1) गोर बंजारा समाजमें उपरोक्त दोनों समुहके परस्पर संबंध के सिलसिलेमे कही कही चर्चा और विवाद भी चलते रहते है। कुछ गोर लोग कहते हैं कि गोर समुहका स्वतंत्र अस्तित्व है तो कुछ गोर कहते हैं, कि हम राजपुतवंशी या कुल के हैं। वास्तवमें दोनों समुह भारतीय है और दोनों मिलकर साथ साथ बड़े प्रेम के साथ रहते भी है, इसमें कोई संदेह नहीं है और रहनाही अनिवार्य है। क्योंकि हम सब एकही भूमिके पुत्र हैं। किंतु दोनों समुहके कुलवंश प्रथक प्रथक और दोनोंकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक भूमिका भी प्रथक प्रथक हैं। दोनों समुह साथ साथ रहते हैं और दोनों सच्चे भारतीय हैं। किंतू दोनोंमे रोटी व्यवहार हैं, किंतू बेटी व्यवहार नहीं हैं। इतनाही नहीं तो दोनोंकी जीवन, जीवनशैली, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक भूमिका प्रथक होने के कारण गोर राजपूत नहीं कहला सकते और राजपुत गोर नहीं कहला सकते, यह सच्चाई हैं। वर्तमान लोकतंत्रमें जाति, धर्म, समुह भेद संविधानिक रुपसे उचित नहीं हैं। किंतु प्रथकताके कारण जब विवाद खड़े होते हैं, तब न्याय के लिये ऐतिहासिक और सांस्कृतिक भूमिकाही सहायक सिध्द होती हैं। विवादात्म अवस्थामें दोनों समुहोंको न्याय मिलना अनिवार्य होता है। इसी हेतुसे मैने ऐसे चर्चात्मक एवं विवादात्मक विषयपर मेरे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विचार इस लेख द्वारा लिखनेका प्रयास किया हैं।
2) इसवीसन आरंभ होने के पश्चात भारतमें इसवीसन 78 में विदेशी कुशान जनसमुह आया। और इस समुहने भारतपर इसवीसन 102 तक शासन किया। इस शक समुहके बाद विदेशी शक जनसमुह भारतमें आया और उसने इसवीसन 130 से 150 तक शासन किया। इनके पश्चात हुण नामके विदेशी जनसमुह मध्य आशियासे भारतमें आया। इस हुण कबिलेमें, समुहमें पत्तिहार, परमार, चाहमान, चालुक्य (चोल अथवा सोलंकी) आये, और इन पांचो जनसमुहने भारतपर इसवीसन 836 से 1192 तक कुल 356 साल तक राज्य किया। इस समयके राज्यकर्ताओंमें प्रमुख रुपसे मिहिरभोज (प्रतिहार वंशी) राजा परमार भोज, महाराणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहानका समावेश है। इसके पश्चात का राजपुतोंका इतिहास मुझे ज्ञात नहीं है। इन्हीं पांचो जनसमुहने उतरार्धमेंं अपनेको राजपुत घोषित किया, एैसा इतिहासका संदर्भ हुआ। कहा जाता है, कि, उपरोक्त पांच कबिलोमेंसे चार कबिलोंकी उत्पत्ति ब्राह्मणोंने एक यज्ञमें अग्नीसंस्कार से कर इन्हे राज्यकर्ता (राजा) बनाया था। इन राजाओंसे जो संतती उत्पन्न हुई और राज करने लगी। उन्होंनेंही राजाओंके पुत्र होने के कारण स्वयंको राजपुत घोषित किया था। संदर्भ - कर्नल जेम्स टॉडकृत राजस्थानका इतिहास भाग-1 और भारतके आदिवासियोंका इतिहास। लेखक - एच.एल. (न्यायधिश)
3 अब हम गोर बंजारा (पणि) जनसमुहका ऐतिहासिक, सांस्कृतिक इतिहास देखेंगे।
गोर बंजारा समाज यह इसापूर्व 6500 साल पूर्वका भारतका मुलनिवासी है। डॉ. राजेंद्र एस फुलझेलेका) कहना है, कि इसापूर्व 6500 के लगभग कुछ लोग आजके पाकिस्तानके काछी (मेहेरगड) नामक क्षेत्रमें रहते थे। वे भूमध्य समुद्रके पूर्व दक्षिण किनारेसे धीरे धीरे इराण अफगाणिस्तान मार्गसे भारतमें आये थे। अफगाणिस्तानसे वे धीरे धीरे पंजाब तक पहुँच गये और वहाँपर बस्ती बनाकर राज्य भी किया। पाकिस्तानमें बलुचिस्तान राज्यमे 2000 साल रुकने के पश्चात वे पंजाब तक पहुँचकर सिंधू नदी और उनकी सहायक नदिओंके किनारोंपर उन्होंने पशुपालन, खेती, व्यापार किये और आजके आधुनिक नगरोंके भांति उन्होंने वहाँ आदर्श नगर और आदर्श संस्कृति निर्माण की। यह संस्कृति इसापूर्व 4500 से इसापूर्व 2000 वर्षकी कालावधीमें विकसित होकर समृध्दिके शिखरपर चढ़ गयी थी। किंतु यह संस्कृति इसा पूर्व 1750 के लगभग नष्ट हो गई। नष्ट होने के अनेक कारण बताये जाते है। इस किंतु हमे यह लोग कौन थे और उनको और उनकी संस्कृति, सभ्यताकों किसने नष्ट किया यह देखना है। कुछ इतिहासकार कहते हैं, कि यह संस्कृति विदेशी आक्रांता युरोशियन आर्योने की तो कुछ इतिहासकारोंका मानना है, कि यह संस्कृति नदियोंकी बाढ़ोके; नदियोंके जल प्लावनसे, भूकंपसे, ज्वालामुखीसी, ॠतुचक्रोंके बदलनेसे, अथवा वहाँके राजा एवं सामंतोंके आपसी संघर्षके कारण इसापूर्व 1750 के लगभग नष्ट हुयी होगी।
कुछ भी हो, किंतु यह संस्कृति विकसित करनेवाले, समृध्द करनेवाले जनसमुहोको वेद ग्रंथोंमे पणि, द्रविड़, मेलुहा आदी नामोंसे संबोधा गया है। पणि, द्रविड़, मेलुहा यह भारतके मुलनिवासी थे, जो यहाँ इसापूर्व 4500 से रहते थे। बादमें इसापूर्व 2000 के आगे पीछे विदेशी आक्रमणकारी आर्य यहाँ आये और दोनों समुहमें अनाज, पशु, महिलाएँ आदीके कारण संघर्ष शुरु हुआ। मुलनिवासी पणि, द्रविड़ समुह सभ्य, संस्कृत, स्वावलंबी, पशुपालन, कृषि, विश्व व्यापार करनेवाले और शासक समुह था। बाहरसे आया हुआ विदेशी आर्य समुह यह असभ्य, असंस्कृत, जंगली, अकृषक, स्वैराचारी, मांस, फलोंका आहार करनेवाला, लुटारु, और नंगा रहता था एैसा इतिहासकार डॉ. एस.एल. सिंहदेव का मानना है। अन्न के लिये खेतीका अनाज चुराना, मांसाहार के लिये पशु चुराना, यहाँ तक की महिलाये भी उठाकर ले जाना, घर-खेती जलाना, हिंसा करना, जलस्त्रोत फोड़ना आदी कारणोंसे दोनों समुहोमें शेकडो वर्ष युध्द चलते रहा। मुलनिवासियोंके पास घोडे एवं हत्यार न होनेके कारण उनकी लड़ाईमें हार हुयी और आन-जान बचानेके लिये वे जंगल भाग गये।
4 ॠग्वेदमे कहा गया है, कि ये लोग नागवंशीय, श्रमण सभ्यताके, मातृ कुटुंबिय और पूर्वज वंदक, प्रकृति यानी निसर्गको माननेवाले, अवर्ण समुहके वेदोंमे इन्हे पणि, द्रविड़के अलावा अव्रती, अन्यव्रती, अपवृत्ती, अर्य, अनार्य, असुर, अहि, अरि, अनिंद्र, अदेववू, अश्रध्दान, अयज्जवन, अब्राम्हण, विश, कुर्मी आदी नामोंसे भी संबोधा गया है। तात्पर्य यह कि पणि, द्रविड़, और युरेशियन आक्रमणकारी आर्यों की संस्कृति, जीवनशैली परस्पर पूर्णत: विरोधी थी। इन्हीं कारणोंसे भी आर्य-अनार्योंमे संघर्ष हुआ था और अनार्य पणि, द्रविड़ोका पतन हुआ था। उत्तर वेद कालमें यानी पौराणिक कालमें, ब्राम्हण ग्रंथोंमें इन्हें दैत्य, दानव, दास, दस्यु, सैतान, निशाचर, राक्षस, नरमांस भक्षक, विचित्र अंगडबंब, लोभी, पाखंडी, कंजुस, मायावी, यक्ष, आदी अनेक नामोंसे संबोधा गया है। मुलरुपमें वे पणि द्रविड़ही थे।
तथागत बुध्दके शासनकालमें यह समुद्र, वज्जी, तक्षक, सार्थवाह, वैदेही आदि नामोंसे पहचाना जाता था। इसवीसनके पश्चात यह पणि, द्रविड़, समुह खासी, टका, टाक, तक्षक, कनेत, कंटक, कर्कोटा, वहिका, बहिका, मद्र, कुनेत, कुनिंद औंद्र, पौंद्र आदी नामोंसे भी संबोधा गया है। इसके प्रमाण डॉ. नवल वियोगीकी रचनाओंमे मिलते है।
मुगल, मुसलीम शासन कालमें यह पणि, द्रविड़ जनसमुह बंजारा, वंजारा, लंबाडा, लमाना, लभाना आदी नामोंसे संबोधा गया है।
भारत का प्रथम इतिहास ग्रंथ कवि कलश लिखित राजतरंगीनीमें बताया गया है, की, बंजारा लुबानोंने कश्मीरमें डोम, डूमरा, औदुंबरा आदीके नामसे राजा एवं सामंतो के रुपमें आठसौ शताब्धि से 1884 तक 1100-1200 सालतक शासन किया है। 1885 में उन्होंने अपनोंको राजपुत कहलाना शुरु किया था। मतलब वेद कालमें पणि द्रविड़ नामसे संबोधा जानेवाला समुह वेद कालसे लेकर मुगल-मुसलीम, राजपूत शासन काल तक समय समयपर अपने समुहके नाम बदलकर शेकडो नामोंसे भी अधिक नामोंसे संबोधा गया है। सिंधू संस्कृति से लेकर आजतक का समयकाल लगभग नऊ हजार सालका है। इतनी लंबी अवधीमें पणी, द्रविड़, समुह लगभग देड़ सो नामोंसे संबोधा गया है, और यह स्वभाविक भी है।
भारतीय इतिहासकार डॉ. पु. श्री. सदार, डॉ. नवल वियोगी, अॅड. प.रा. देशमुख, डॉ. प्रणय चाटसे, डॉ. निरज साळुंके, डॉ. राजेंद्र फुलझेले, डॉ. सपनकुमार बिश्वास आदी लेखकोंने उनकी रचनाओंमे सिंधू कालीन पणि और द्रविड़ोको आज के बंजारा, वंजारा, लंबाडा, लुबाना, लभानी कहा है। पणि, द्रविड़ और विदेशी आर्य परस्परोंके कट्टर शत्रु थे। इस कारण आर्योने सत्तामें आते ही पणि, द्रविड़ोका पुरा इतिहास नष्ट करके उनकी पहचान मिटानेका प्रयास किया है। संशोधकोंको इस दिशामें खोज करनेकी बहुत बड़ी आवश्यकता है।
5 इस प्रकार हम देख चुके है कि (पणि, द्रविड़) गोर बंजारा समुहका आठ से नऊ हजार सालका लंबा इतिहास है। इतने लंबे समय में (पणि, द्रविड़) गोर बंजारा समुह सिंधु संस्कृतिके कालमेंही शासक था। जब उनका आर्योके साथ हुये संघर्ष में पराभव, पतन हुआ तो वे अपनी सुरक्षा के लिये देशकी चारों दिशामें फैल गये। तब से वे शिक्षा, सत्ता, संपत्ती, संरक्षण और सुखसाधनोंसे तथागत बुध्दकी क्रांति तक वंचित रहे। बुध्द के समयमें वे वज्जी गण महासंघ के रुपमें उभर आये और विभिन्न नामोंसे सुरक्षित रहकर शासक भी बने रहे। हो सकता है, राजा सम्राट अशोक के शासनमें भी यह पणि समुह शासक रहा हो। किंतु मुगल, मुसलीम, पेशवाईके कालमें वह और जंगलोंमें चला गया होगा। क्योंकि उपरोक्त शासको के शासनकालमें उनपर अन्याय, अत्याचार, असुरक्षितता बढ़ गई होगी। अत: उन्होंने ग्राम-नगरोंसे दूर जंगलोंमे ही रहना पसंद किया होगा। यह तो सभीकी अनुभवकी बात है कि भारतको स्वतंत्रता मिलनेके पूर्व यह समुह 99% गांव-नगरोंसे दूर पहाड़ी-पर्वतोंके तलहटी, गोदमें एवं शिखरोपर रहता हैं, जहाँ कोई नागरी सुविधाये उपलब्ध नहीं है।
इस प्रकार हम देखते है कि, आज बंजारा माने जानेवाले जनसमुहका इतिहास 7000 से 8000 तक का पुराणा है। यदि आज मेहेरगड एवं सिंधू सभ्यतासे भी कालगणना न की जाय और बुध्द कालसे भी कालगणना की गई तो भी पणि (बंजारा) समुह 2500 साल पुराना है। राजपुत माने जानेवाले हुण कबिलोंका भारतमें आगमन इसवीसन के पश्चात नववी शताब्धिमें हुआ है। हुण कबिले राजपुतोने (प्रतिहार, परमार, चौहान, चालुक्य (चोल) और गहलोत) का इसवीसन 836 से इसवीसन 1192 तक यानी 356 वर्ष तक राज्य किया था। राजपुत राजाओंने हिंदू (ब्राम्हणी) संस्कृतिका समर्थन किया था। क्योंकि ब्राम्हणोंनेही राजपुतोंका एक पर्वतपर यज्ञके माध्यमसे हिराण्य गर्भ नामक संस्कार से उत्पत्ति की थी। इस उत्पत्तिके पश्चात ब्राम्हणोंने उपरोक्त हुण कबिले, बादमें राजपूत संबोधे गये समुहोको राजा बनाया थारू। पणि बंजारा समुह मात्र ब्राम्हण समर्थक नहीं थे। इसी कारण उनका उत्तर सिंधू सभ्यता) कालमें संघर्षके पणियोंकी हार हुई थी और वे अपनी पहचान बदलकर शासन कर रहे थे। क्योंकि आर्य/ब्राह्मण) पणि समुह परस्पर कट्टर शत्रु थे।
इसी कालमें पणि समुह छद्म वेषमें (नाम बदलकर) कश्मीर और अन्य क्षेत्रमें सत्तामें थे। (संदर्भ कवि कलश लिखित राजतरंगीनी रचना पढे) साथही डॉ. नवल वियोगीकी सभी रचनाये पढ़े)
6 इस प्रकार हम देख चुके है, कि पणि (गोर बंजारा) समुहका इतिहास मेहरगड़ से आज तक का लगभग आठसे नऊ हजार साल पुराणया और बुध्दकालसे 2500 सालका पुराणा इतिहास है। इसके विपरित राजपुतोंका इतिहास इसवीसन आठसौं के बादका और केवल 356 सालका इतिहास पाया जाता है। एैसी अवस्थामें आर्य विरोधक पणि समुह और आर्य समर्थक राजपुत समुह दोनों एक कैसे हो सकते है?
वास्तवमें दोनों समुह ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टीसे अलग अलग है। राजपुत पूर्व पणि (गोर बंजारा) समुह शत्रुसे (ब्राम्हणोंसे) नाम छुपाकर अन्य नामोंसे देशके कुछ हिस्सेमें शासक थे। किंतु बादमें ब्राम्हण आर्य समर्थक राजपुत ब्राम्णोंद्वारा शासक बनाये गये। दोनों समुहोंका शासनकाल लगभग समान है। किंतु मुगलोंका सामना करते समय यह दोनों समुह आर्योकों अपनी पहचान नहीं होने देना चाहता था। क्योंकि दोनों परस्पर शत्रु थे। किंतु राजपुत गोर बंजारा दोनों मित्र बन चुके थे। अत: राजपुत भी गोर बंजारोंकी पहचान आर्य ब्राम्हणोंको ना होना इस प्रयासमें होंगे। इसके लिये राजपुतोंने गोर बंजारोंको अपने खुदके कुलवंशके नाम देकर सेनामें समाहित कर लिया होगा। क्योंकि गोर बंजारा यह स्वाभिमानी, इमानदार, लढाक और बहादुर कौम थी। गोर बंजारोंमें राजपूत शासनके पूर्व, राठोड, चौहाण, पवार (परमार), तंवर यादव (जाधव) कुलवंश नहीं थे। आगे राजपुतोंका शासन खत्म हो गया। किंतु गोर बंजारोंके कुल वंश नाम जैसे के तैसे बने रहे है। गोर बंजारोंके कुलवंश के नाम वास्तवमें भुकीया, लावडिया, वडतीया, आमगोत, बाणोत आदी है। किंतु मजबुरी के कारण और आर्य ब्राम्हणोंसे बचकर रहनेकी आवश्यकता) रहने के कारण आज तक राजपुतोंके कुलवंशी नाम कायम है।
7 अब सवाल यह उठता है, कि पणि (गोर बंजारा) समाज राजपुतवंशी गोरा, बादल, रायमल, जयमल, फता, आला, उदल, राजाभोज इनको गोर बंजारा क्यों मानते है? उनका गुणगाण क्यों करते है? इसका कारण यह है की राजपुत राजाओंने मुगलोंका सामना करने के लिये शासक गोर बंजारोंको उनके कुलनाम राठोड, चौहान, पवार, तंवर (तुरी) देकर उनके साथ जोड लिया था। गोर बंजारा उसी समय (मुगल और ब्राम्हणोंसे बचने के लिये) अन्य नामोंसे अन्य क्षेत्रोंमे राजा थे। शत्रुका मित्र वह हमारा मित्र इस हेतुसे ब्राम्हण-मुगलोंके अन्याय से बचनेके लिये अज्ञात रुपसे गोर बंजारा राजपुतोंके साथ जुडे हुये थे। किंतु लंबे समय तक उनके साथ सैनिक, सेनापती, मंत्री आदी बनकर रहनेके कोरण राजपुतही कहने, समझने लगे होंगे, यही कारण हो सकता है। अन्यथा गोर बंजारोंका राजपुतोंके साथ ना ऐतिहासिक और ना सांस्कृतिक और ना बेटी व्यवहार था और ना आज भी है। इतनाही नहीं तो गोर बंजारोंकी बोलीभाषा, वेषभूषा, अलंकार, निवासस्थान और रक्तसंबंधोंके रीति रिवाजोंमे भी कही समानता नहीं दिखाई देती। फिर गोर समुह खुदके गोर समझनेके स्थानपर राजपुत क्यों समझता है। मुझे तो यह जबरदस्तीकीही घुसखोरी दिखाई देती है। वैसे तो मैं अंतरजातिय, अंतर धर्मीय विवाहका समर्थक हुँ। बिघडते हुये समाजोंको संबोधोंको देखते हुये, वर्तमान समयमें किसी भी समुहके साथ, खानपान, वेषभूषा, अलंकार, बोलीभाषा आदीके आधारपर भेदभाव न करते हुये, शादी-विवाह हो और सब मिलजूलकर रहे यह मैं चाहता हुँ। किसी तो भी शायरने कहा है कि,
हिंदु, मुसलीम, शिख, इसाई, करे आपसमें शादी।
कही भी झगड़ा ना होगा, और ना होगी भारत की बरबादी।
किंतु इतिहास तोडमरोडकर अथवा झूटा, विकृत ना लिखा जाना चाहिए, एैसी मेरी भावना और धारणा भी है। सच्चाई सबके सामने होना चाहिए और बदलते समयके अनुसार हमे सभी को मानवता नियमोंका पालन करना चाहिए, यही मानव समुहका/परमकर्तव्य है। गोर बंजारा और राजपुत समाज अन्यायी मुगलोंका सामना करने के लिये साथमे लड़े होंगे और दोनोंने मिलकर शत्रुका और मुसीबतोंका सामना किया होगा। इस कारण वे एक परिवारके जैसे रहे होंगे, इसमें कोई संदह नहीं है। गोर बंजारा समाज तो घुमंतु था और शत्रुसे सुरक्षा पाने के लिये छद्म यानी छुपे वेषमें और छुपे रुपमें शासक भी था। शासक कम और तांडा बस्ती बड़ी थी। हर एक टांडा बस्तीका प्रमुख नायक था और अनेक तांडोका भी एक महानायक था। इन नायक महानायकोंका और राजाभोजका, राजपूतोंका बार बार किसी न किसी कारणवश संबंध आते होंगे। किसी कार्यक्रमके निमितसे राजा भोज भी टांडों मे आता या बंलाया जाता होगा) एैसे समयमें राजा भोजन गोर समाजको संकट समय बड़ा आधार या न्याय दिया होगा। इसी राजा भोजके महान न्याय और समतापूर्ण कार्य एवं सेवाके कारण राजा भोज सभीका प्रिय हुआ होगा। जो राजा जनताका प्रिय होता है, न्याय देता है एैसे राजाका जनताके द्वारा गुण और गीत गाये जाना स्वभाविक है। आज भी प्रथक प्रथक समाज समुह होनेपर भी न्यायीराजा या मंत्रीका गुण गाया जाता है। इसी सत्यताके आधारपर गोर समुह राजाभोज और राजपुतोंके गुण गाते होंगे तो यह भी स्वभाविक बात हैं। किंतु राजपुत और गोर बंजारा समुह ये दोनो अलग अलग समुह हैं, इस सच्चाईको नकारा नहीं जा सकता। इसमें और भी एक सच्चाई यह है, कि राजपुत हिंदु धर्म समर्थक थे और गोर बंजारा समुह य धर्म निरपेक्ष था। फिर भी दोनों उस समय भाईचारेके साथ कैसे रहे यह एक चिंतनीय और संशोधनीय बात है।
ब्राह्मणोंने क्षत्रियोंका सव्हार करने के बाद अग्नी संस्कारके द्वारा राजपुतोंकी उत्पत्ति की और लंबे समय तक वे राजा बने रहे। अत: उनकी संतती बादमें राजायोंके पुतयानी पुत्र होने के कारण राजपुत कहलाने लगे एैसा इतिहास है। कवि कलश लिखित राजतरंगीनी ग्रंथ के अनुसार गोर बंजारा भी शासक वर्ग था, इसके प्रमाण डॉ. नवल वियोगीकी रचनाओंमे जानकारी मिलती है। किंतु वे राजपुत नहीं कहलाये क्योंकि गोर बंजारा समुह प्रमुख वज्जीगण संघके अंतर्गत अनेक शाखा और उपशाखायोंमें विभाजित था। डॉ. नवल वियोगी लिखित ’बादके हडपाईयोका इतिहास’ इस ग्रंथमें इसकी विस्तार से जानकारी उपलब्ध है। आज के बंजारा समुहको गोर नामसे तथागत बुध्दपूर्वसे संबोधा जाता होगा, ऐसा मेरा मानना हैं। क्योंकि गोर बंजारा वर्तमान समयमें शासकिय दप्तरोमें बंजारा नामोंसे पहचाना जाता हो तो भी वह स्वयंको नीजी समाजको गोर नामसेही पहचाना देता है। गो इस अक्षरसे और भी अनेक समुह संबोधे जाते है। इन समुहोंकी गो इस अक्षरकी शुरुवात क्या हैं, यह भी अध्ययनका विषय हैं। किंतु गोर नामके सदृश्य, गोसावी, गोपाल, गोल्हार, गोरखा, गोंड, गोंधळी, गोवारी, गारी, गाराडी, आदी नामोंके घुमंतू समुह अस्तित्वमें हैं। यह सभी गोर बंजारा परिवारकेही हो सकते हैं। क्योंकि सभी जन समुहकी जीवनशैली मिली जुली दिखाई देती हैं। भिल, लभाना, पारधी, गाडी लोहार, शिकलगीर, वाघरी, कोलाटी, बाजीगर और अन्य घुमंतू समुह इसी परिवारके हो सकते हैं। क्योंकि उपरोक्त सभी समुहोंकी जीवनशैली और समस्यायें समान और बोलीभाषा कुछ सीमातक मिली जुली दिखाई पड़ती हैं।
अब हम अंतमें देखेंगे कि, गोर समाज राजा भोजके अलावा और समकालीन बहुतसे राजपुत गोर वंशी थे, एैसा अपप्रचार करते रहते हैं। उनको प्रमाणके साथ सच्चा इतिहास ज्ञात हो इस हेतुसे राजपुतोंने कुछ योध्दाओंकी थोडी विस्तारसे जानकारी निम्न प्रकारकी देना चाहता हुँ।
स्कॉटलंड निवासी कर्नल जेम्स टॉडने उनकी ‘राजस्थानका इतिहास भाग-1 में अध्याय क्र. पंद्रहमें गोरा और बादलकी साथही राणी पद्मीनीकी बहुतही विस्तारसे मालुमात दी हैं। अध्याय क्र. सतरह और उन्नीसमें रायमल और जयमल फताकी जानकारी दी है। अध्याय क्र. उन्नतीसमें आला-उदलकी मालुमात पन्ना क्र. 336 से 341 तक हैं। गोरा, बादल, पद्मीनी (रुपमती) की जानकारी पन्ना क्र.132 पर हैं। रायमल, जयमल और फताकी जानकारी पन्ना क्र. 148 से 173 तक हैं। प्रतिहार वंशीय राजा मिहिर भोज, इसे मिहिरकुल भोज भी कहा जाता था। परमार वंशीय राजा भोजकी मालुमात दिल्ली हायकोर्टके न्यायाधिश और इतिहासकार णच-लालने उनकी रचना ‘भारतके आदिवासियोंका इतिहास’ में मिहिरकुल भोजकी मालुमात पन्ना क्र. 148 और 194 पर साथही परमार भोजकी मालुमात पन्ना क। 234 से आगे दी हुई हैं। मिहिरकुल भोजका शासनकाल इसवीसन 836 से 885 माना गया हैं। राजा परमार भोजका शासनकाल 1000 से 1055 तक का माना गया हैं। दोनों राजाओंके शासन कालकी दूरी 164 वर्षोंकी हैं। ये दोनों भी राजा हुण कबिलोंके पाच कबिलोमेंसे एक प्रतिहार वंशीय और दुसरा परमारवंशीय माना जाता हैं। इन पाचा कबिलोमेंसे गहलोत एवं गहिलोत को छोड़कर शेष प्रतिहार, परमार, चौहाण और चालुक्य या चोल, (सोलंकी को ब्राह्मणोंने उत्तरी क्षेत्रमें अबु पर्वतपर यज्ञ करके हिराण्यगर्भ तथा अग्नीसंस्कारके द्वारा क्षत्रिय की उपाधि देकर राज्यकर्ता बनाया गया था, और यह भी इसाकी आठवी सदीके बाद इसका इतिहास साक्षी हैं। गहलोत या गहिलोत राजपुत वंशको कुछ लोग गौड, गौर, गोर आदी नामोंसे भी संबोधते हैं। किंतु इनको गोर बंजारा समाजसे संबंध बताया नहीं जा सकता। क्योंकि गोर बंजारा समुह का अस्तित्व सिंधू संस्कृतिसे भी पूर्वका यानी मेहेरगड संस्कृतिसे और उसके भी पूर्व भूमध्य समुद्र किनारेके रहिवासियोंके रुपमें माना जाता हैं। दुसरा महत्व का फरक राजपुत समुह हुणवंशीय और इसवीसन आठसौ के पश्चात का और गोर बंजारा समुह यह नाग, द्रविड़, श्रमणवंशीय साथही मातृप्रधान परिवारका माना जाता है। इनकी जीवन पध्दती धाटी मानी जाती हैं, जब की राजपुत समुह हिंदु धर्मीय माना जाता हैं। आजके माहौलमें गोर बंजारोंका भी बहुत बड़ी मात्रामें हिंदुकरण हो चुका हैं, इस सत्यको भी नकारा नहीं जाता। किंतु यह धर्मीय परिवर्तन अज्ञान, मजबुरी एवं मार्गदर्शकोंके अभावमें हुआ हैं, इस सत्यको भी मानना पडेगा। राजपुतोंका (हुणोंका) आगमन भारतमें मध्य आशियासे माना गया हैं। गोर बंजारोंका आगमन मात्र भूमध्य सागरके किनारेसे इजिप्त, इराण, अफगाणिस्तान मार्गसे भारतमें आये हैं और पुरे देशमें फैल गये एैसा डॉ. नवल वियोगीका मानना हैं। सिंंधू संस्कृतिके समयमें इंद्रका लड़ाईमें सामना करनेवाला प्रमुख पणि(गोर) समुह ही था, एैसा मुल वेद ग्रंथमें बताया गया है, एैसा बहुत सारे इतिहासकारोंके ग्रंथोंमे पाया जाता हैं। तथागत बुध्दके समयमें तीन प्रमुख गणसंघ और उनके अनेक उपसंघ एवं उपशाखाये डॉ. नवल वियोगीने बताई हैं। तीन प्रमुख गणसंघोमें कोलीय, शाक्य और वज्जी गणसंघका समावेश हैं। कोलीय गणसंघ यह बुनकर और तथागत बुध्दका ससुराल था। शाक्य गणसंघ यह बुध्दका गणसंघ था और यह कृषक संघ माना जाता था। यह शाक्य गण वज्जी महागणसंघकाही एक हिस्सा था, एैसा डॉ. नवल वियोगीका मानना हैं। वज्जी महागणसंघकी अनेक शाखायें हैं और वे शिल्पक, व्यापारके साथ कृषक, पशुपालक और माल वाहक भी माने जाते थे। इनकी शाखायोंमे, लोहरा, गोकुंदा, कर्कोटक (तक्षक) और नागपाल नामक गणसंघ भी थे। भारतके प्रथम इतिहासकार कवि कलशने उनकी राजतरंगीनी नामक रचनामें बताया हैं, कि इन चार गणसंघोंने कश्मीरमें और परिक्षेत्रमें लंबे समय तक राज किया हैं। इन सभी गणसंघोंमेही, गोर बंजारा जनसमुहके कुछ पदचिन्ह दिखाई देते हैं। गोर बंजाराके इतिहासके खोजके लिये डॉ. नवल वियोगीकी सभी की सभी रचनाये बहुत उपयुक्त हो सकती हैं। इनके अलावा डॉ. पु.श्री. सदार इतिहासकार प.रा. देशमुख, डॉ. प्रताप चाटसे, डॉ. एस.जी. फुलझेले, डॉ. सपनकुमार बिसवास, डॉ. निरज साळुंखे आदी इतिहासकारोंकी रचनाओंका अध्ययन भी इतिहास शोधकर्ताओंके हैं।
इतिहासमें और एक राजा शशांक के विषयमें गोर बंजारा होनेकी चर्चा दिखाई देती हैं। वास्तवमें राजा शशांक यह राजा हर्षके समकालीन राजा था। उन्होंने अनेक हिंदू देवी-देवताओंके मंदिर निर्माण केा प्रोत्साहन दिया था। क्योंकि वह ब्राह्मण राजा था। शशक शब्दका अर्थ खरगोश होता है। शशी शब्दका अर्थ चांद होता हैं। चांदको सोम नामसे भी संबोधा जाता हैं। गोर बंजारा जनसमुहमें सोमली स्त्रीका और सोमला यह पुरुषका नाम प्रचलित हैं। अन्य समाजमें यह नाम नहीं पाये जाते। प्राचीन गोर बंजारोंके स्त्री-पुरुषोंके नाम अन्य समाजमें नहीं के बराबर हैं। राजा शशांक भी कभी कभी सोम नामसे संबोधा जाता था। इसी गोर बंजारा नाम सदृश्यता के कारण कुछ गोर विचारवंत राजा शशांकको गोर मानते हैं। किंतु यह ामनना बिलकुल निराधार हैं। क्योंकि गोर समाज यह प्राचीन समयसे पशुपालन और घुमंतू व्यापारी होने के कारण उन्होंने कभी भी किसी मंदिरका निर्माण नहीं किया था। कुल मिलाकर गोर बंजारा समाज जिन्हे गोर मानता हैं, वे गोरा, बादल, जयमल, फता, राणी पद्मीनी (रुपमती) रायमल, आला उदल, राजा भोज, राजा शशांक (ब्राह्मण) इनमें कोई गोर बंजारा नहीं हैं। सबके सब हुण (राजपुत वंशीय) राजा, सेनापती और परस्परोंके रिश्तेदार हैं। गोर बंजारा जनसमुहका इनके साथ भाईचारा, मित्रता और राजकिय क्षेत्रमें सहयोगीके अलावा वांशिक, सांस्कृतिक और रक्त संबंधी कोई संबंध नहीं था। गोर बंजारा जनसमुहकी प्रथमसेही धाटी जीवनशैली हिंदू (ब्राह्मणी) थी और आज भी हैं। दोनोंकी वैचारिक और सांस्कृतिक भूमिका यह पूर्व-पश्चिम दिशाके भांति हैं। फिर भी मिलजूलकर रह रहे हैं। जो कुछ सत्य हैं, वह बतानेका प्रयास मैने किया हैं। कोई इसे माने या न माने, उनसे मेरी कोई दुश्मनी नहीं हैं। मैने प्रमाण के साथ बताया हैं। प्रमाण ढुंढ़ना यह आपका काम हैं और मानना न मानना यह भी आप सभीकी इच्छा विचारोंपर आधारित हैं।
प्रा. ग. ह. राठोड
जय भारत - जय जगत - जय संविधान