हमने देखा कि वैदिक ऋृषि की दृष्टि में पणियों का स्वभाव भेड़िया जैसा था। उनका उद्देश्य व्यापार के माध्यम से अधिक-से-अधिक धन कमाना था, जिसके लिए वे जनता का शोषण करते थे। वे आम जनता (विश/कृषक/असुर) का खून तक निचोड़ लेते थे। उनकी रेहन रखी हुई वस्तुएँ आभूषण, खेत आदि हड़प लेते थे। यही कारण था कि इन्द्र आदि वैदिक योध्दाओं, शासकों द्वारा पणियों का संहार किया गया। वेदों में मुख्यतया इन्द्र32, अग्नि33 तथा सरस्वती नदी34 को पणियों की नष्टकारिणी कहा गया हैं। इन्द्र पणियों का संहार करता हैं। उनके धन को लूट लेता हैं तथा उनके किलों (गोदामों) को भी तोड़ता हैं। अग्नि द्वारा अनेक स्थानों पर पणियों के संहार का वर्णन हैं।35 इसका अर्थ है कि पणियों को आग में जलाकर मारा भी गया।
वेदों में इन्द्र, कृषक सम्राट (कुष्टीनाम राजा); महान कुरमी (तुविकूर्मि); विशों का राजा (विशाम्पति); मानवों का राजा, असुर सम्राट जैसे नामों से सुशोभित हैं। यह हम विस्तार से देख चुके हैं। अग्नि भी विशों/कुर्मी/कृषकों के घर का स्वामी/विशाम्पति हैं। इसी प्रकार सरस्वती नदी विशों/कुरमी/कृषकों असुरों की प्राणदायिनी नदी हैं। इसी के तट पर ही तो उन्होंने प्रथमत: कृषि का आविष्कार कर सभ्यता-संस्कृति को जन्म दिया था। इस प्रकार पणियों का विनाश करने वाले इन्द्र अग्नि और सरस्वती ये तीनों तत्व विशों/कुरमी/कृषकों/असुरों से जुड़े हैं। पणि/वणिक इन्हीं विशों आदि के शोषण से धनी बने थे। जब विशों/कुरमी/कृषकों/असुरों को इन्द्र जैसे महायोध्दा का नेतृत्व प्राप्त हुआ तो उन्होंने अपने कृषक सम्राट इन्द्र के नेतृत्व में अपने शोषणकताृ पणियों का विनाश कर डाला। उन्होंने उन्हें न केवल मार डाला, वरन् घरों, किलों को भी ध्वस्त कर दिया। उन्होंने धन लूटकर उनके घरों, गोदामों, किलों आदि में आग लगाकर भी उनका विनाश किया। इसके बाद ऐसा लगता हैं कि सरस्वती ने अपनी बाढ़ की तबाही द्वारा अपने किनारे आवाद (इन्द्र आदि कृषकों द्वारा विनष्ट) पणियों के नगरों, पुरों, को भूमि के गर्त में पहुँचा दिया। मोहनजोदड़ो, हरप्पा ऐसे ही विशों/कृषकों द्वारा ध्वंस किए गए नगर थे, जो सरस्वती की वाढ़ द्वारा लायी गयी मिट्टी में दबकर भूमि के गर्भ में चले गए।36 यही कारण था कि वैदिक ऋृषि ने इन तीनों को पणियों की नष्टकारिणी कहा।
महाभारत काल में नागवंशी पणियों का संहार- पीछे हमने देखरा कि वैदिक काल में ग्रामीणें/कृषकों के शोषण के पर्याय बन गए पणियों का विनाश अन्तत: ग्रामीण कृषकों ने अपने कृषक सम्राट इन्द्र के नेतृत्व में कर डाला। उन्होंने न केवल उनका संहार किया वरन् उनके 90 नगरों का भी अग्नि आदि के द्वारा विध्वंस कर डाला। अन्तत: सरस्वती ने अपनी बाढ़ द्वारा उन्हें भूमि कें गर्भ में पहुँचा दिया।
ऐसे ही महाभारत काल में नागवंशी पणियों/शासकों तथा उनकी प्रजा का विनाश उन्हें आग में जलाकर किया गया। नागवंशियों के इस महाविनाश को जन्मेजय का ’नागयज्ञ’ कहा जाता हैं। कहा गया कि इस यज्ञ में लाखों सापों (नागों) को अग्नि में जलाकर मार डाला गया। जबकि सच्चाई यह हैं कि इस नागयज्ञ के नाम पर विश समाज के नागवंशी अग्रवाल शासकों तथा उनके समर्थकों को सामूहिक रुप से आग में जलाकर मारा गया था। आधुनिक काल में हिटलर ने जैसे अपने विरोधी यहूदियों को लाखों की संख्या में गैस चैम्बर में डालकर मार डाला था, वैसे ही महाभारत काल में नागवंशियों को अग्नि कुण्ड में झोंककर मारा गया था। इस भयंकर नरसंहार रुपी अपने पाप को छिपाने तथा लोगों की नजरों में ऊँचा उठने के लिए उनके लेखकों द्वारा अपनी पुस्तकों में लिख दिया गया कि इस यज्ञ में आदमी नहीं, साँप मारे गए थे। जबकि हम जानते हैं कि प्राचीन काल से लेकर आज तक साँप भारतीयों के लिए देवता रहा हैं। भारतीय तो नाग देवता की पूजा करते रहे हैं। नागपंचमी का पर्व आज भी समस्त भारत में साँपो की पूजा का पर्व हैं। नाग की हत्या यहाँ पाप समझा जाता हैं। सभी जानते हैं कि नाग/साँप बिना छेड़े किसी को नुकसान नहीं पहुँचाते। यह तो किसानों का मित्र माना गया हैं। ऐसी स्थिति में साँपों को लाखों की संख्या में आग में जलाकर मार डालने की कहानी निश्चय ही झूठ का पुलिन्दा हैं। यह तो नागवंशी शासकों व उनके सहयोगियों को आग में जला कर मार डालने की घटना का ही प्रतीकात्मक चित्रण हैं।
गहराई से विश्लेषण करने पर दास और दस्यु दो संकल्पनाएँ दिखती हैं। पीछे हमने देखा कि दास शब्द पणि अर्थात व्यापारी का पर्याय हैं, जब कि दस्यु को व्यापारी नहीं कहा जा सकता। वेदों में इन्द्र द्वारा दास/पणि तथा दस्यु दोनों का संहार किया गया हैं। दोनों की बहुत-सी विशेषताएँ मिलती हैं। सम्भवत: इसीलिए लोगों ने दोनों को एक मान यिा जो उचित नहीं हैं।
शब्दकोशों में जहाँ पर दास और दस्यु को पर्यायवाची के रुप में प्रस्तुत किया गया हैं, वहीं पर दस्यु को दास के साथ ही उन्हें चोर, डाकू, असुर, राक्षस, अनार्य, म्लेच्छ तथा गुलाम भी कहा गया हैं। जबकि दास के साथ चोर, डाकू, असुर, राक्षस, अनार्य, म्लेच्छ जैसे विशेषण नहीं हैं। यही समझने वाली बात हैं कि दास दस्यु से भिन्न थे। दासों को चोर, डाकू नहीं कहा गया हैं, जबकि दस्यु के साथ चोर, डाकू शब्द जुड़ा हुआ हैं।
पीछे हमने देखा कि दास व्यापारी या पणि हैं जबकि दस्युओं को पणि नहीं कहा गया हैं। दस्यु तो दास या पणि से भिन्न लुटेरे हैं, जो लूटमार द्वारा दूसरों का धन छीन लेने वाले लोग लगते हैं। जैसा कि आजकल यह दस्यु शब्द चोर, डाकू, लूटेरों के लिए प्रयुक्त होता हैं। जबकि दास आज भी पणि या व्यापारियों को सम्मानजनक पदवी हैं। ऐसी स्थिति में वैदिक दास के समकालीन दस्यु शब्द को दास (व्यापारी) का पर्याय नहीं कहा जा सकता। नि:सन्देह दस्यु शब्द का चोर, डाकू , लुटेरे के रुप में जो आज अर्थ हैं, वही अर्थ वैदिक काल में भी था। ये दस्यु तब भी जनता का धन लूटकर समाज में अव्यवस्था फैलाते थे। यही कारण था कि तत्कालीनव इन्द्र आदि सम्राटों द्वारा इनका संहार किया जाता था और आज भी इनका संहार किया जाना उचित माना जाता हैं।
इस सन्दर्भ में निरुक्त में दस्यु की जो परिभाषा दी गयी हैं, वह भी दस्युओं की प्रवत्ति की ही द्योतक हैं। उसके अनुसार ‘दस्यते क्षयाथाृत् उपदस्यान्ति अस्मिन रसा उपदासयति कर्माणि वा।48 अर्थात जिसके कारण रस (जीवन रस) को नुकसान पहुँचता हैं अथवा जो कृषि आदि कर्मों को नुकसान पहुँचाते हैं, वे दस्यु हैं।
इस प्रकार निरुक्तकार के अनुसार जीवन रस अर्थात कृषि पशुपालन इत्यादि उत्पादनोन्मुख कर्मों को न करने वाले अथवा उन्हें हानि पहुँचाने वाले लोग दस्यु कहे जाते थे। वेद में ऐसे दस्युओं को अकर्मन49 कहा गया हैं जिसका अर्थ हैं कृषि आदि कर्मों (तब यही कर्म थे) को न करने वाले। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह हैं कि वे यद्यपि कोई कर्म नहीं करते थे, परन्तु धनी थे और वे अपना धन छिपाकर रखते थे।50
प्रश्न उठता हैं कि जब दस्यु अकर्मन थे और कोई उत्पादनोन्मुख कर्म नहीं करते थे तो वे धनी कैसे बने थे? उनके पास धन कहाँ से आता था, जिसे वे छिपाकर रखते थे। जब हम इसकी गहराई में जाते हैं तो पता चलता हैं कि वे दूसरों का धन लूटकर धनी बनते थे। चोर, डाकू ऐसे ही लूट के बल पर धनी बनते हैं। आज भी डकैत दूसरों की सम्पत्ति लूटकर धनी बनते हैं। ऐसे लोग स्वयं भी छिपकर रहते हैं और अपने धन को भी गुप्त रखते हैं। इससे स्पष्ट होता हैं कि वैदिक काल के दस्यु भी डकैत ही थे। अर्थात दस्यु शब्द डकैत का ही पर्याय था। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह हैं कि पणि, दास, असुर कृष्टी, विश को कभी भी कही भी अकर्मन नहीं कहा गया हैं। ये लोग तो अपने रचनात्मक अथवा उत्पादनोन्मुख कर्मों से धनी बनते थे। (इन्हीं के आधार पर भारत को कर्मभूमि कहा जाता था और शेष देशों को भोगभूमि, जहाँ के लोग बिना कर्म किए कन्दमूल, फल तथा माँस खाते थे)
पीछे हमने देखा कि पणि/दास भी धनी थे और इन्द्र द्वारा उनका भी संहार किया गया था। इसी प्रकार इन्द्र द्वारा दस्युओं का भी संहार किया गया था और दस्यु भी धनी थे। दस्यु लूट के बल पर धनी बने थे तो पणि या दास जनता का शोषण कर अधिक मुनाफा कमाकर धनी बने थे। इन समानताओं के आधार पर वैदिक भाष्यकारों ने पणि दास और दस्यु को एक मान लिया, जो उचित नहीं हैं, जैसा कि हमने देखा कि दस्यु पणि या दास से भिन्न लुटेेरे थे, जिन्हें आजकल डाकू/दस्यु भी कहते हैं।
वेदों मे असुर/आर्य रक्षा और दस्यु संहार- वेदों मे दस्युओं से असुरों अथवा अयोर्र्र्ं की रक्षा की प्रार्थनाएँ अनेक मन्त्रों में देखने को मिलती हैं। वेदों के अनुसार आर्यों की तरह दस्यु भी कृषि कर्म करने वाले विशों/असुरों/अर्यों के शत्रु थे, क्योंकि वे इन्हें ही लूटते थे। पणि अथवा दास भी इन्हीं का शोषण कर धनी बनते थे। अर्थात पणि या दास भी विशों आदि के शोषक थे। परन्तु दस्यु विशों/असुरों/कृषकों के साथ ही पणियों के भी शत्रु थे क्योंकि वे इन सब को लूटकर धनी बनते थे। यही कारण हैं कि वैदिक ऋृषियाँ/कवियों द्वारा इन्द्र अग्नि इत्यादि से आर्य एवं दस्युओं के दमन तथा संहार की प्रार्थना की गयी हैं अथवा उनके द्वारा दस्युओं का संहार करते हुए दिखाया गया हैं।51 कुछ वेद मन्त्रों की व्याख्या से यह बात स्पष्ट होती हुई दिखायी देती हैं।
एक मन्त्र में दस्युओं को असुरों का विरोधी दिखाते हुए उन्हें उनके घर से भगा देने का उल्लेख किया गया हैं। उसमें लिखा हैं- ‘‘हे मित्र अग्नि! तुमने उन असुरों के लिए (असुर्य), जो पृथ्वी (वसव:) को निरन्तर (नि) अपने कर्म से (क्रतुम) प्रसिध्द करते हैं (ऋृाण्वन); दस्युओं को उनके घर (ओकसो) से बाहर निकाल दिया और उनके लिए अधिक प्रकाश पैदा किया (जनयन) न कि आर्यों के लिए।’’52
पीछे हमने देखा कि दस्यु अकर्मन हैं तो यहाँ इस मन्त्र में असुरों को कर्मशील बताया गया हैं। यहाँ असुरों को श्रेष्ठ बताया गया हैं और ऐसे श्रेष्ठ असुरों की रक्षा के लिए दस्युओं को उनके घर से भगा देने की बात कही गयी हैं।-
- उन्हें उनके मानवता विरोधी कार्यों के कारण अमानुष तक कहा गया हैं।68
- वे व्रतहीन69 अथवा अन्यव्रती70कहे गए हैं।
- उन्हें अत्याचारी तथा दुष्ट कहा गया हैं।71
- उन्हें प्रजा का शत्रु माना जाता था।72
- वे अपना धन छिपाकर रखते थे।73
- वे दूसरों की सम्पत्ति छीन लेने वाले लोग थे।74
- वे देवों के प्रति श्रध्दा नहीं रखते थे।75
- वे ऋृषि आदि कर्मों को नुकसान पहुँचाते थे।76
- वे पणियों से भी श्रध्दा नहीं रखते थे77 और उनको भी लूटते थे।
- वे अस्पष्ट भाषा बोलते थे।78
- उन्हें कृषकों/असुरों/अर्यों का शत्रु माना गया हैं।79
दस्युओं की उपरोक्त चारित्रिक विशेषताओं से स्पष्ट होता हैं कि वे समाज-विरोधी तत्व थे। वे जनता को लूटकर समाज में अव्यवस्था फैलाते थे। इसलिए कृषक सम्राट इन्द्र आदि द्वारा उनका विनाश किया जाता था। आज भी समाज को सुरक्षा प्रदान करने के लिए डाकुओं का संहार किया जाता हैं। निश्चय ही वैदिक दस्यु आज के डकैतों की ही तरह थे अथवा दस्यु डकैत ही थे। इसमें कोई सन्देह नहीं।
वैदिक भारत के विश/कृषक/असुर कृषि आदि कर्मों को करते थे। जबकि दस्यु लूट-मार करते थे। इसलिए उन्हें अकर्मन कहा गया। उन्हें मृघवाची कहा गया हैं विद्वानों ने इसका अर्थ लगाया हैं कि वे कोई अस्पष्ट भाषा बोलते थे। इस आधार पर कुछ विद्वानों ने दस्यु को विदेशी जाति की संज्ञा दी हैं। मेयर तथा हिलब्रन्ट दस्यु को पारसियों के ग्रन्थ अवेस्ता के दख्यु के बराबर मानते हैं। उनके अनुसार दख्यु जाति के लोग ईरान में किरगीज तुर्कमान में रहते थे।80 मिस्टर कैन्ट का विचार हैं कि दस्यु शब्द की उत्पत्ति मध्य युग में कोहस्तान में हुई, जो कैस्पियन सागर के पूर्व में स्थित हैं।81 परन्तु दस्युओं के मृघवाची होने से ही हम उन्हें पूर्णत: विदेशी नहीं मान सकते। अस्पष्ट भाषा (मृघवाच) का अर्थ कूट भाषा भी तो हो सकती हैं जैसा कि डकैत, तस्कर, माफिया, आतंकवादी आज भी अस्पष्ट कूट भाषा का प्रयोग करते हैं। उनके लििए स्वयं तथा लूट के धन की सुरक्षा के ल्लिए ऐसा करना स्वाभाविक होता हैं। दूसरे जरथ्रुस्त्र जैसे दस्युओं को ईरान क्षेत्र में भाग कर शरण लेने के लिए वैदिक मानवों द्वारा बाध्य किया गया था, जिसका वर्णन हम आगे देखेंगे। दस्यु वास्तव में असुर जाति के ही समाज से भटके हुए लुटेरे थे। ऐसे डकैतों/दस्युओं के अन्य देशोंं मे होने से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। आज भी तो समस्त देशों में इस प्रकार के लोग पाए जाते हैं, जहाँ उनके विनाश को वरीयता दी जाती हैं।
ऐसे लूटेरों के लिए न तो देवों का कोई अर्थ होता हैं और न ही उनके लिए किए जाने वाले यज्ञों का ही महत्व होता हैं। इसीलिए उन्हें ‘अयज्यन’ कहा गया तो कोई आश्चर्य नहीं। यदि वे देवों से डरते होते तो लूट-मार ही क्यों करते? डकैत शासकों को नहीं मानते क्योंकि वे शासकों की आज्ञा के विरुध्द ही तो जनता को लूटते हैं। अत: उनके तत्कालीन शासक इन्द्र को मानने का प्रश्न ही कहा उठता हैं?
दस्युओं के अमानुष कहने का अर्थ मात्र इतना ही हैं कि वे मनुष्य कहलाने के अधिकारी नहीं रह गए थे क्योंकि माता मनु82 और पिता कश्यप की सन्तानें मनुष्य कृषि आदि कर्मों द्वारा जीवन निर्वाह करते थे, जबकि दस्यु लूट-मार करते थे। अत: कृषि कर्मा मानवों के शत्रु के रुप में उन्हें अमानुष या मानवता विरोधी कहा गया। ऐसे लोग समाज के शत्रु होते हैं। उन्हें मार डालना उचित समझा जाता हैं। उन्हें इसीलिए यज्ञ-स्थल से दूर रखा जाता था कि कहीं वहाँ भी वे लूट-मार न शुरु कर दें, क्योंकि यज्ञ-स्थल पर भी बड़ी संख्या में लोग आते थे और वहाँ उनके खाने-पीने के लिए धन की भी व्यवस्था रहती थी। पणियों से श्रध्दा न करने का अर्थ हैं कि वे पणियों को भी लूटते थे, क्योंकि उनके पास भी व्यापार से एकत्र की गयी सम्पत्ति होती थी। ऐसे लोगों को विश्वासघाती, मानवता विरोधी, दुष्ट, अत्याचारी, प्रजा का शत्रु कहा गया और उन्हें मार डालने, अनुशसित करने, उन्हें पकड़कर बलिवेदी पर चढ़ा देने की प्रार्थना की गयी तो कोई आश्चर्य नहीं।
ऐसे लुटेरे दस्युओ को वेदों के हजारो वर्ष पश्चात लिखी गयी मनुस्मृति के लेखक ने उन्हें ब्राह्मण, क्षक्षतय, वैश्य, शूद्र जैसे चारों वर्णों से अलग रखा83 तो यह गलत न था, क्योंकि ऐसे लोगों की कोई जाति नहीं होती। कोई भी उन्हें अपनी जाति का मानने के लिए तैयार नहीं होता। आज भी ऐसे समाज के शत्रुओं की कोई जाति नहीं मानी जाती हैं। दस्यु आर्य जाति के भी नहीं हो सकते, क्योंकि आर्य तब जंगली, असभ्य, गोेरे विदेशियों को कहा गया था, जो निर्धन थे,84 जिन्हें बाद में शरण देकर बसा लिया गया। (यह हम विस्तार से देख चुके हैं) जबकि दस्युओं को धनी बताया गया हैं।
इस प्रकार वेदों में वर्णित दस्यु संहार की घटनाओं, दस्यु शब्द और दस्युओं की चारित्रिक विशेषताओं के विश्लेषण से ही स्पष्ट होता हैं कि वैदिक दस्यु मूलत: भारतीय विश/कृषक/असुर समाज के ही पथभ्रष्ट लोग थेख जो अपने ही समाज के लोगों को लूटते थे और समाज में अव्यवस्था फैलाते थे। उन्हें ही आज डाकू या दस्यु भी कहा जाता हैं।
वैदिक दस्यु और अवेस्ता का दख्यु समानार्थी - वेदों की समकालीन पुस्तक अवेस्ता (पारसी धर्मग्रन्थ) मेें दस्यु को दख्यु के रुप में प्रस्तुत किया गया हैं। वहाँ दख्यु शब्द को सम्माजनक स्थान प्राप्त हैं। क्योंकि पारसी धर्म के प्रणेता जरथु्रस्त्र को असुर के साथ ही श्रेष्ठ दख्यु कहा गया हैं। इस आधार पर कुछ लोगों ने दस्युओं को विदेशी जाति का मान लिया। परन्तु ऐसा न था। मुझे ऐसा लगता हैं कि पारसी समाज का धर्म गुरु जरथ्रुस्त्र भी पहले भारतीय विश/कृषक/असुर समाज का ही सदस्य था जो ख्यातिनामा दस्यु बन गया था। जब यहाँ कृषक सम्राट इन्द्र द्वारा दस्यु उन्मूलन का अभियान चलाया गया तो दस्युराज जरथ्रुस्त्र भी अपने साथियों के साथ ईरान भाग गया अथवा भगा दिया गया। उसने वहाँ जाकर अपने वैदिक ज्ञान के आधार पर नए धर्म ग्रन्थ अवेस्ता की रचना की नींव डाली और वहाँ एक नया धर्म चलाया। यही कारण हैं कि अवेस्ता में सुर के साथ ही दस्यु शब्द को भी सम्मानजनक85 बना दिया गया। इसीलिए अवेस्ता में जरथ्रुस्त्र को ‘दख्युमा’ तथा ‘दख्युनामसुरो’ (दस्युओं में श्रेष्ठ असुर) कह कर याद किया गया।86उन्हें पैगम्बर का सम्मान दिया गया हैं। नया पैगाम (सन्देश) ईरान ले जाने के कारण ऐसा होना स्वाभाविक था। ईरान में नए धर्म का प्रस्थापक जरथ्रुस्त्र असुर था और वह दस्यु था। उसने भारत के असुर ग्रन्थ वेदों की तरह का ही एक धर्मग्रन्थ ’अवेस्ता’ दिया था। अत: वहाँ असुर भी श्रेष्ठता के साथ ही दस्यु को भी श्रेष्ठता प्रदान कर दी गयी।
किसी डकैत का किसी स्थान पर जाकर पैगम्बर या महामानव बन जाना कोई आश्चर्य नहीं पैदा करता। कारण भारत में भी तो रत्नाकर, दस्यु/डकैत से रामायण जैसे धर्मग्रन्थ की रचनाकर महाकवि वाल्मीकि बन गया। इसे कौन नहीं जानता? ऐसे ही यदि भारत का डकैत जरथ्रुस्त्र ईरान में जाकर पैगम्बर बन गया तो कोई आश्चर्य नहीं।
भारत में यह जरथ्रुस्त्र समाज शत्रु दस्यु के रुप में ही था। उसे जरुथ के रुप में अग्नि में जलाए जाने के साथ प्रस्तुत किया गया हैं।87 विद्वानों ने जरुथ को जरथ्रुस्त्र ही माना हैं। क्योंकि जरुथ के जहाँ पर वेद में अग्नि द्वारा जलाए जाने का उल्लेख हैं, वहीं पर पारसियों के धर्मग्रन्थ के ‘दीन कार्ड’ ‘बेहरामयशत’, ‘दाहेस्तान’ इत्यादि में भी जरथ्रुस्त्र की अग्नि से मृत्यु होने का उल्लेख हैं।88
प्राचीन ईरानी साहित्य को देखने से भी यही लगता हैं कि दस्यु जरथ्रुस्त्र को बलपूर्वक उसके मातृ देश से निकाला गया था। ‘उस्तनवेति गाथा’ में असहाय जरथ्रुस्त्र के विलाप-प्रलाप का जो चित्रण हैं, उसमें उनके देश निकाले की करुण स्मृति सुरक्षित हैं उसमें लिखा हैं कि-‘‘मैं किस देश को जाऊँ? कहाँ शरण लूँ? कौन देश मुझे और मेरे साथियों को शरण देगा? न तो कोई सेवक मेरा सम्मान करता हैं और न देश के दुष्ट शासक। मैं जानता हूँ कि मैं नि:सहाय हूँ। मेरी ओर देख हे अहुरमन्द! मैं तुमसे विनीत प्रार्थना करता हूँ।’’89
जरथ्रुस्त्र का यह विलाप उसके किसी देश से निकाले जाने की ओर स्पष्ट संकेत हैं। ऋृग्वेद में भी दस्युओं को उनके घर से बाहर निकाले जाने का उल्लेख हैं।90 इससे स्पष्ट होता हैं कि भारत से भगाए गए दस्युओं मं से ही दस्युराज जरथ्रुस्त्र भी था। ऐसा लगता हैं कि ईरान के निवासियों ने महाज्ञानी, महान योध्दा, दस्युराज महान असुर को पाकर उसके सहयोग से न केवल आस-पास के देशों को लूटकर अपने देश का वैभव बढ़ाया वरन् उन्होंने उसके बल पर नए धर्म की नींव भी डाली और अत्यन्त शक्तिशाली सुमेरियन तथा असीरियन जैसे विशाल साम्राज्यों की भी स्थापना की। यही कारण था कि उन्होंने उसे वहाँ अपना पैगम्बर घोषित किया और उसे सर्वश्रेष्ठ ‘दस्युनायक असुर’ (दख्युनाम सुरो) के रुप में याद किया। सम्भवत: ऐसे ही असुर अथवा अर्य जाति के निष्कासित दस्युुओं और अन्य लोगों के सहयोग से ही दजला, फरात तथा नील नदी घाटी में वैदिक संस्कृति का विकास एवं विस्तार हुआ और वैदिक देवता मित्र, वरुण, अग्नि, वायु आदि उन क्षेत्रों में भी पहुँचे। कभी-कभी देशसे निकालना भी वरदान सिध्द होता हैं। उदाहरण के लिए स्वर्ग लोक के आदम और हब्वा को भगवान/खुदा/गॉड द्वारा वर्जित फल खा लेने और उनके द्वारा छाल/पत्ते आदि के कपड़े पहन लेने पर उन्हें स्वर्ग से देश निकाला दे दिया गया91 तो वे भूलोक में आ गए। जिससे यह धरती आबाद हुई और यहाँ सभ्यता, संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान का जन्म हुआ। वर्जित फल को कुरान में गन्दुम लिखा हैं। संस्कृत में जिसे गोधुम और हिन्दी में गेहूँ कहा जाता हैं। ऐसा लगता हैं कि गेहूँ खाने और कपड़े पहनने की प्रेरणा उन्हें किसी भारतीय ज्ञानी, विज्ञानी, कृषक/असुर/अर्य ने ही दिया था, (जिसे वहाँ शैतान कहकर प्रस्तुत किया गया) और जब वे स्वर्ग अर्थात यूरोप से भगा दिए गए तो वे एशिया के ईरान आदि भू-क्षेत्रों में आ गए, जहाँ असुरों की ईरानी सभ्यता, संस्कृति फल-फूल रही थी। ईरान शब्द का उद्भव भी कृषिकर्मा अर्यों से अर्थात अर्यान और फिर ईरान हो गया। आर्य से इसकी उत्पत्ति वैज्ञानिक नहीं लगती। इसी प्रकार अर्याना बेइजा भी अर्य शब्द से ही निष्पन्न लगता हैं न कि आर्य शब्द से। आर्य तो जंगली असभ्य थे। (यह हम देख चुके हैं।)
अत: वे अपने देश को किस रुप में याद करते? उनके देश में तो गोर-गोरी सुन्दर अप्सराएँ और प्राकृतिक सुन्दरता थी, जिसे उन्होंने जहाँ भी गए, स्वर्ग या सुवर्ग लोक के रुप में याद किया। पृ.343
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह हैं कि भारत से भगाए जाने पर जरथ्रुस्त्र जैसे असुर दस्यु अरब के देशों में पहुँचे तो स्वर्ग (यूरोप) से निकाले जाने पर आदम हब्वा भी वहीं पर आए। इस प्रकार वहाँ एक नयी संस्कृति ने जन्म लिया।
भविष्य पुराण में म्लेच्छ देशों में दस्युओं तथा आर्यों के रहने का उल्लेख किया गया हैं। उसमें लिखा हैं कि, ‘‘म्लेच्छ देशों मे दस्यु, शबर, भिल्ल तथा मूर्ख आर्य जन रहते हैं। उनके म्लेच्छ देशों में बुध्दिमान मनुष्य भी म्लेच्छ धर्म को ही मानते हैं। म्लेच्छ देश आर्य देशों के सब प्रकार के अवगुणों से भरे हुए हैं।92भारत के लोग पश्चिम से आने वाले यवनों, मुगलों, अंग्रेजों को म्लेच्छ कहते रहे हैं। इसी आधार पर यवनों की भाषा ‘यावनी’, अंग्रेजों की भाषा ‘गरुण्डिका’ (अंग्रेजी का भारतीय नाम) के साथ ही ब्रज भाषा तथा मराठी को भी भविष्य पुराण में म्लेच्छ भाषा कहा गया हैं।93यहाँ ब्रजभाषा बोलने वाले मग/मगी/गौड़ ब्राह्मण शाकद्वीप अर्थात मगदूनियाँ क्षेत्र से आए थे94और मराठी बोलने वाले चितपावन ब्राह्मण पहले मिस्र के यहूदी थे।95 इस प्रकार ये सभी पश्चिम से यहाँ आए और भारतीयों ने उन्हें म्लेच्छ और उनकी भाषा को म्लेच्छ भाषा कहा। म्लेच्छ देशों (सम्भवत: अरब क्षेत्र), में यहाँ से भगाए गए दस्यु और आर्य देशों (स्वर्ग लोकों) से आए अथवा भगाए गए आर्य आदि रहते थे। म्लेच्छ देशों में मूर्खृ आर्यजनों के रहने से स्पष्ट होता हैं कि आर्य देश म्लेच्छ देशों के निकट थे, जहाँ आर्यों का आना-जाना होता था यही कारण था कि आर्यों के सारे अवगुण उन देशों में भी पहुँच गए थे। दस्यु चूँकि विकसित सभ्यता से गए थे। अत: उन्होंने दस्युु जरथ्रुस्त्र के नायकत्व में वहाँ नए धर्म की नींव रखी। आर्यों ने भी जिसे स्वीकार कर लिया।
उक्त विश्लेषण से स्पष्ट होता हैं कि दस्यु यद्यपि असुर अथवा भारतीय विश समाज के ही सदस्य थे, परन्तु लूट-मार कर असुर समाज को भी दुख देते थे, अत: उन्हें समाज का शत्रु कहा गया, जैसा कि आज भी ऐसे लोगों को अपराधी ही कहा जाता हैं। यही कारण था कि उनका बहिष्कार किया गया तथा देश से निकाल दिया गया और उनका विनाश किया गया।
दस्यु असुर का पर्याय नहीं - वेदों में पिप्र, शंबर, शुष्ण, अर्बुद, नमुचि जैसे दस्युओं का इन्द्र द्वारा संहार किए जाने का उल्लेख हैं96 उनमें उन्हें असुर न लिखकर दस्यु लिखा हैं। परन्तु भाष्यकारों ने मन्त्रों की व्याख्या में उन्हें असुर के रुप में भी प्रस्तुत किया हैं। यहीं से दस्यु और असुर को एक समझने की गलती होने लगी और शब्दकोशकारों ने भी इसी आधार पर दोनों को एक-दूसरे के पर्याय के रुप में प्रस्तुत कर दिया। ज्जिस प्रकार पणि और दास को दस्यु का पर्याय बनाकर प्रस्तुत किया गया, उसी प्रकार श्रेष्ठता के प्रतीक असुर को भी लुटेरे दस्यु का पर्याय बना दिया गया। ऐसा वैदिकोत्तर काल में ब्राह्मण ग्रन्थों के प्रणयन काल में प्रारम्भ हुआ और रामायण, महाभारत, स्मृतियों तथा पौराणिक ग्रन्थों के रचनाकारों द्वारा स्वर्ग लोक के सुरों अथवा आर्यों की प्रशंसा में वैदिक देवता के पर्याय असुर को ही दुष्टता का प्रतीत बना दिया गया। यह गहरे शोध का विषय हो सकता हैं कि वेदों में ईश्वर या देवता का पर्याय असुर पौराणिक काल में क्यों और कैसे अर्थावनति को प्राप्त हो गया? इतना ही नहीं यह भी शोध का विषय हैं कि वैदिक भारत का यथार्थवादी हिन्दू धर्म (वैदिक धर्म) स्वर्ग की काल्पनिकता में कैसे ढल गया। ऐसा लगता हैं कि यह कार्य वैदिक काल में असुरों से बार-बार पराजित होने वाले, और अन्तत: यहाँ शरण पाकर सुर (आर्य) से भूसुर (ब्राह्मण) बने लोगों ने ही बदला लेने के लिए कियाय। (विस्तृत विश्लेषण हम इसी ग्रन्थ में पीछे देख चुके हैं।)
यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य यह हैं कि यदि विश/कृषक/असुर जाति के ही कुछ लोग दस्यु बनकर लूट-मार करने लगते हैं तो पूरी असुर जाति को दस्यु का पर्याय नहीं कहा जा सकता हैं। आज भी तो विभिन्न जातियों के दस्यु लूट-मार के द्वारा समाज को आक्रान्त किए रहते हैं। समाचार पत्रों में उन दस्युओं को उनकी जाति के नाम के साथ छापा भी जाता हैं, परन्तु हम उनकी पूरी जाति को दस्युओं को जाति नहीं कहते हैं क्योंकि वे जाति के पथभ्रष्ट लोग होते हैं। वैसे ही वैदिक काल में असुर/विश/कृषक जाति के कुछ लोग पथभ्रष्ट होकर दस्यु बनवकर लूट-मार करने लगे तो इसी से यदि कोई दस्यु को असुर का पर्याय बनाकर प्रस्तुत करता हैं तो यह उसकी अज्ञानता का ही द्योतक कहा जाएगा। इसी प्रकार पणि/दास/व्यापारी को भी (जो अपने ढंग से जनता को एक प्रकार से लूटकर धनी बनते हैं) दस्यु का पर्याय नहीं कहा जा सकता हैं। निश्चय ही दस्यु का जो अर्थ आज हैं, वहीं अर्थ वैदिक काल में भी था। पृ.344
इन्हीं दस्युओं से वैदिक इन्द्र आदि मानवों का संघर्ष होता था। वेद के अब तक के अधिकतर भाष्यकारों ने इस संघर्ष मेंं आर्यों को विजयी होना दिखाया हैं जो सच नहीं हैं। कारण दस्युओं का संघर्ष तो विशों/असुरों/कृषकों अथवा अर्यो से होता था, जिसमें अर्य या असुर विजयी होते थे97 और दस्यु मारे जाते थे। इन्द्र और कृषक सम्राटोे ने दस्युओं का वध कर98 अथवा उन्हें भगाकर अर्यों अथवा कुरमी/कृषकों/असुरों की रक्षा की99 न कि आर्यों की। उन्होंने तो दस्युओं के साथ ही कृषक समाज को हानि पहुँचाने वाले आर्यों, पणियों या दासों का भी संहार किया और उन्हें देश से निकाल भी दिया। यह सच हम विस्तार से देख चुके हैं।पृ.345