देखो चतुरोंकी चतुराई, चार वर्ण आप बनावे, ईश्वर की बतलाई। (कबीर)
उपरोक्त श्लोक में, या दोहें के माध्यम से कबीरजी कह रहे हैं, कुटनीतीज्ञ, झुठनीतीज्ञ, ब्राह्मणोंकी चतुराई तो देखो, वेदों की रचना करके वेदों में चार वर्णो का निर्माण ब्राह्मणों ने किया है। किंतू वर्णव्यवस्था ब्राह्मणनिर्मित न कहकर ईश्वर निर्मित है ऐसा झुठा ढोल बजा रहे हैं, और प्रसार भी कर रहे है। उदा. क्र.3: एक तूचा, हाड, मल, मुत्र, एक रुधीरा, एक गुदा।
एक बुंदसे सृष्टि किओं है, को ब्राह्मण को शुदा। (संत कबीर)
जगत के सभी स्त्री पूरुषों की एकही प्रकारकी त्वचा, हड्डी, मलमुत्र, और एकही प्रकार का रुधिरा याने खून है। सभी स्त्री-पुरुषोंकी गुदा याने मल मूत्र विर्सन का अंगभी एकही तरह का है, इसके अलावा भगवानने एकही बुंद के द्वारा यह पुरी सृष्टि याने सारे सजीव और निर्जीव तयार किए हैं, ऐसा शास्त्रोंका कहना है। तो फिर एकही भगवान की संतान, एक ब्राह्मण और दूसरा शुद्र कैसे हो सकता है। दोनों में उँचा-नीचा ऐसा भेद क्यों माना जाता है?
उदा. क्र.4: ब्राह्मण रुप छले बलीराजा, ब्राह्मण किन्ह किनको राजा।
ब्राह्मण ही किन्ह सब चोरी, ब्राह्मण ही लागतखोरी।
ब्राह्मण किन्हों वेद पुराणा, कैसे, हूँ मीही माणूस जाना। (संत कबीर)
ब्राह्मण (वामन) का रुप लेकर ब्राह्मण ने बलिराजा को कपट से छला, इतनाही नहीं तो वह खूद के सिवाय और किसीको भी राजा बनने नहीं देता। देश की सब साधन संपत्ती भी ब्राह्मणनेही चुराई, या उसके कब्जे में रखी है।
चारो वेद और अठरा पुराणों की रचना भी उन्ही के फायदे के लिए उन्होंनेही की हैष अत: इन सभी बातोंसे ब्राह्मण कितने स्वार्थी और मतलबी है, यह अच्छी तरहसे समझा जा सकता है.
उदा. क्र. 5 जाती वर्ण दोनों हम देखा, झुठे तन की आशा।
तीनो लोग नरक में डूबे, ब्राह्मण के विश्वासा॥
मनुष्य जाति के इस नाशवान शरीर को ब्राह्मणोंने खुदके स्वार्थ के लिये वर्ण व्यवस्थामें विभाज्जित कर दिया। खुद ब्राह्मणों के सिवाय अन्योंको क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र में, गौण या सामान्य बनाकर उन्होंने तीनों वर्णोंका विश्वासघात किया है। ब्राह्मणोंके विश्वास के कारणही आज तीनों भी वर्ण नरक यातना याने दु:ख, कष्ट भोग रहे हैं, ऐसा कबीरजीका कहना क्या झुटा है? संत कबीरजीके बाद में महात्मा जोतिराव फुलेने ब्राह्मणोंके बारे में अपनी नाराजी बताते हुए कहा है कि,
1) ब्राह्मणाचे येथे नाही प्रयोजन, द्यावे हाकलून जोती म्हणे।
2) किन्नर गंधर्व ग्रंथी नाचविले, अज्ञ फसविले कत्रिमाने।
निर्लज्ज सोवळे त्यांचे अधिष्ठाण, भोंदिती निदान शुद्रादिका॥
3) अरे त्याला नेऊनी जाळा, अरे त्याला नेऊनी जाळा।
अहो क्षुद्रांचा हा काळ, आले ब्राह्मण चांडाळ॥
4) हात गोमुखी चित्त पैश्यावरी, किवा तरण्या ताठ्या पोरीवरी।
भडवे रात्र-दिन शयनी, मेरी तुंबडी भरदे॥
5) जाळ तुझी फुकी एकी, धुर्त नटी अर्ध मुकी।
तुम्ही आर्य कार्य साधु, नव्हते क्षुत्रांचे बंधु॥
6) ब्राह्मणाची जात; कृत्रिमी अखंड।
छळीले उदंड क्षुद्रांदिका॥
7) मतलबी धर्म, ज्यात नाही दया।
कामा पुरती माया, पक्के धुर्त॥
8) सर्व मानवात ब्राह्मण बनला, धिक्कारी क्षुद्राला अहंपणे।
शुद्रांनी अर्पावे काठी जोडे दान, आदराची खून जोती म्हणे॥
9) विद्वान शुद्रांनो, जागे कारे व्हाना, तपासोनी पहाना, ब्रह्मघोळ।
10) द्विजकुट तुम्ही आणावे मैदानी, आली ही पर्वणी जोती सांगे।
11) शुद्र पोरा खोटा धर्म शिकविती, नसेल तेथे कळ काढणे,
भटजीच्या ध्यानी, आपण राही ऐकीकडे लढवी मुर्खाना॥
उपरके सभी ग्यारह मराठी अभंग या श्लोकों में महात्मा जोतिराव फुले ब्राह्मणों के स्वभाव या प्रकृतिके बारे में, व्यवहारिकताके बारे में अपना क्रोध व्यक्त करते हुए ब्राह्मणों के व्यवहार के प्रति हमेशा सावधान रहनेकी चेतावणी दी है। ब्राह्मणोंकी बहुजनों के लिये कोई उपयोगीताही नहीं है। झुटे ग्रंथों की रचना, छुआछुतकी बीमारी, बहुजनोंसे दुश्मनी, धनके लोभी, कामी स्त्रिओंकी लालसा, मतलबी धर्मोपदेश, दान-दक्षिणा, भिक्षा के द्वारा शोषण, कुटनीती, लुटनीती और झुटी नीतीका उपयोग करके आपसमें लढाना आदी अनेकों ब्राह्मणों की बुराईओंकी मालुमात बहुजनोंको देने की कोशिस उपरके मराठी श्लोंको के माध्यमसे बहुजन हितचिंतक म. फुलेने की है। ब्राह्मणोंके साथ रहकर उन्हें ब्राह्मणोंके व्यवहार आचरण के बारेमें जोभी कटु अनुभव आये हैं। उन्ही अनुभवोंको म. फुलेने काव्य के माध्यमसे बहुजनों के सामने रखकर ब्राह्मणों से सचेत रहनेका इशारा उन्होंने दिया है। अब तमीलनाडू के एक समाजसुधारक और वैदिक संस्कृति और सभ्यताके कडे विरोधक रामायण ग्रंथ के सच्चे समिक्षक रामा-स्वामी पेरियार इनके ब्राह्मणोंके बारेमें कौनसे विचार थे, वे मैे नीचे दे रहा हुँ।
1) ब्राह्मण यह एक शौषक विचारधारा और जहरीला साप है।
2) ब्राह्मण कभी लढता नहीं, बल्कि अन्यों को लढवाता है।
3) घळश्रश्र ुळींह घळपवपशीी यह ब्राह्मणवादी विचारधारा है।
4) जब तक शासन में ब्राह्मण मंत्री है, तबतक बहुजनों का शोषण चलतेही रहनेवाला है।
5) ब्राह्मण निर्मित देव, जात और लोकशाही यह तीन प्रकारके भुत, ब्राह्मण और ब्राह्मणोंके समाचारपत्र, उनके राजकिय पक्ष, उनके विधीमंडळ और चलचित्रपट यह सभी बहुजनों कों लगी बीमारीया है। देश की उन्नती करने के लिये यह तीनों भूत और पाचों बिमारियां नष्ट करना आवश्यक है।
6) ब्राह्मण समाज आपने दावपेच बदलता है।
7) इतिहास ब्राह्मणवाद की बिमारिओंसे लथपथ भरा पडा है।
8) ब्राह्मणोंने बहुजनोंको जातीके नामसे एक दुसरे से तोडा है। किन्तू धर्म के नामसे उनके संरक्षण और फायदे के लिये जोडा या जमा किया है।
9) ब्राह्मण से जहरीला कोई साप नहीं है। अत: ब्राह्मणोंसे बचे रहना अनिवार्य है।
10) लोकतंत्र ब्राह्मणवाद के खिलाफ है। ब्राह्मण लोकतंत्रके हमेशा खिलाफ।
11) असमानता और विषमता ब्राह्मणवाद का शास्त्र संमत सुत्र है। रामासामी पेरियारके विचारोंके अलावा अन्यों के विचार भी कुछ ऐसे ही है।
1. ब्रह्मविद्या समाजवादाची कट्टर शत्रु आहे. ब्राह्मण, एक ढोंग आहे.
ब्रह्मविद्येचा उगम फसवणूक व शोषण यातून झाला आहे. (राजर्षि छ. शाहुमहाराज)
2. पुरोहितांनी नेमुन दिलेल्या पूजेच्या पध्दती म्हणजे लोकावर वर्चस्व गाजविण्याचे त्यांचे एक साधन असतेे. (स्वामी विवेकानंद)
3. हिमालय पर्वता वरुन गंगा वाहते, आणि जे गोमुख तुम्ही म्हणता, ते पैसे उपटण्यासाठी लोकांनी केले आहे, देव प्रयाग या निव्वळ पौराणीकांच्या गप्पा आहेत. हा सर्व मूर्खाचा बाजार व धुर्तांची दुकानदारी आहे. (स्वामी. दयानंद सरस्वती)
4) ब्राह्मणशाहीचा पगडा, ब्राह्मणेतरानं रगडा. (मा. म. देशमुख)
5) भट म्हणजे ब्राह्मणेतरा विरुध्दचा कट. (मा. म. देशमुख)
6) जो ब्राह्मणावरी विसंबला, त्याचा मृत्युची ओढविला. (मा. म. देशमुख)
7) मरायला बहुजन आणि चरायला ब्राहामण. (मा. म. देशमुख)
8) भट्टाला दिली ओसरी, भट हातपाय पसरी. (सर्वश्रुत)
9) फुट, कुट, लुट आणि झुट हे वैदिकांचे (ब्राह्मणांचे) बहुजनांवर नियंत्रण ठेवण्याचे अमोघ शस्त्र आहे. (मराठा सेवा संघ)
10) विद्याविना मती गेली, मती विना गती गेली, गती विना वित्त गेले,
वित्ताविना क्षुद्र खचले, येवढे अनर्थ एका अविद्येने केले. (म. फुले)
विद्यासे याने ज्ञानसे हमेशाके लिये दुर रखनेका दुष्ट कार्य वेदोंने और वेदोंके उपांग माने जाने वाले स्मृति, धर्मसुत्रों, श्रुति, गीता, रामायण, महाभारत आदी ब्राह्मण महर्षि, मुनियोंने लिखे ग्रंथोंने किया है। अत: अपने स्वार्थ के लिये ब्राह्मणोंने इन ब्राह्मणग्रंथोंका कितना भी समर्थन किया तो भी बहुजन हितचिंतकोंने उनका उतनाही ताकतसे विरोध और निषेध किया है, यह सच्चाई उपर दिये गये सभी बहुजन हितचिंतकोंके प्रखर विचारोंसे अच्छी तरह से ज्ञात होता है। उनका विरोध या निषेध 100 प्रतिशत सच है। क्योंकि वैदिक साहित्य, वैदिक देवी-देवता, वैदिक धर्म, संप्रदाय, साधु-संत, कर्मकांड, तीथक्षेत्र आदी सभीने बहुजनोंका राक्षस, दैत्य, दानव, असुर, पिशाच, भुत, दास, दुष्मन, अस्पृश्य, मानकर उनपर घोर अन्याय, अत्याचार किया है। उनके साथ युध्द करके उनका विनाश किया है। बहुजनोंको पशुतुल्य मानकर उनकों सभी मुलभूत नागरी सुविधाओंसे वंचित रखा था। उनके साथ पशु से भी ज्यादा क्रुर व्यवहार किया था। उनकी धनसंपत्त लुटी थी। कुत्तेकी मौत से उन्हें मारा था और मॉ बहनोंकी इज्जत भी लुटी थी। ऐसी हालत में सर्व प्रथम महाविरजीनें वैदिक धर्म का त्याग करके जैन धर्म की स्थापना की। उसके पश्चात बुध्द ने बौध्द धर्म की निर्मिती की। शीख के गुरु गुरुगोविंद सिंहने शीख धर्म की स्थापना की। म. फुलेने सत्यधर्मकी स्थापना की। उनके अनुयायी डॉ. आंबेडकरने हिंदू धर्म त्याग कर बुध्द धम्म की दीक्षा ली। वर्तमान समयमें मराठा सेवा संघने शिवधर्म की पुनरस्थापना की घोषणा की है।