंपर जा पहुचे। वहां उन्होंने अपनी सभ्यताको फैलाया। वहांसे आगे भूमि के रास्तेसे चलकर भूमध्य सागरके पूर्वी तटपर फिनिशिया (लेबनान) पहुंचे। वहां उन्होने भूमध्य सागर के द्वीपों तथा आफ्रिकाके उत्तरमें अपने उपनिवेश बना लिए। वहासे आगे उन्होंने गुलामोंसे माल बनवाकर दक्षिण युरोपमें व्यापार किया। यहां तक की उन्होंने ब्रिटन, स्केंडिनेवियातक समुद्र मार्गसे बेपार किया और वहां अपनी सभ्यता फैलाई। इस प्रकार प्राचीन युगमें सभ्यता पूर्वसे जाकर पश्चिमी देशोंमे फैली, जैसा कि आधुनिक कालमें सभ्यताको पश्चिमी बेपारी देशोंने पूर्वमें फैलाया। अबसे कुछ पूर्वकाल तक स्केंडेनिवियामें (पणि लोगोंके) द्वारा बल देवता के पर्व मनाये गये हैं। अब भी मनाये जा रहें हैं। बल देवताकेही नामपर बालस्टिक सागर, बेल्ट, बेल्टेबर्ग, बालसोजिन, बालस्ट्रोडिन आदी नाम पड़े है।
विद्वानोंका विचार है कि, पणिसे पणिक, पणिकसे प्युनिक, तथा इससे फिनिक शब्दकी उत्पत्ती हुई है, जिनके नामपर फिनिशिया देशका नाम पड़ा है। यह सब समुद्र मार्गके कारण संभव हुआ, जब कि आर्योंने समुद्र यात्रापर बंधन लादे हुए थे। इनकी एक बस्ती किसी समय इरानके दक्षिण भाग, या अरबके दक्षिणी सागरमें भी प्रभाव बनाये हुई थी। ॠग्वेद के बाद 600 इ. पू. या 300 इ. पू. के मध्यमें पणि लोग भारतके बेपारको मुख्य रिड़की हड्डीके रुपमें पुन: प्रगट होते है। (पन्ना क्र. 204) (अधिक संदर्भ के लिये वावेर, जातक कथा क्र. 331 देखे)
9. इतिहासकार अविनाश चंद्र दासने बताया है कि, ‘‘ॠग्वेदमेें कई स्थलोंपर अमीर पाखंडी पणियोंका वर्णन आया है। यह भली प्रकारसे विदित है कि, सिंधूघाटी सभ्यता बेपारीयोंकी सभ्यता थी और वे मेसोपोटामिया, मिस्त्र तथा बेबीलोन तक अपना माल पहुंचाते थे। ॠग्वेदमे पणियोंके अपार धनका बार बार वर्णन आया है। नगरोंकी खुदाईसे साफ प्रगट होता है कि हड़प्पाई वणिक तथा शासक शक्तिका स्वामी एक बहुतही अमीर वर्ग था। पाली भाषामें संस्कृत के ‘‘प’’ के स्थानपर ‘‘व’’हो जाता है। अत: पणिक का रुप मराठीमंं वणिक और हिंदीमे बनिक हो गया। वणिक से वंजारा और बनिक से बनिया, बंजारा काल प्रवाहके साथ हुआ होगा इसमें कोई शक नहीं।
(भारतकी आदिवासी नाग सभ्यता एक महान आश्चर्य - लेखक- डॉ. नवल वियोगी- प्रथम संस्करण 2008)
10. तीसरे इतिहासकार ‘‘सिंधूघाटी सभ्यता का इतिहास’’ के रचनाकार पू. श्री. सदारने उनकी उपरोक्त पुस्तक मेें (ग्रंथ में) पणि इस शब्द का प्रयोग करते हुए पणि शब्दके स्थानपर बंजारा शब्दका प्रयोग 39 बार सिंधूजन शब्दका प्रयोग 46 बार और मृध्रवाक शब्दका प्रयोग पाच बार किया है। यह तीनों शब्द समानार्थीके रुपमें उन्होंने प्रयोग किये हैं। साथही आर्य और पणियोमें संघर्ष किस प्रकारसे होता रहा और आर्योद्वारा हारके पश्चात पणिजन कहां कहां फैल गए और उनमें सांस्कृतिक परिवर्तन कैसे हुआ यह भी उन्होंने बहुतही बड़े प्रयास से बताया है। पणि और बंजारोंमे जो समानता है, उस पर मान्यवर पू. श्री. सदारने सबसे अधिक प्रकाश डाला है। इस समानताके प्रमाण भी उन्होंने ग्रंथमें दिये है। अत: यह पूरा ग्रंथही अभ्यासकोकों और शोधकर्ताको पढ़ना अनिवार्य है। कई सालोंतक अध्ययन करने के पश्चात ग्रंथकारने यह ग्रंथ लिखा है और उसमें उन्होंने संशोधित सिंधू घाटीकी प्राचीन लिपीका भी परिचय दिया है। ग्रंथ संग्रहणीय है। इसी ग्रंथ के पन्ना क्र. 104 पर उन्होंने स्पष्ट रुपसे लिखा है कि, ‘‘बंजारा समाज पूर्व कालके सिंधू संस्कृतिके वंशज है। सिंधू परंपरा जीवित रखनेका अतिशय महत्त्वपूर्ण काम उन्होंने किया है। अब वे पुरोगामी बन गये हैं। उन्होंने नये पेशे भी स्वीकार किये है। अब वे उन्नतीकी ओर बढ़ रहे है।’’
11. ‘‘दैत्यबळी व कुंतल देश महाराष्ट्र’’ इस मराठी भाषी ग्रंथ के रचनाकार एवं इतिहास तज्ञ माननीय नीरज साळुंकेने उनके इस ग्रंथमें लिखा है कि ‘‘पणी हे अजातशत्रु हरप्पाजन होते. बंजारा हे पणीचे प्रतिनिधित्व सर्वाधिकपणे करतात. पृ. क्र. 8 ओळ 8 व 9
फिनिशियन हा पणीचा एक गट हरप्पा पतनानंतर पश्चिम आशियात लेबनानमध्ये भूमध्य सागराच्या किनार्यावरील डोंगरांमध्ये विसावला. त्यांना फिनिशियन म्हटले जाते. पृष्ठ 25-2
आर्यशत्रू पणीचे वारस समजल्या जाणार्या बंजार्यांचे विवाहविधी पावसाशी संबंधित आहेत. लग्नविधीमध्ये बंजारा स्त्रिया रडतात, हे आश्चर्यकारक नाही. पण ते गीतांसह असते, हे वेगळेपण आहे. वधूला लग्नानंतर निरोप देतांना वृषभाच्या पाठीवर उभे केले जाते व ती आकाशाकडे हात झेपावून जमिनीकडे पाहून रडत गाते. (पृष्ठ 29-30)
हरप्पा पतनानंतर ‘‘पणी’’ सर्वत्र विखुरले. एक गट पश्चिमेकडे भूमध्य सागराच्या किनारी लेबनॉनच्या डोंगरमाथ्यावर (रांगांमध्ये) विसावला. पणीचा हा गट फिनिशियन म्हटले जातो. लेबनॉनची राजधानी, बैरुतच्या उत्तरेस फिनिशियनीचे बायबलास हे शहर होते, तर बेरुटगाजा दरम्यान सिडॉन व टायर ही शहरे वसली होती. फिनिशियानांच्या दैवतांचा अभ्यास इल व बळी यांचे संबंध आपणास स्पष्ट करतो. बायबलास या शहरात इल बालात ही स्त्री भूमिदेवता व अॅडोनिस या देवता होत्या. सिडॉन येथे इल, ‘‘बाल’’ म्हणून ओळखला जाई व तो बालातच्या पुरुषरुपाचे प्रतिनिधित्व करतो व या विषयी उगरिटच्या लेखामधून माहिती मिळते. या वरुनच हा बाल म्हणजे भारतीयांनी लक्षात ठेवलेला बळीराजाच आहे व तो ‘इल’ म्हणूनही ओळखला जाई असे आपण म्हणू शकतो. टायर या शहराची मेलकार्ट ही देवता ‘‘बाल’’च आहे असे अभ्यासक मानतात.
बंजारा असुरराजवरुन यास मेलिया म्हणतात व टायरचा राजा असणारी ही देवता ‘‘मेलकार्ट’’ या नावाची आहे हा योगायोग नाही. बंजारा व फिनिशियन हा हरप्पा संस्कृतीमधील पणीचे पराभवानंतर झालेले दोन गट आहेत, म्हणून हे साम्य आहे. फिनिशियनच्या विविध देवता बाल हे नाव परिधान करतात. (पृष्ठ क्र. 33)
असंख्य बंजारा स्त्रीचे नाव पणी असते. पणी या शब्दामधूनच आजचे वाणी, वाणिज्य (बाजार), वणी इत्यादी बेपारविषयक संज्ञा निर्माण झाल्या आहेत. (पृष्ठ क्र. 85)
शूर स्त्रीस बंजारा हरप्पणी म्हणतात. पृ. क्र. 91
वज्जीचे नागरिक पणी होते. वज्जीची वैशाली ही राजधानी होती. तिचे वणीयगाम असे पर्यायी नाव होते. पृ. क्र. 108
पणीचा निकटचा संबंध असणारे सातत्याने ‘‘अहि’’या नावाने ॠग्वेदामध्ये उल्लेखिले गेले आहे. तेही पणीप्रमाणे आर्यशत्रूच आहे. अहि व वृत्र या समानच संज्ञा आहेत, अहिचा अर्थ नाग, सर्प असा आहे. यामुळे ते नाग कुलीन लोक होते. वृत्र व अहि या दोघांचेही जलनियंत्रक म्हणून नाव आले आहे. पृ. क्र. 86, मरुत व मेलुहा हे समुद्र ओलांडून धन वाहणारे व्यापारी होते. पृ. क्र. 56
12) आज के आझाद भारतकी जो हिंदू एवं सिंधू संस्कृति मानी जा रही है, यह वास्तवमें इंड़ो-युरोपियन (युरेशियन) मतलब आर्य, वैदिक, सनातन ब्राह्मणी, संस्कृति है। भारतीय इतिहासकारोंने इस सनातनी, ब्राह्मणी संस्कृतिकोंही बादमें हिंदू और सिंधू संस्कृतिका नाम दिया है। उनका कहना है, कि सिंधू और उनकी सहायक नदियोंके तटपर यह संस्कृति पनपी, बढ़ी और समृद्ध एवं विशाल हुई, इस लिये इसका नाम प्रथम सिंधु और बादमें हिंदू संस्कृति ऐसा नाम रखा गया है। भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का निर्माण वास्तवमे