देव,दैव, जाति धर्म सब शोषणके साधन
मानवकी उत्पत्ति कब हुयी यह निश्चित रुपसे नही कहा जा सकता। किंतु मानव की उत्पत्ती आजसे कई लाखो साल पूर्व हुयी यह मात्र निश्चित रुपसे कहा जाता है। जब धरातलपर प्रथम उत्पत्ति हुयी थी वह नग्न अवस्थामें पहाडो,पर्वतोकी गुफावोंमें, बडे-बडे वृक्षोपर गीर वृक्षोपर पेडोकी खोखले स्थानोंमें छुपकर रहता था। पेडोंके पत्ते और छालोेंका भी वह ठंडी और धुुपसे बचाव करने के लिये प्रयोगमें लाता था। समुहमें रहा करते थे। और नरमादी पशुओंकी भांति स्वैराचारी यानी मैथुनका किसीपर कोई बंधन नही था। पशुओकी तरह प्राचीन मानव समुह देव-दैव, जातिधर्म, पंथ एवं कर्मकांडोसे पूर्णत: अपरिचित था। वह जंगली कंदमुळ,फल और मृत पशुओंका मांस एवं पशुओेंको मार कर मांसाहार करता था। उनकी कोई निश्चित बस्ती एवं रुकनेका स्थान भी नही था। जल एवं आहार की खोजमें वे हमेशा भटकते रहते थे। उनकी सुरक्षा का भी कोई भरोसा नही था। सबल दुर्बलोंपर नियंत्रण रखता था। जीवन असुरक्षित था। धीरे धीरे समुह बढते गये। आपसमें मेलजोल बढते रहे। सहयोग और स्नेहकी भावना बढती गई। अत:में परस्परोंकी सुरक्षाके लिये अस्थाई बस्ती एवं निवास स्थल बढते गये। अनाज और शस्त्रोकी खोज हुयी। अत: छोटी छोटी बस्तीयोंने झोपडीयोंके रुपमें गांवका रुप लिया॥ झोपडियोंका मकानोंमें, मकानोंका गांवमें और शहरोंमे रुपांतर हुआ। यंत्रो के माध्यमसे खेती परिवहनके साधन रस्ते बढे, पशुपालन बढा, वस्त्र, अलंकार, बर्तन आदी सभीमें उन्नत्ति हुयी। विविध कलाकारी, गीत,नृत्य,खेलकुद आदी क्षेत्रोमें भी उन्नत्ति हुयी।
विद्वानोद्वारा कहा जाता है कि भारतमें सबसे पहली उन्नतिशील यानी पशुपालन खेती करनेवाले जनसमुहकी बस्ती पाकिस्तानमें स्थित बलुचिस्तानके काछी(मेहरगड) मैदानोमें हुयी। यहा पर इस जनसमुहोंकी बस्ती लगभग 1500 सालतक रही और बादमें यहाका जनसमुह धीरे-धीरे सिंधुघाटी और उनकी सहाय्यक घाटियोंके क्षेत्रमें इ.सा.पूर्व लगभग 5000 से 4500 इसापूर्व जा बसी, यहाँपर यह जनसमुह इसापूर्व 2000 में उन्नत्तिके शिखरपर पहुँचा था। पशुपालन, कृषि, व्यापार, सभी क्षेत्रोंंमें यह समुह आदर्श संस्कृति-सभ्यताका जनसमुह माना जाता था। किंतू इ.पू. 2000 के लगभग असभ्य, जंगली, स्वैराचारी, कंदमूल फल और केवल मांसाहार करनेवाले युरेशियन ब्राह्मण भारतमे आ पहुचे। वे कृषि कर्मो और अनाजसे अपरिचित थे।
यह विदेशी आर्य ब्राह्मण वर्ग आश्रमी यानी श्रमण न करनेवाला था। अत: यह समाज मांसाहार और अन्नाहार लिये, साथही नारियोंके लिये भारतके मुलनिवासियोंके साथ संघर्ष कर पशु अनाज और नारियों की लुट, खून खराबी, आगजनी, मनुष्योंका संहार करने लगा। ऐसा संघर्ष आर्य ब्राह्मणो और मूलनिवासियोंमें (भारतियोंमें) हजारो साल चलनेके पश्चात आर्य ब्राह्मणोंकी जीत हुयी और मूलनिवासी भारतियोंकी हार होने के कारण उन्हे गुलाम बनकर आर्योंका (ब्राह्मणोंकी) शरणमें रहना पडा। जो शरण नही गये वे जंगलोंमें भाग गये, जिन्हे आज आदिवासी और घुमंतू माना जाता है। आर्य, युरेशियन, विदेशी (ब्राह्मण) कष्ट न करनेवाले होने के कारण बिनाश्रम बैठकर खाने के लिये उन्होने जातिवर्ण, धर्म और देव-दैव व्यवस्था निर्माण कर इन निर्माण साधनोंके आधारपर यह ब्राह्मण समुह आजतक बैठकर खा रहा है। मूलनिवासी बहुजन समाज ब्राह्मणोंद्वारा निर्माण इन साधनोंपर आख मीचकर श्रद्धा एवं विश्वास रखकर अपने कष्टकी धनसंपत्ती इन ब्राह्मणोंको दान दक्षिणाके रुपमे और विविध कर्मकांडोके माध्यमसे देकर स्वयं कष्ट और गुलामीकें दु:ख भोग रहा है।
संक्षिप्तमें विदेशी आर्य ब्राह्मण भारतमें प्रवेशके पूर्व भारतीय मूलनिवासीयोंकी संस्कृति और सभ्यतामें देव, दैव, जाति,पंथ, धर्म, वर्ण व्यवस्था, व्यवसाय व्यवस्था आदी संकल्पनाये कतई नही थी। भारतीय मूलनिवासी सभी बहुजन आर्य ब्राह्मण भारतमें आनेके पूर्व उपरोक्त सकंल्पनाओेंके स्थानपर पूर्वज,पशू,और निसर्ग वंदना करते थे. इस निसर्ग वंदनामें वे सूरज,चंद्र,तारे,भूमी,जल,अग्नी, वायुकी वंदना करते थे। आजके भांति देव, दैव, जातिधर्म, पंथ कर्मकांडो एवं दानदक्षिणाके माध्यमसे किसी विशेष समुहका शोषण नही करते थे। उस समय आजकी तरह मूर्तियोंको चेतनस्वरुप मानकर उन्हे पूजा नही जाता था। और ना उनके लिये मंदिर, तीर्थक्षेत्र निर्माण कर वहा पूरोहित भट,भगत,भोपे और साधुसंतोंको बिठाकर उनके माध्यमसे सामान्य धर्म और देवी भोली जनता को लुटा जाता था। सभी लोक श्रमको महत्व देते थे, और सभी श्रम कर अपना घरसंसार चलाया करते थे। आजके ब्राह्मण बनियोंकी, व्यापारियों, अधिकारीयों, नेताओंकी तरह कोई भ्रष्टाचार,कालाबाजार और शोषण नही करता था। आजके लोकतंत्रकी तरह ही समाज और शासन व्यवस्था चलती थी। और लोग शांतीसे अपनी जिंदगी बिता रहे थे। किंतू देव,देवी, दैव यानी भाग्य भविष्य,जाती,वर्ण,पंथ,धर्म और उनके मंदिरों और तीर्थक्षेत्रोकें कारण देशमें, विषमता, विवाद, अन्याय, अत्याचार, खुनखराबी, अपघात, आगजली, दान,दक्षिणाके माध्यमसे लूट,शोषण समय,धन,बलका अपव्यय जातिभेद,धर्मभेद, ऐसी अनेंको अमानवीय घटनाये घटित होकर पूरे देशमें अशांति, आतंकवाद, अविश्वास, असुरक्षितता फैल चुकी है। देशका संविधान उपरोक्त घटनाये ना घटीत हो इस उद्देशसे धर्मविहिन एवं धर्मनिरपेक्ष बनाया गया है। अत: भारतमें जातिधर्म और प्रथकदेवी देवताओंका अंत कर देना चाहिऐ। किंतू अंत करने की बात तो बहोत दूर रही, समयके प्रवाहने साथ नये नये पंथ, धर्मका निर्माण हो रहा है; पक्षपात बढ रहा है। देशमें धार्मिक एवं जातिय आतंकवाद फैल कर जनताकों शांतिका जीवन दुर्लभ हो चुका है। वर्तमान समयमें लिंगायत और गोर बंजाराका स्वतंत्र धर्म स्थापन करनेकी चर्चा एवं प्रयास जोरशोरसे चालू है।
धर्मका मतलब वास्तवमें सामाजिक, सुव्यवस्थाके नियम कानुन, रुढी एवं विधायक सर्जनशील परंपरासे है। देशमें किसी प्रकारकी प्रथकता बहुत बडी अशांति और अन्यायको जन्म देती है. भारतके किसी भी समुहपर कोई अन्याय ना हो और अशांति ना बनी रहे इसी हेतूसे देशकी संविधान एवं घटना वर्णजात, देवदेवी धर्म निरपेक्ष बनाई गई है। किंतू देशके धर्मवादी और जातिवादी जनसमुह इस धर्मजाति निरपेक्ष संविधाननुसार व्यवहार करने के लिये तयार नही है। यह संविधान और महापुरुषोका बडा अपमान है। जाति एवं धर्मके आधारपर देशमें आज निरर्थक मठ,मंदिर,तीर्थक्षेत्रोंकी संख्या बढ रही है, और इन्ही मंदिर, मठ तीर्थक्षेत्रोंके अनुपात में अश्रमी,शोषक,पुरोहित, ब्राह्मणवर्ग, साधू संत साध्वी, आदीकी संख्या बढ रही है. वास्तवमें इन उपरोक्त समुहोंकी देशकी उन्नतिमें,सुरक्षा एवं मौलिक सामाजिक संस्कारोंमें कोई योगदान नही है। धार्मिक कर्मकांडके माध्यमसे यह समुह अज्ञानी और धर्मांध लोगोंका शोषण कर रहे है। मंदिर एवं तीर्थक्षेत्र शोषण क्षेत्रके साथही साथ अनैतिक शारिरीक संबंधके केंद्र और माँ-बहनोंके शीलहरण के केंद्र बनते जा रहे है। धार्मिक प्रवचन, तीर्थयात्रा, दिंडी, रथयात्रा, यज्ञ, भंडारा, सप्ताह ग्रंथ पठण, भजन, किर्तन, आदीमें धार्मिक जनसमुहका धन,समय, बरबाद हो रहा है। देशकी समस्याए छुडानेके लिये उपरोक्त समुह के पास कोई योजना भी नही है। केवल देशकी मेहनती जनता को यह समुह भार समान है। अत: इन सभी घटनाओका दशेसे अंत करने की बहुत बडी अनिवार्यता है। क्योंकी यह जाति एवं धर्म और कर्मकांडोकी बिमारी बहुजन समाजमें संसर्गजन्य रोगोंकी भांति बढती जा रही है। और इस धार्मिक संसर्गजन्य बिमारीके कारण बहुजन समाजकी मेहनतकी कमाई बरबाद होकर कर्जबाजार बनकर दु:ख भोग रहे है।
सिंधु घाटीका पतन इ.पू. 1750 के लगभग होने के पश्चात गोर बंजारा समाज देश के दक्षीण,उत्तर क्षेत्रके पहाडो और जंगलोंमे जा बसा था। शायद तथागत बुद्धकी क्रांति के बाद यह समाज और गांव शहरोमें एवं गांव शहरों के पास आ बसा था। मूगल मुस्लिम और राजपूत-मराठा शासन कालमें दसवी शताब्दी में बंजारों का परिवहन और व्यापारके क्षेत्रेमें और शासक होनेके भी विवरण मिलते है। इनकी बस्तीकों टांडा नामसे संबोंधा जाता है। किंतू इनकी यह टांडा नामकी बस्ती 1960 तक कही भी गांव एवं शहरोंमें प्रवेश नही कर पाई थी। सन 1965-70 के बादही गोर बंजारा समाजने गांव एवं शहरोमें प्रवेश किया है। इसवीसन 1950 तक इस समाजका ब्राह्मण या हिंदू धर्म के साथ, देवी, देवताओंके साथ और धर्मग्रंथों, धर्मगुरुओंके साथ, उनके धार्मिक कर्मकांडोकें साथ कोई संबंध नही था। क्योंकि गोर बंजारा समाज गांव शहरोंसे दूर रहने वाला अवर्ण यानी वर्णबाह्य समाज था। निसर्ग वंदक होने के कारण उसको कोई धर्म नही था। किंतू प्रथम जनगणनाके समय भारत सरकारने इस समाजको हिंदू धर्म सूचिमें डालने के कारण और सवर्णो के संपर्कमें आने के कारण समाज हिंदू कहलाने और लिखने लगा। वास्तवमें हिंदू धर्म या अन्य धर्म क्या चीज है यह उन्हे कतई मालूम नही था। वे प्राचीन कालसे स्वाधिनतातक धर्मविहीनही थे, किंतू ब्राह्मणी हिंदू धर्मके अन्याय अत्याचारोके कारण समाजके कुछ लोगोंने इसाके पश्चात मुस्लिम, इसाई,शिख धर्ममें संरक्षण पा लेने कारण वे उस धर्मके कहलाते है। वास्तवमें गोर बंजारा धाटीनुसार धार्मिक कर्मकांडी न होकर वे पूर्णत: अकर्मकांडी और धाटीवादी है । धाटी से तात्पर्य न्यायवादी, समतावादी, कल्याणकारी, लिंगभेदविरहित, नियम, रुढीयाँ एवं परंपरा, कानुन ऐसा होता है। इस धाटी परंपरामें हिंदू ब्राह्मणी कर्मकांडो या त्योहारोंका ब्रतउपवासोंका, ब्राह्मणोंका, देवताओंका कोई संबंध नही आता। धाटी में किसी का शोषण, लुटना, फसांना, अनावश्यक, धनव्यय भी नही है। किंतू समाजको कुछ अविचारी ब्राह्मण, हिंदू रोग ग्रस्त लोक गोर धाटीका त्याग कर ब्राह्मणी हिंदू धर्मके समान गोर बंजारा धर्म की स्थापना करने की कोशीश और प्रचार प्रसार कर समाजको दिशाहीन बनानेका प्रयास कर रहे है। समाजके विद्वानोंने संघटीत होकर इस प्रयास और प्रवृत्तिका डटकर विरोध करने की बहुत बडी आवश्यकता है। अन्यथा हिंदू धर्मकी गुलामी अटल हैं।
जयभारत- जय संविधान
प्रा.ग.ह.राठोड