आदि माता मनु और मानुषीकरण लेखक - श्यामलाल सिंहदेव (निर्मोही)

आदि माता मनु और मानुषीकरण लेखक - श्यामलाल सिंहदेव (निर्मोही)

1) वेदांत और वैदिकोत्तर संस्कृत साहित्य स्वर्गवादी संस्कृतिसे भरा पड़ा हैं, जिसके रचनाकार स्वर्ग लोकसे भूलोकपर आकर भूसूर बने हुये वैवस्त मनु जैसे सुर या आर्य जातिके ब्राह्मण थे। ये स्वर्ग लोकसे (युरोपसे) आये थे, इसलिये अपने पूर्व देश स्वर्गके महिमाके गीत गाने लगे। इतनाही नहीं, उन्होंने धीरे धीरे यहांके लोगोसे भी अपने पूर्व देश स्वर्गकी महिमाके गीत गवाना शुरु कर दिया। निश्‍चयही निर्मोही की यह प्रस्थापना चुनौतीपूर्ण हैं, कि वेदांत, गीता और वैदिकोत्तर संस्कृत साहित्यपर आधारित स्वर्गवादी संस्कृति हिंदु संस्कृति नहीं हैं। क्योंकि यह वेदोंके विपरित हैं। आपने प्रमाण देकर यह सिध्द किया कि, ऋृग्वेद कुर्मी कृषको (विशोें) का काव्य संग्रह हैं, और ऋृग्वेदिक संस्कृतिपर आधारित कृषि संस्कृति ही हिंदु संस्कृति हैं। स्वर्गवादी संस्कृति तो उसपर थोपी गई हैं। पृ. 13-14 2) भारतमें आये आर्योका स्वर्ग लोग हिमाचल स्थित गंधर्व एवं किन्नर प्रदेश था और नरक लोक आजके गंगा यमुनाकें दोआब अर्थात मैदानी क्षेत्रको कहा जाता था। अंधविश्‍वास और अज्ञानपर आधारित स्वर्गवादी संस्कृति शीघ्र ही धाराशायी हो जायेगी और पुन: कर्मवादपर आधारित वैदिक अथवा कृषिक संस्कृतिको प्रस्थापित होनेसे कोई नहीं रोक सकेगा। पृ. 15 3) मनु माता के पिता दक्षके कालसे ही मैथुनी सृष्टि का उद्भव माना जाता हैं। उसके पहले मानवों मे भी पशुओंकी तरह अमैथुनी सृष्टि प्रचलित थी। मैथुनी सृष्टि का मात्र इतनाही अर्थ हैं कि विवाह के द्वारा जो निश्‍चित जोड़े बनायें गये, उनसे उत्पन्न संताने ही मैथुनी कही गई। दक्षने ही शिव और कश्यपको अपनी कन्यायें ब्याहकर निश्‍चित मिथुन बनाये। हिंदु साहित्य कश्यपको सृष्टि कर्ता मानते रहा हैं। इसलिये संपूर्ण सृष्टिको काश्यपी कहा गया हैं। पृ. 35 4) आदि मनु मातृसत्तात्मक परिवारकी नायिका थी। यही कारण था कि उसकी संस्कृति मानव संस्कृति और उसकी संताने मनुष्य कही गयी। यह आज के भारत की आदिवासियों में पाये जानेवाले मातृसत्तात्मक परिवारोंसे भी पुष्ठ होता हैं। ब्रम्हपुत्र के दक्षिण तटपर रहनेवाले खासी तथा गारो, केरल की नायर, दक्षिण भारतकी कादर, इरुला, पुलयन इत्यादि जनजातिया तथा होलयां, मादिगा, वैलेस्ना, इत्यादि अनुसूचित जातियां आज भी मातृसत्तात्मक हैं। इनमें (विशेषकर खासी) वे अपनी वंश परंपरा स्त्री पूर्वजसे मानते हैं। उनका प्रमुख देवता भी स्त्री होती हैं। पुरुषको धार्मिक़ क्रियामें भाग लेनेका अधिकार नहीं होता। खासियोंमे स्त्रियाही पुरोहित और शासक होती हैं। उनमें लड़कीका पैदा होना अवश्यक समझा जाता हैं, न होनेपर लडकी गोद ली जाती हैं। गारो भी अपना पूर्वज स्त्री को मानते हैं। इनमे भी कन्याही संपत्तिकी अधिकारीणी होती हैं। पृ. 37 5) ब्रम्हा का शाब्दिक अर्थ होता हैं जो बढ़े। यह ब्रह्मो धातुसे निष्पन्न हैं, जिसका अर्थ होता हैं बढ़ना। इतिहास इस बातको स्वीकार करता हैं कि कश्यपके वंश का ही सर्वाधिक विस्तार हुआ। कश्यपके वंश वृध्दिके कारणही संपूर्ण सृष्टिको कश्यपी कहा गया। इस आधारपर कश्यपको ब्रम्हा बनने में कोई कठिणाई नहीं हुई। शब्द को भी ब्रम्ह कहा गया हैं। शब्द भी विचारों, कवितायें आदि के रुपमं एक स्थानसे दूसरे स्थान को फैलता हैं, बढ़ते हैं। यहा ब्रम्ह की कल्पना का आधार मनु, पति कश्यप हैं क्योंकि कश्यप की संताने, देव, दानव, दैत्य, मानव आदिको ही ब्रम्हा की संतान के रुपमें प्रस्तुत किया गया हैं। यह कश्यपही ऐतिहासिकता का आध्यात्मिकरण अथवा औपनिषदिकरण अथवा ब्राम्हणीकरण था। ऐसा लगता हैं कि उपनिषदकारोंका उद्देश्य सृष्टि कर्ता कुर्म कश्यपसे श्रेष्ठ एक ऐसे सृष्टि कर्ता का सृजन करना था, जिससे ब्राह्मणों की श्रेष्ठता प्रस्थापित की जा सके। बस उन्होंने ऋृग्वेदके ब्रम्हण के आधारपर सृष्टि कर्ता के रुपमे ब्रम्ह अथवा ब्रम्हा की संकल्पना प्रस्तुत कर दी। ब्रम्ह को इस सृष्टि कर्ता के रुपमें प्रस्तुत किया गया कि वही समस्त जीव जगत का रचियता हैं, अर्थात सबसे बड़ा हैं। इस प्रकार एक ही तत्व से ब्रम्ह, ब्रम्हा, ब्रम्हण, ब्राह्मण सभी श्रेष्ठ बना दिये गये। पृ. 40 6) ब्रम्हाको इसलिये भी सृष्टिकर्ता बनाकर प्रस्तुत किया गया, क्योंकि ब्रम्हाको ब्राह्मण या सुरश्रेष्ठ कहा गया हैं। देवी (आर्य, ब्राह्मणों) के गुरु ब्रहस्पति को भी ब्रम्ह कहा गया हैं। इससे लगता हैं, कि ब्राह्मणों (देवों, आर्यो) ने अपने गुरु ब्रहस्पतिको ब्रम्हा बनाकर सारा श्रेय स्वयं लेना चाहा। ब्रम्हाको इसीलिये गोरा दिखाया जाता हैं। पृ. 41 7) दक्षकी कन्या सती (सची, शतरुपा) रुद्र (शिव) को ब्याही गयी थी। कन्याको पिता के लिये दु:खदायिनी माना गया हैं। इसीलिये उसे दुहिता कहा गया। अर्थात जिसके दूर रहने में ही पिता का हित हैं। अथवा वह पितासे द्रण्य आदि दुहती हैं। इसलिये कन्या पिताके लिये सदैव दु:खदायी मानी गयी। उसके दु:ख का अंत तो कन्याके विवाह द्वारा होता हैं। शिवने दक्ष की कन्या सती को स्वीकार कर उनके दु:ख का अंत किया था। पृ. 43 8) स्वर्ग लोक का प्राचीन नाम सुवर्ग लोक था, जिसका अर्थ होता हैं, सुंदर लोगोंका समुह या वर्ग जहा रहता हैं। समाजमें गोरा रंग सुंदरता का प्रतिक माना जाता रहा हैं। निश्‍चय ही स्वर्ग गोरे लोगोंके देशों को ही कहा गया, जहां के निवासी सुर/आर्य/ देव नामसे जाने जाते थे। एैसे नौ और कहीं कहीं इक्कीस स्वर्गोका उल्लेख मिलता हैं। श्रीमद भागवत के अनुसार भारत कर्म भूमि हैं, शेष आठ सांसारिक स्वर्ग हैं। स्वर्गको हिमालय के उसपार पश्‍चिमोत्तर क्षेत्र में माना जाता हैं। आज के युरोप व रुसव, उत्तरी अमेरिका तथा उत्तरी ध्रुव तक के देश ही सुवर्ग लोक थे, जहांसे आर्य भारत आये थे। यही कारण था कि यहा आये सुरो (बाद के भूसूरों) ने अपने पूर्व देश स्वर्ग लोक की महिमा के गीत गाये। भारत के मुसलमान, इसाई आज भी अपने पूर्व देश के गीत गाते हैं, और नरक लोक मनुष्य लोक (भारत) को घृणास्पद अर्थमें प्रस्तुत किया। पृ. 63 9) ऋृग्वेद निश्‍चय ही कृषक मनुष्यो (वैश्यों) का ही काव्य संग्रह हैं। इसलिये तृतीय ब्राह्मण को लिखना पडा कि ऋृग्वेद से वैश्य पहचाने गये अथवा उनका जन्म हुआ। ऋृग्वेद कृषक मनुष्योंके क्रिया व्यवहारसे भरा पड़ा हैं। ऋृषि सूर्य अग्नि आदि देवोंसे धन-धान्य, खेत, पशु संतान की कामना करते हुये दिखाई देते हैं। इंद्र जिसको बादके साहित्यकारोंने देवराज कहा, वह वास्तवमें देवोंका राजा न होकर कृषक सम्राट हैं। बादमें उसने स्वर्ग लोकपर विजय प्राप्त कर ली थी। गोरा होनेसे लोगोंने उसे देव जातिका मान लिया। पृ.64-65 10) ऐसा लगता हैं कि इडा (कन्या) पशु को भी कहा जाता था। क्योंकि श.ब्रा. ने पशुको भी इडा कहा हैं। संभवत: किसी विशेष गाय को इडा कहते थे। जिसकी यज्ञमें आहुति दी जाती थी, जो पूर्णत: अग्नि को समर्पिृत नहीं की जाती थी वरणा जिसे यजमान और पुरोहित खाते थे। निश्‍चय ही कन्याके साथ ही इडा किसी विशिष्ट गाय या पशुको भी कहा जाता था; जिसे यज्ञमें टुकडे टुकडे करके होताओंके हवाले किया जाता था। संभवत: इडा (गाय) को दूध और घी से संयुक्त होने के कारण ही घृतपदी कहा गया। शतपथ ब्राह्मण मे वर्णित मनु और इड़ा (इला) द्वारा प्रजाके विस्तारको एक अन्य संदर्भ में देखनेसे उसका मूलार्थ पूर्णत: समझमें आ जाता हैं। इड़ा को जहां कुछ विद्वानोंने मनु की बेटी कहा हैं, वहीपर इड़ा का अर्थ ‘जुती हुयी धरती’ (कृषि योग्यभूमि) भी हैं। श. ब्रा. के जल प्रलयकी कहानी के साथ इसे देखा जाये तो मानना पडेगा कि जुती हुयी धरती (कृषि योग्य भूमि) से जो प्रजा (जनता) संयुक्त हुयी, वही मनुकी प्रजा (संतान) कही गयी। जुती हुयी धरती (इडा) से ही तो कृषि आदि के द्वारा गाय आदि पशु, घी, दूध, धन-धान्य और प्रजा की भी वृध्दि होती हैं। इड़ा को शतपथकार ने मनुकी दुहिता (बेटी) कहा हैं। इस संदर्भ में इसे भी देखना होगा। आज भी सिंध पंजाब प्रांत में (क्षेत्रमें) कूड (जुती हुयी धरती) जिसमें बीज बोया जाता हैं) के आधारपर कन्याको कुडी कहा जाता हैं। ऐसी स्थिति मे अर या अरा (हल) से जुती होनेसे इड़ा को मनु की बेटी कहा तो कोई आश्‍चर्य नहीं। तब के मातृप्रधान समाजमें पुत्री द्वाराही वंश परंपरा तथा धन-धान्य की वृध्दि होती थी। यही कारण था कि इड़ा को बेटी कहा गया। शतपथके अनुसार मनु के प्रयत्न से सालभर बाद इड़ा (कृषि योग्य भूमि) प्राप्त हुयी। निश्‍चयही प्रलय मु डूबी पृथ्वी सालभर बाद जल से बाहर निकली, तब माता मनु और पिता कश्यपने उसे कृषि योग्य भूमि बनाकर प्रजा के लिये धन-धान्य पैदाकर सृष्टिको आगे बढ़ाया। यहां इसका अर्थ हैं कि मनुने कृषि योग्य भूमि (धरती) इड़ा से सहयोग कर सृष्टि का विस्तार किया, न कि बेटी (ईडा) से संभोग कर प्रजाको जन्म दिया। पृ. 71 और 74 11) श्रीमद्भागवगीता जिसकी बड़ी ही प्रशंसा की गई हैं, उसी मे भी कृषि को पाप कर्म और स्त्री, शुद्र तथा कृषक पशुपालकों (वैश्यों) को पाप योनि मानती हैं। महाभारतमें कृषकों को ब्रम्ह हत्या करनेवाले के बराबर पापी माना गया हैं। ये सभी कृषि और कृषक विरोधी श्‍लोक भारतीय संस्कृतिके विरुध्द हैं और संभवत: ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र शुंग के कालमें जोड़े गये। ऐसा लगता हैं कि बौध्द जो शाकाहार को महत्व देते थे और सनातनियोंके अश्‍वमेध, पशुमेध, गोमेध जैसे हिंसक यज्ञोंकी आलोचना करते थे, को मात देने के लिये, उन्हें भी हिंसक सिध्द करने के लिये उक्त श्‍लोक दिये गये हैं। उनका तर्क था, कि खेती से किड़े मर जाते हैं। पृ. 89 12) प्राचीन ऋृग्वेदिक या उसके पूर्व के भारतीय (कुर्मी, कृषक) या मनुष्य सूर्य, चांद, सितारे, आग, पाणी, हवा, नदी, पहाड़, पृथ्वी, इंद्र आदिको देवता मानकर उनकी पूजा करते थे। उनके देवोंमे शक्तिशाली देव असमानी थे और चमकते थे। अत: देव से दिव्य धातु निकाली गयी और उसे अर्थ दे दिया गया, कि जो चमके वह देव हैं। इस प्रकार चमकनेवाले को देवता कहने की परंपरा निकल पड़ी। जब कि देवता का अर्थ चमकना नहीं हो सकता, क्योंकि प्राचीन भारतीयोंने न चमकनेवाले मेंढक, उल्लु आदिको भी देवता माना हैं। धन की देवी लक्ष्मी के साथ उल्लु की पूजा इसका प्रमाण हैं। मनुस्मृति के अनुसार उल्लु, बिल्ली, नेवला, निलकंठ, मेंढक, कुत्ता, गोह, कौवा को मारना पाप हैं। वास्तवमें ये कृषकोंके मित्र थे। इसलिये इन्हें मारना पाप कहा गया। इस प्रकार देवताका अर्थ था उपयोगी वस्तुयें। परंतु जब देवताका अर्थ चमकना से जुड गया, तो सुर जो गोरे थे और श्यामवर्णी भारतीयोंके बीच चमकते थे। अत: उन्होंने स्वयं को भी देवता कहना शुरु कर दिया। इस प्रकार सुर (शराबी) और देवता (उपयोगी) दोनो पर्यायवाची बन गये, जिससे अर्थ का अनर्थ आज तक होता चला आ रहा हैं। सुर जब देव बन गये तो वे अपने पूर्व देशोंको (जहांसे वे भारत आये थे) देव लोक, सुर लोक, स्वर्ग लोक कहने लगे। स्वर्ग को पहले सुवर्ग लोक कहा जाता था। अर्थात सुंदर वर्ग (समुह) जहां रहता हैं। निश्‍चयही सुवर्ग का अर्थ गोरे लोगोंके देशसे था। तब के भारतियोंको ऐसे ही इक्कीस स्वर्ग लोकोंका पता था। ये देश कोई और नहीं, आज के ठंडे मुल्कोंके देश थे, जहां श्‍वेतवर्णी लोक रहते थे। ये स्वर्ग भारत के मूलनिवासी कुर्मी, कृषको (द्रविणोंं) के लिये स्वर्ग न थे, वरना उन देशोंसे आये हुये सुरों के लिए उनके पूर्व देश स्वर्ग थे, जो भूलोक (भारत) में आकर भूसूर ब्राह्मण हो गये थे। भूसूर ब्राह्मणों के वर्गको कहा जाता था। इस प्रकार आज के गोरे ब्राह्मणोंमें सुरों को खोजा जा सकता हैं। अथर्ववेद में शायद इसीलिए जहां चारों वर्णोंका उल्लेख किया गया हैं। वहां ब्राह्मणों के लिए देव शब्द आया हैं। तैत्तिरिय ब्राह्मण भी देव (सुर) जाति से ब्राह्मणोंके उत्पत्ति की बात करती हैं। यहां ध्यान रखना होगा कि सभी ब्राह्मण भूसूर नहीं थे, क्योंकि यहां पहले से ही कृषक/द्रविणं जातीय ब्राह्मण/ब्रम्हण/पुरोहित रहते थे, जिनमेें गौरांग भूसूर ब्राह्मणोंको भी स्थान दे दिया गया। यह सच हैं, कि कालांतरमे गौरांग ब्राह्मणोंकाही वर्चस्व स्थापित होता चला गया। आर्य भी भूसूरों को ही कहा गया था। यहा आनेसे पूर्व न तो वे सुर थे, और नहीं उनके देश स्वर्ग। यहां आनेपर भारतीयोंने उन्हें घृणास्पद (शराबी) अर्थ में सुर कहा, तो उन्होंने अपने को देव और अपने पूर्व देशोेंको देव लोक या सुर लोक (स्वर्ग) बनाकर श्रेष्ठता प्रदान कर दी। इस प्रकार गोरे लोगोंका देश (स्वर्ग) भी देव लोक (सूर्य, चांद, सितारों आदि का स्थान) का पर्याय बन गया। परंतु (शराबियों) सुरों के देश को देव लोक कहना सूर्य, चांद, पाणी, अग्नि, वायु आदि देवताओंका अपमान करना हैं। यह तो समाजको धोखा देना हैं। सुरोंने सूर्य, चांद, हवा, पाणी आदि मानव के देवताओं समान सम्मान पाने के लिए ही अपने को देव व अपने पूर्व देशों को देव लोक कहना शुरु किया। सुरा पीनेे से उन्हें सुर और उनके देशोंको सुर लोक (शराबियोंका) देश और गोरा होने से उनके देश को सुवर्ग या स्वर्ग लोक कहना तो उचित ही हैं। परंतु उसे देव लोक कहना देवताओंका घोर अपमान हैं। क्योंकि देवताका अपना प्रथक अर्थ हैं। पृ. 140/41 13) स्वर्ग में खेती का न होना और बाग बगीचोंका होना, इस सत्य को उदघाटित करता हैं कि उनका जीवन जंगली, असभ्य था। वे लोक अविकसित थे। निश्‍चय ही आर्य का मूल अर्थ जंगली था। इसीलिये उनके देशोंको भोगभूमि कहा गया था। कामधेनु (गाय) के होते हुये भी स्वर्ग में दूध और दूध से बनी चीजोंका अभाव वहां के इस सत्यकी ओर संकेत करता है कि तब गौरांग देशोंके लोक गायों से दूध निकालना या उन्हें पालना भी नहीं जानते थे। संभवत: तब गाय वहां जंगली पशु थी, जिनका शिकार कर वे भोजन के काम में लाते थे। इसीलिये उसे गोमेध यज्ञ नाम दिया। इतना ही नहीं घोडोंकी बलि को वे अश्‍वमेध और पशुओंकी बलिको पशुमेध यज्ञ कहते थे। निश्‍चयही ये पशु भोजसे भिन्न न थे, क्योंकि 400-500 पशु एक एक यज्ञमें काटे जाते थे। सुरों के ये यज्ञ भारत में बादमें बौध्दों द्वारा बंद करा दिये गये। पृ. 152 14) वेदोंमे अर्य शब्द कृषक के लिये प्रयुक्त हुआ हैं। कृषक की श्रेष्ठता के कारण ही अर्य के आधारपर बाद को आर्य शब्दका अर्थ भी श्रेष्ठ किया जाने लगा। ऋृग्वेद के ‘‘कृण्वन्तो विश्‍वमार्यम’’ मुलार्थ हैं ‘विश्‍व को अर्य (कृषक) बनाओ’ न कि आर्य बनाओं। क्योंकि वेद की शब्दावलि मे ’विश्‍वम+अर्यम भी संभव हैं। इस प्रकार विश्‍वम+अर्यम से विश्‍वमार्यम हो गया। पुरे मंत्र के अ र् को देखनेसे भी उसका संबंध कृषि से दिखता हैं। पुरे मंत्र के अर्थ इस प्रकार हैं। इंद्र के महत्व को बढ़ाते हुए, उसको गतिशील करते हुए, शत्रुओंका नाश कर (हे सोम) विश्‍व को अर्यत्व प्रदान करो। ऋृग्वेदिक इंद्र कृषक सम्राट था ( देवराज तो बादमें बना) अत: उसके महत्वको बढ़ाना अर्थात कृषि के महत्व को बढ़ाना ही कृण्वन्तो विश्‍वमार्यम का सार्थक अर्थ हैं। निश्‍चय ही ऋृग्वेदिक ऋृषिजीवी विश्‍वका निर्माण करना चाहते थे। क्योंकि तब कृषि ही श्रेष्ठताकी एकमात्र पहचान थी। इस प्रकार कृण्वन्तो विश्‍वमार्यम का ऋृग्वेदिक उदघोष भी विश्‍व के मानुषीकरण/कौर्मीकरण/कृषकीकरण/वैश्‍वीकरण का ही संदेश देता हुआ दिखाई देता हैं। निश्‍चय ही विश्‍व को शिक्षित करने, उसे कर्मजीवी बनाने, खुशहाल करनेका श्रेय मनु के वंशजोको जाता हैं, जिन्होंने कृषि का आविष्कार कर विश्‍व के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। विश्‍व के विद्वान भी इस सत्यकों स्वीकार करते हैं कि ज्ञान की सभ्यताकी पहली किरण भारतसे विश्‍वमें फैली। संभवत: भारतको जगत का गुरु कहा। ऋृग्वेद न तो आर्योका ग्रंथ हैं और न ही वे देवता आर्योके थे। ऋृग्वेद और वे देवता तो विशो/कृषको/कुर्मीओ (द्रविड़ो) के ग्रंथ और उनके देवता थे। इंद्र के लिये तो ‘कृष्टि नाम राजा’ (कृषक सम्राट) तथा तुविकुर्मी (महाकुर्मी) जैसे शब्द अनेको बार ऋृग्वेदमें आये हैं। (यह हम देख चुके हैं कि) ऋृग्वेदिक विशोंका सर्व श्रेष्ठ देवता इंद्र हैं, जिसके लिये सबसे अधिक मंत्र लिखे गये हैं। इससे यह मानना पडेगा कि भारतीय मानव अर्थात कुर्मी कृषक ही अपनी कृषिक अथवा कौर्मी संस्कृति लेकर सीरिया पहुचे थे। पृ. 163-64 15) प्राचीन कालमे काम सुख का स्थान भूख से उँचा था। काम सुख जिन मानव अंगोसे प्राप्त होता था, प्राचीन मानव ने उन्हें ‘‘लाड’’ (लिंग) और भग (योनि) का नाम दिया था। ये शब्द आज भी संपूर्ण भारतमें उसी रुपमें प्रचलित हैं। ये आदिम शब्द हैं जो अपना स्वरुप बनाये हुए हैं। इन लाड और भाग को सृष्टि कर्ता भी कहे तो कोई आश्‍चर्य नहीं। यही कारण हैं, कि सर्व प्रथम शिव (कल्याणकारी) लाड (लिंग) को देवता मानकर उसकी आराधना शुरु हुई। देवता का अर्थ चमकना न था जैसा कि बाद को संस्कृताचार्योने दिव (चमकना) धातुसे देवता शब्द की उत्पत्ति बताई। उसका अर्थ तो कल्याणकारी था। यही कारण था कि प्राचीन ऋृग्वैदिक कृषकोने सूर्य, हवा, पाणी, भू, अग्नि, इंद्र, मेंढक, उल्लू आदि के लिये स्तुती गीत लिखे। आज की शिव पूजा ’लाड’ व ’भग’ पूजा के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं। जब सुर या आर्योका भारतीयोंसे संपर्क हुआ तो उन्हें भी यह शब्द अच्छा लगा और जब वे अपने देशों को वापस गये तो जीवन के चरम सुख के प्रतिक इस लाड शब्द को भी अपने साथ लेते गये। वहा पहुंचकर यह लाड अंग्रेजीका लार्ड (ङेीव) हो गया। लाड की कृति (सृष्टि) होने से इसीलिए प्राचीन भारतीयोंने संतानोंको लाडका लाडकी कहा जो कालांतरमे लडका व लडकी के रुपमें बदल गये। लाड को लौडा भी कहते हैं, इसीलिए कही कही तो लोग संतानोंको सिधे लौडा-लौडी (पुत्र-पुत्री) ही कहते हैं। उनके लिए ये शब्द अश्‍लील नहीं हैं। हमने भी विज्ञान की भाषामे बिना उनके श्‍लील या अश्‍लील का विचार किये उन्हें उनके मूल रुपमे ही रखा हैं। यह लाड शब्द जब पाश्‍चात्य जगतमें ङेीव के रुपमे पहुचा तो अंग्रेजोने भरी लाडा-लाडी (लौडा-लौडी)ङरवर-ङरवू कहना शुरु किया जो उच्चारणमें वहा लेडा-लेडी हो गया। निश्‍चय ही भारतीयोंका लाड (लिंग) और इंग्रजीका ङेीव दोनों एक ही हैं। अध्यात्मिकरण की प्रक्रियामे जिसका अर्थ रुपांतरण हो गया। आश्‍चर्य तो यह हैं कि अर्थ रुपांतरण के बाद यह शब्द सृष्टि कर्ता और जीवन का चरम लक्ष्य बना हुआ हैं। भारतमे भी आज जिसे भगवान, हरि, ईश्‍वर कहते हैं वह लाड का ही पर्याय रहा हैं। भगवान का शाब्दिक अर्थ होता हैं भग (योनि) का चालक जैसे गाडी के चालक को गाडीवान कहते हैं। अर्थात भगवान लाड का ही दूसरा नाम हैं। भगवान के पर्यायवाची के रुपमे, जितने भी शब्द यहां प्रचलित हैं, उनका संबंध भी किसी न किसी रुपमे लाडसे रहा हैं। उदाहरण के लिये हरि शब्द को ही ले। यह शब्द भी लाड का ही पर्याय हैं। सभी ग्रामीण भारतीय पशुओंके गर्भधान के लिये हरि (हरी) करा लावों ऐसा वाक्य प्रयोग करते हैं। इसका सीधा सा अर्थ हैं कि मादा पशु को (भग) को नर पशु के लाड (भगवान) से मिला लावो। इसी प्रकार ईश्‍वर शब्द भी असुर से बना हैं, जिसका अर्थ था शक्तिवान, प्राणवान, संपत्तिवान, ऐश्‍वर्य से युक्त। ब्रम्हा भी सृष्टि को बढानेवाले अर्थात अधिक वंश विस्तार करनेवाले कश्यप को कहा गया। निश्‍चय ही इसका संबंध प्रजनन क्षमता (लाड की शक्ति) से था। संतान को जन्म देने में सहयोग के कारण उसे ही सृष्टि कर्ता कहा। पृ. 166-68 15) सेंट जैवियर कॉलेज बंबई के फादर हेरास ने लिखा हैं, कि ड्रड वास्तवमें भारत के पश्‍चिमी तटसे अफ्रिका और भूमध्य सागर के तटसे होते हुये स्पेन और पोर्तुगाल गये और वहांसे फ्रांस और ब्रिटेन में जाकर बस गये। फादर हेरास ने भी ड्रईड और द्रविड को एक माना हैं। आपने रोमन राज्यपालके ग्रंथ के हवाले से लिखा हैं कि, ब्रिटेनमें रहनेवाले ये लोग सावले रंग के थे और उनके बाल घुंगराले थे। इससे स्पष्ट होता हैं कि ड्रईड आर्य जातिके ब्राह्मण न होकर द्रविड (कुर्मी/कृषक/विश जातीय ब्राह्मण थे, जो भारतीय ज्ञान लेकर वहां पहुंचे थे। इतिहासकार हुबर्ट ने लिखा हैं कि आयरलंड की भाषामें इन लोगोंको ड्रई अथवा ड्रआड और वेल्स में ड्र कहां जाता हैं, जिसका अर्थ समझदार या विद्वान होता हैं। इन विविध शब्दोंको देखनेसे कोई भी निष्कर्ष निकाल सकता है कि, वे ड्रविड (द्रविड़) के ही विकृत रुप हैं। एल. एल. बाडेल ने माना हैं, कि भारत के पणि/फणि ही (फिनिशियन्स) सागर पार सर्वत्र जा बसे। ये फणि नागवंशीय थे और पण-(सिक्के का प्रतिक) का उपयोग करनेसे उन्हें पणि भी कहा गया। उन्हें ही द्रव्य (द्रविड़) के आधारपर अर्थात धनी होने से द्रविड भी कहा गया। ऐसे ही द्रविड़ ब्राह्मण (पुरोहित) इंग्लंड आदि देशोंमें ड्रविड कहे गये। पृ.182-83 16) स्वर्ग लोको की तरह पाताल लोक भी काल्पनिक जगत भी वस्तु न होकर वास्तविक जगत की वस्तु थी। जहां पर पृथ्वी (मनुष्य लोक भारत और उसके पूर्वी पश्‍चिमी क्षेत्र) के उपरी देश स्वर्ग लोक के अंतर्गत आते थे। वहीपर पृथ्वीके दक्षिणी अथवा नीचले देशोंको पाताल लोक कहा जाता था। पृथ्वीलोक, भूलोक, मनुष्य लोक तब मात्र भारत और उसके पूर्वी पश्‍चिमी देशोंको कहते थे, जहांपर सर्व प्रथम कृषि का आविष्कार और प्रसार हुआ था। पृथु महाराज (कृषि आविष्कर्ता) का राज्य क्षेत्र ही पृथ्वी और मनु मां के नामपर वही मनुष्यलोक कहा जाता था। उसमें किस प्रकार कृषि के विस्तार के साथ संपूर्ण मंदिनी (भूमंडल) आ गया, यह हम देख चुके हैं। इस प्रकार भारत अरब, इराक के दक्षिणी क्षेत्र अफ्रिकाके उत्तरी देश, अमेरिकाके मेक्सीको, वेस्ट इंडीज, निकारा गुवा, जैसे क्षेत्र, पूर्व के बर्मा, थाईलँड, दक्षिणी पश्‍चिमी चीन, लावोस, व्हिएतनाम आदिके क्षेत्र में सर्व प्रथम मनुष्य लोक (भारत) की संस्कृति (कृषिक या कौर्मि संस्कृति) पहुंची और ये ही क्षेत्र (आज की पृथ्वीके मध्यक्षेत्र) मनुष्यलोक/भूलोक/पृथ्वीलोक कहे गये। इसके उत्तर के शीत प्रधान गोरे या श्‍वेतवर्णी लोगों के क्षेत्र (उत्तरी ध्रुव तक के प्रदेश) सुवर्ग लोक (स्वर्ग) तथा दक्षिण के प्रदेश पाताल लोक के अंतर्गत आते थे। जिस समय यह विभाजन किया गया, उस समय मनुष्य लोक में ही कृषि पशुपालन जैसे कर्म प्रचलित थे। शेष अन्य लोगोंमे कृषि जैसे कर्मोका अभाव था। यही कारण था कि भारत सहित पृथ्वी लोक को कर्मभूमि तथा शेष को भोग भूमि कहा जाता था। अर्थात तब शेष लोको (स्वर्ग और पाताल) के निवासियोंका जीवन प्रकृतिपर निर्भर था। वे कंद-मूल, फल तथा पशुओंके शिकार पर निर्भर थे। अत: उन्हें जंगली, असभ्य, असंस्कृत, अकर्मी कहना अनुचित न होगा। पृ. 188 17) विश्‍व का प्राचीन ग्रंथ ऋृग्वेद कुर्मी कृषकोंके गीत संग्रहके अलावा कुछ नहीं हैं। इसमें कुर्मी कृषको की संघर्ष गाथा भरी पडी हैं। यही कारण हैं, कि तैत्तिरिय ब्राह्मणने ऋृग्वेद से वैश्यों (कृषकोंकी) उत्पत्ति बतायी। ऋृग्वेदिक ऋृषि खेत और खेती (कृषि) पशुसंतान, धन, संपत्ति, सुख, शांति, सुरक्षा, शक्ति के लिये ही देवताओं की आराधना करते थे। उनके देवता भी काल्पनिक देवता न होकर ठोस प्रत्यक्ष देवता थे, जो मानव जीवन सुखमय करनेमे सहयोगी थे। सूर्य, चांद, सितारे, आग, पाणी, हवा, पृथ्वी, नदी, पहाड, पेड, पौधे उनके प्रत्यक्ष देवता थे। सांप, उल्लू, मेंढक, बिल्ली, भी उनके आराध्य देवता थे। वेदोंमें मेंढक देवताके लिये मंत्र हैं। कृषक सम्राट महाकुर्मी इंद्र ऋृग्वेदका सबसे बड़ा देवता हैं। उसके लिए ऋृग्वेदमें सबसे अधिक 250 मंत्र लिखे गये हैं। ये देवता आज भी हैं। इसीिए उन्हें अमर कहा गया हैं। कृषि तथा मानव जीवन में उपयोगी होने अथवा कुछ देनेसे मानवोंने उन्हें दवता कहा। ऋृग्वेद ही नहीं तो अन्य वेदोंमे भी इनकी आराधनामें मंत्र लिखे गये हैं। ऋृग्वेद के प्रथम तथा दसम मंडल (जो प्रक्षिप्त) हैं को छोडकर कही भी ईश्‍वर व मोक्ष आदि स्वर्गवादी तत्वों के लिये कोई भी मंत्र नहीं हैं। पृ. 238

G H Rathod

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