भारतीय स्वाधिनताका संक्षिप्त इतिहास

इसापूर्व 2500 के आगेपीछे भारतमें आज के सिंध प्रांत के मोहेंजोदडो और हडप्पा शहरमें यहांके मुलनिवासीयोंकी सिंधू नदी के किनारेपर श्रमण, नाग एवं द्रविड नामक संस्कृति और सभ्यता परमोच्च शिखरपर विकसित और समृध्द थी।

इसापूर्व 2500 के आगेपीछे भारतमें आज के सिंध प्रांत के मोहेंजोदडो और हडप्पा शहरमें यहांके मुलनिवासीयोंकी सिंधू नदी के किनारेपर श्रमण, नाग एवं द्रविड नामक संस्कृति और सभ्यता परमोच्च शिखरपर विकसित और समृध्द थी।

इसापूर्व 3250 से 1500 के लगभग भारतमें युरेशियन (आर्य) ब्राह्मणोंका आगमन हुआ। उनका शासनकाल तथागत बुध्द की क्रांतितक रहा। बुध्दका और अनुयायिओंका शासन इ. पू. 530 से इ.पू. 185 तक रहा। उसके बाद फिरसे आर्य ब्राह्मणोंने देशपर कब्जा कर लिया। मुलनिवासीओंकी इ.पू. 5000 की जो श्रमण, नाग, द्रविड एवं सिंधू संस्कृति थी। वह तथागत बुध्द के पूर्व कैसे नष्ट हुई, इसका अब तक कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं है। किन्तु बुध्दपूर्व आर्य ब्राह्मणोंने लगभग एक हजार साल तक शासन किया। उनका और यहांके मुलनिवासीयोंका युध्द देव-दानव एवं सुर-असूर नामसे हुआ, यह सच्चाई इतिहास बताता है। यहां के मुलनिवासी तात्पर्य दानव-राक्षस एवं असूरोंका और उनकी संस्कृति और सभ्यताका विध्वंश आर्य ब्राह्मणोंने किया या कोई नैसर्गिक घटनासे हुआ इस बारेमें विद्वानोंमें मतभेद दिखाई देते है। किन्तु रामायण महाभारतमें जो लढाईया बताई जाती है, वह आर्य-मुलनिवासिओंके बीच की ही लड़ाईया कही जाती है। अत: मुलनिवासी और उनकी श्रमण, नाग, द्रविड एवंं सिंधू संस्कृतिका विनाश ब्राह्मणोंने ही किया होगा यह तर्क अधिक तर्कशुध्द है।

इन आर्य ब्राह्मणोंने दुबारा और इसापूर्व 185 से तो इसवीसन 325 तक राज किया। इ.स. 325 के पश्‍चात अपने देशपर ग्रीक, सिरियन, पर्शियन, असिरियन, अबिसिनी, हब्सी, अयासी, मंगोल, तुर्क, फारसी, शक, कुशान, हुण आदी लोगोंने आक्रमण करके इ.स. 711 अन्ततक राज किया। इसके बाद निम्न-प्रकारसे विभिन्न राजाओंका शासनकाल रहा। इ.स. 712 में भारतके सिंध प्रांतपर अरबोंने विजय पाई। इ.स. 997 से 1030 तक महमूद गजनीद्वारा आक्रमण हुए। इ.स. 1192 में महमद घोरी की पृथ्वीराजपर विजय इ.स. 1206 में कुतुबद्दिन ऐबकद्वारा गुलाम वंश की स्थापना इ.स. 1296 से 1316 तक अल्लाउद्दीन खिलजीका शासन इ.स. 1325 से 1351 तक मोहम्मदबिन तुगलघ का शासनकाल। इ.स. 1414-1450 तक सैय्यद वंश का शासनकाल। इ.स. 1451-1526 तक बोधीवंश का शासनकाल। इ.स. 1526 को बाबरने मुगल वंशके शासनकी नींव डाली।

इ.स. 1498 में अमेरिकासे वास्कोदिगामा भारत आये। उनके पश्‍चात 1596 में डच लोग भारत आये। 1609 में अंग्रेज लोग मुगल शासक जहांगीरके दरबारमें आ पहुंचे। बादमें अंग्रेजोने 1619 में सुरत, आग्रा, अहमदाबाद, भंडोच आदी स्थानपर कब्जा कर लिया। इसके पश्‍चात फ्रेंच लोग 1668 में भारतमें आये और उन्होंने 1760 तक राज किया। अंग्रेजोंने 1947 तक भारतपर राज किया। बीच के समय में मराठा राजा का खुन करके 1713 में पेशवाईकी स्थापना की। पेशवाईका शासन समय 1713 से 1817 अंत तक निम्न प्रकारसे रहा।

इ.स. 1713 से 1720 तक बाळाजी विश्‍वनाथ (पेशवा)

इ.स. 1721 से 1740 तक बाजीराव बल्लाळ

इ.स. 1741 से 1761 तक बाळाजी बाजीराव उर्फ नानासाहेब

इ.स. 1762 से 1772 तक माधवराव प्रथम

इ.स. 1773 से 1774 तक आयुष्यमती गंगुबाई नारायणराव

इ.स. 1774 से 1795 तक सवाई माधवराव

इ.स. 1795 से 1817 अंततक बाजीराव दुसरा।

पेशवा का सरसेनापती बापुराव गोखले का बडा लडका गोविंद बाबा पेशवा यह ब्रिटिशोंके युध्दमें 1 जानेवारी 1818 को मारा गया और पुरे देशमें अंग्रेजोंका शासन शुरु हुआ। डच एवं अंग्रेजोंके साथही साथ भारतमें पोर्तुगाली, स्पॅनिश, फ्रान्सीसी भी भारतमें आ बसे थे और उन्होंने भी शासन किया था। अंग्रेजों के साथ उनका भी बार बार संघर्ष हुआ करता था।

युरेशी आर्य ब्राह्मणोंने मुलनिवासी भारतीयोंसे संघर्ष करके उनको दुर्बल, गुलाम और शस्त्र, साधन संपत्तीहीन बनाने के कारण विदेशी आक्रमकोंका कड़ा मुकाबला करनेवाला कोई समाज भारतमें शेष न रहनेसे अन्य विदेशीओंने युरेशी ब्राह्मणोंको भी संघर्ष में हराकर उनको गुलाम बना लिया। प्रथम मुलनिवासी, युरेशी ब्राह्मणोंके गुलाम तो थे ही; विदेशी आक्रमकोंका विजय होने के कारण अब मुलनिवासी और ब्राह्मण भी विदेशीयोंके गुलाम बन गये। किन्तु युरेशी ब्राह्मणोंने सभी विदेशी राजाओं के साथ साझीदारी रखकर और साथही मुलनिवासीओंका भी शोषण करके आरामसे जिंदगी बीताते रहे। सभी विदेशी राजाओंके शासन एवं प्रशासनमें युुरेशी ब्राह्मणोंकी हिस्सेदारी रहने के कारण ब्राह्मणोंने किसी भी राजा एवं शासक से संघर्ष नहीं किया। देश की स्वतंत्राके लिये भी कोई आंदोलन नहीं चलाया। शासन प्रशासनमें हिस्सा लेकर उनके साथ मिलकर दोनों विदेशी मतलब ब्राह्मणोंको गुलाम बनानेवाले शासकोंने और ब्राह्मणोंने मुलनिवासीओंका शोषण किया।इ.स. 712 के पहले की युरेशियन ब्राह्मणोंकी किससे कितनी हिस्सेदारी थी, इसके आकडे उपलब्ध नहीं है। किन्तु मुगलोके शासनकालसे अंग्रेजोंके आगमन तक के आकडे उपलब्ध है।

मुस्लिम राजा अकबरके समय में ब्राह्मणोंकी हिस्सेदारी 16%

मुस्लिम राजा शहाजहानके समय में ब्राह्मणोंकी हिस्सेदारी 24%

मुस्लिम राजा औरंगजेबके समय में ब्राह्मणोंकी हिस्सेदारी 33%

मुस्लिम राजा बाबरके समय में ब्राह्मणोंकी हिस्सेदारी 40%, और अंग्रेजों के शासनकाल में भारतमें लगभग सभी ब्राह्मण अधिकारी और कुल कर्मचारी 13,946 में से 9712 केवल ब्राह्मण थे। 4234 अन्य कर्मचारी थे।

उपर दर्शित सभी कारणोंसे युरेशियन ब्राह्मणोंको भारतीय स्वाधिनताकी कोई आवश्यकतायें ही न थी। युरेशी ब्राह्मण अंग्रेजोंसे कहते थे, कि ‘आपही इस देश के राजा, शासक, प्रशासक बने रहो। भारत देश छोडकर मत जाओं। केवल हमें हमारी संख्या के अनुपातमें शासन-प्रशासन, साधन-संपत्ती और चुनाव क्षेत्रमें हिस्सेदारी देते रहो। हमारी संस्कृति, सभ्यता, धर्म एवं धार्मिक कर्मकांडोमें कोई हस्तक्षेप एवं रुकावट मत डालो और हमारे ब्राह्मणोंके विेशेष अधिकारोंको संरक्षण दो।

किन्तु अंग्रेज शासकोंने ब्राह्मणोंके अलावा शेष सभी समाजको विश्‍व के साथ जोडना चाहा। इस हेतुसे अंग्रेजोंने भारतीय मुलनिवासिओंके लिये प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा तक व्यवस्था की और उनको उद्योग, व्यापार एवं नौकरी आदी सभी क्षेत्रोंमे उचित स्थान दिया। ब्राह्मणोंका मनुस्मृति का कानून नष्ट करके उसके स्थानपर भारतीय कानून का निर्माण करके सभी के लिये समान कानून बनाये। इतना ही नहीं तो ब्राह्मणोंके विशेष अधिकार खतम करके गुनहगार ब्राह्मणोंको फांसी की शिक्षा दी। सती प्रथा, अछूतापण, सार्वजनिक क्षेत्र प्रवेश आदी के कानून बनाये। इन सभी मुलनिवासीयोंकी कल्याणकारक और समतामुलक योजनाओंसे ब्राह्मण लोग घबरा गये। उनको लगा, कि, जिन लोगोंको हमने हजारों सालोंसे गुलाम बना रखा था, वे कल हमारे मालक भी बन सकते हैं। हमपर गुलाम बनने की या शोषित बनने की बारी आ सकती है। अत: उन्होंने अंग्रेजोंको देश से भगाने के विचार से उनके खिलाफ आंदोलन छेड दिया। उस समय अंग्रेजोंकी भारतमें ग्यारह लाख की जनसंख्या थी। भारत की जनसंख्या 22 कोटी थी। अंग्रेजोंका भारतमें आये फ्रान्सीसियोंके साथ कुछ हदतक संघर्ष जारी था। उधर जापान के साथ भी युध्द चालू था। भारतमें भी सत्ता प्राप्ती के लिये जनआंदोलनका दबाव बढते जा रहा था। ऐसी हालातमें अंग्रेजोंने भारत छोडनेका निर्णय ले लिया। किन्तु भारत छोड़नेके पहले वे भारत की सत्ता की तीन लोगोंको मतलब समाजको देने का निर्णय लिया था। एक हिस्सा सवर्ण हिंदुको, दुसरा मुस्लिम समाजको, और तीसरा हिस्सा सभी अछूत एवं पीछडे भारतीयोकों। किन्तु भारत के सर्वमान्य नेता बाल गंगाधर तिलक, मोहनदास गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरु, डॉ. राजेंद्रप्रसाद और सरदार वल्लभभाई पटेल को इस तरह की सत्ता का विभाजन मान्य न था। वे हिंदू के नामसे अखंड भारतकी सत्ता केवल हिंंदुओंकेही हाथ में रखना चाहते थे। देश के टुकडे करके मुस्लिम एवं दलितोंको पाकिस्तान और दलीतस्तान की सत्ता नहीं देना चाहते थे।

इधर अंग्रेज सरकार भारतीय सत्ता का हस्तांतरण भारतीय तीन समाज हिंदू, मुस्लिम और दलीतोंमें बटवारा करनेपर दृढ थी। मोहनदास गांधी किसी भी किमतपर देश का विभाजन नहीं चाहते थे।

मार्शल लॉर्ड वेव्हलके भारतसे ब्रिटिश लौटनेपर प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटलीकी संमती और सलाह से भारत के अंतिम व्हायसराय लॉर्ड माऊंटबॅटन पत्नीसहित भारत आये। लॉर्ड माऊंटबॅटनकी पत्नीने यह कहा की, नेहरुजी और पटेलजी आप लोग बहुत बुढे होते जा रहे हैं, यदि भारतीय सत्ता जल्द तुम्हारे हाथ आई तो तुम देश के लिये कुछ कर दिखायेंगे। यदि विलंब हुआ तो तुम्हारी आयु व्यर्थ चली जायेगी। इस आपसी बयान से नेहरु और पटेल पाकिस्तानको सत्ता हस्तांतरण के शर्तपर सत्ता लेने के लिये तयार हो गये। अंतमे माऊंटबॅटनने गांधीजीको बुलाकर समझाया की, नेहरु-पटेल जो तुम्हारे दाहिने हाथ है, वे सत्ता हस्तांतरित कर लेने के लिये तयार है। आपका क्या कहना है? इस सवालपर गांधीने कहा, कि यदि आप अछूतोंको सत्ता न देने के लिये तयार है,तो, मैं भी सत्ता हस्तांतरित कर लेने के लिये तयार हुं। लॉर्ड माऊंटबॅटन सत्ता हस्तांतरित करने के बहुतही जल्दीमें थे। अत: उन्होंने भी अछूतोकी बली चढाकर सत्ता का हस्तांतरण केवल पाकिस्तानके विभाजनकी शर्तपर भारत को कर दी। इस तरह भारत-पाकिस्तान दोनों सत्ताधिश बन गये और बहुजन सत्तासे आजतक वंचित है। केवल एकमात्र गांधीकी चालाखीसे सभी पीछडे समाजका सत्यानाश हो गया है।

भारतको सत्ता का हस्तांतरण होने के पूर्व भारतीय जनआंदोलनकीं तीव्रता और भावनाको, साथही ब्रिटिश शासनकी कुछ समस्यायें ध्यानमें रखकर ब्रिटिश सरकारका साऊथ ब्युरो (सायमन) कमिशन नामक एक प्रतिनिधी मंडल भारत को सत्ता हस्तांतरित करने के सिलसिलेमें सन 1918 को आया था। इस प्रतिनिधी मंडल के सामने, कांग्रेस (गांधी, नेहरु, प्रसाद, पटेल) आदिनें हिंदुके लिये, भास्करराव जाधवने मराठा, कुणबी तात्पर्य, ओबीसी के लिये, बॅ. जीनाने मुस्लिमोंके लिये और डॉ. आंबेडकरने अनुसूचित जाति-जमाति के लिये निवेदन के द्वारा कुछ मांगे कमिशन के सामने पेश की थी। इसके तुरंत बाद ब्रिटिश शासन ने 1919 में पहिला भारतीय अधिनियम बनाया। कांग्रेसने (होमरुल) मतलब ब्राह्मण सभा ने ब्रिटिशों को शासन प्रशासनमें उचित हिस्सा मांगकर भारत देश न छोडकर जाने की (मतलब उनका राजा, मालक) बने रहने की मांग कमिशनसे की थी। भास्करराव जाधवने मराठा एवं कुणबीके लिये कुछ अधिकार मांगे थे। बॅ. जीनाने मुस्लिमोंके लिये स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र की मांग की थी। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरने पीछडे वर्ग के लिये प्रथक निर्वाचन क्षेत्र, अपनेही समाजके व्यक्तिको अपने समाज का प्रतिनिधी चुनकर लाने का अधिकार (दुबारा मतदान) का अधिकार, प्रौढ मताधिकार और जिल्हा, प्रांत, तथा केंद्र के विधान मंडलोमें पर्याप्त प्रतिनिधित्वका (अवर्शिीींंश ीशिीशीशपींरींळेप) का अधिकार, ऐसी चार मांगे की थी।

ब्रिटिश शासनमें बॅ. जीनाकी, सिख और इसाईकी प्रथक निर्वाचन क्षेत्रकी मांगोको शीघ्र मान्यता दे दी। 17 अगस्त 1932 को डॉ. आंबेडकरकी चार मांगोको भी मान्यता दे दी थी। इसप्रकार भारतको सत्ता हस्तांतरणकी प्रक्रिया अंग्रेजोंने सन 1918 से ही कर दी थी। डॉ. आंबेडकरकी जो चार मांगे मंजूर की गई थी, इसे सांप्रदायिक निर्णय (र्उेााीपरश्र रुरीव)   एवं (ऊेाळपळेप डींर्रीीीं)  की आजादी इस नामसे पहचाना जाता है।

अंग्रेजोंने सत्ता का हस्तांतरण हिंदु, मुस्लिम और अछूतोकों इसप्रकार तीनों हिस्सोंमें बाटनेका निर्णय लिया था। अत: सत्ता हस्तांतरणके बाद शासन प्रशासन के लिये घटना निर्मितीका आदेश भी दे दिया। अंग्रेजोंकी ओरसे भारतको संविधान निर्माण का अवसर सर्वप्रथम अंग्रेज अधिकारी लॉर्ड बर्कनहेड की ओरसे सन 1927 में दिया गया था। किन्तु इस समितिके द्वारा जो संविधान तयार किया गया था, उसे भारतीय लोगोंने स्वीकार नहीं किया। दुसरा अवसर 1930 में गोलमेज परिषदमें दिया गया था। इसके अनुसार जो संविधान बनाया गया था उसे भी नकारा गया। तीसरा अवसर सन 1946 में सप्रू नामक समितिको दिया गया था। पर इस संविधानको भी स्वीकार नहीं किया गया। संविधान निर्माण करने की इस अकार्यक्षमता को देखकर, उस समयके इंग्लंड के प्रधानमंत्री जो कान्झरवेटीव्ह पक्ष के नेता थे, उन्होंने भारतको और एक हजार सालतक सत्ता न देने की प्रतिज्ञा की या निर्णय लिया था। किन्तु अगले इंग्लंडके लोकसभा के चुनावमें उसके पक्षकी हार हुई। उसके स्थानपर लेबरपार्टीके नेता क्लेमेंट एटली की जीत हुई। क्लेमेंट एटली यह उदारमतवादी नेता थे। अत: उसने सभामें लोगोंको संविधान सभा का चुनाव लेकर उस सभामें चुनकर आनेवाले प्रतिनिधीओंकी समिति के द्वारा संविधान निर्माण की अनुमती दी। इस अनुमती के पश्‍चात भारतमें संविधान चुनाव लिया गया। किन्तु इस लोकसभा में पीछडे समाज को प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। डॉ. आंबेडकर चुनाव लडाना चाहते थे, किन्तु गांधी, नेहरु, प्रसाद आदिने मिलकर डॉ. आंबेडकरको चुनाव का अवसर नहीं मिलने दिया। उन्होंने सरदार वल्लभभाई की ओर यह जिम्मेदारी सौपी की डॉ. आंबेडकरको चुनाव लड़ने के लिये एक भी चुनाव क्षेत्र सुरक्षित ना रखा जाये। पटेल ने वैसा ही किया ओर उन्होंने उसे पुछनेपर जवाब दिया, कि, डॉ. आंबेडकर चुनकर ना आये इसलिये मैने संविधान सभा का केवल दरवाजाही नहीं तो खिडकी भी बंद कर डाली है। अत: डॉ. आंबेडकर अब संविधान सभामें चुनकर आना असंभव है। किन्तु बंगालके लोगोंने डॉ. आंबेडकरको बंगाल प्रांतसे संविधान सभा का चुनाव लडनेकी प्रार्थना की। मुस्लिम लिग के प्रतिनिधिने डॉ. आंबेडकरके लिये संविधान सभा का अधिकार छोडकर वहा डॉ. आंबेडकरको अवसर दिया। चुनाव लडकर डॉ. आंबेडकर जीतकर आये। जस्सोर 71%, खुलना 71%, बोरीसाल 71% और फरिदपुरके 71%, मतदाताओंने डॉ. आंबेडकर को चुनकर लाया।किन्तुु सत्ता प्राप्ती के बाद सुडभावनासे कांग्रेसने उपर के चारों जिलें पाकिस्तानमें मिला दिये। अत: डॉ. आंबेडकर पाकिस्तान संविधान सभा के सदस्य बन गये। भारतीय संविधान सभा का उनका सदस्यत्व रद्द हुआ। इसके बाद डॉ. आंबेडकर लंडन जाकर प्रधानमंत्री चर्चिलसे मिले। किन्तु उसका कोई फायदा ना हुआ। अंतमें डॉ. आंबेडकरने संविधानको मान्यता न देनेकी धमकी दे डाली। हमारे पीछडे वर्गको संवैधानिक सुरक्षा मिली तो ही मैं संविधानको मान्यता दुंगा। ऐसी शर्त डॉ. आंबेडकरने रखी।

इधर पंडित नेहरुको प्रधानमंत्री बननेकी बहुत ही शीघ्रता थी। 1946 में लॉर्ड वेव्हलने घोषणा की थी, कि हमे भारत छोडकर जल्द ही जाना है। सत्ता का हस्तांतरण हिंदु, मुस्लिम और दलितोंको तीन हिस्सों मे करना है। किन्तु उसके पहले तीनों लोगोंने मिलकर (तीनों वर्गके संविधान सभा के सदस्योंने मिलकर) संविधानका निर्माण करना अनिवार्य बनाया। डॉ. आंबेडकरने तो बहिष्कार डाला हुआ था। अत: कांग्रेस के सामने संविधान निर्माण का धर्मसंकट खडा हुआ। कांग्रेसको अंग्रेजोंसे सत्ता हस्तांतरित कराकर शीघ्र भारतीय हिंदू (ब्राह्मणी) मंत्रीमंडल निर्माण करने में बाधा निर्माण हो चुकी थी। अत: गांधीने पं. नेहरुकों बुलाकर पुछताछ करनेपर नेहरुने कहा कि, डॉ. आंबेडकर संविधानको संमती देने के लिये तयार नहीं है। वे पीछडे समाज के लिये संवैधानिक सुरक्षा चाहते है। यदि संवैधानिक सुरक्षायें उेपीींर्ळीीींंळेपरश्र डरषश र्ॠीरीवी पीछडे समाजको नहीं मिलती तो वे संविधानको संमती देने के लिये किसी भी हालात में तयार नहीं है। साथही अंग्रेज सरकारभी हिंदु, मुस्लिम और दलितोंकी संमतीसे संविधान बने बगैर सत्ता हस्तांतरित करने के लिये तयार नहीं है। यह सुनकर गांधीने नेहरुको और आगे पुछा कि, सत्ता हस्तांतरित होने के बाद देशका प्रधानमंत्री कौन बननेवाला है? नेहरुने जवाबमें कहा, कि मैं-मैं ही प्रधानमंत्री बननेवाला हुं। तब गांधीने आगे और नेहरुको पुछा,कि,‘संविधानपर अंमल कौन करेगा? नेहरुने जवाब दिया कि, मैं ही करुंगा। अत: गांधीने कहा कि, आप ऐसा करो, कि डॉ. आंबेडकरको संविधान लिखनेकी जिम्मेदारी दे दो। उन्हें जो जी चाहे सो लिखने दो। उसपर अंमल करना है या नही करना है, यह तुम देख लेना, नेहरुजी! यह सुनकर पं. नेहरु बहुत ही खुश हुये। उन्होंने तुरंत संविधान सभा में निर्वाचित बॅरिस्टर जयकर को बुलाकर उसे संविधान सभा के सदस्यत्व का राजीनामा देने लगाया और उसके स्थानपर डॉ. आंबेडकरको चुनकर लाया गया। इतनाहीं नही तो उन्हें संविधान सभा के मसुदा समितिका अध्यक्ष भी बनाया गया। संविधान समिती के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्रप्रसाद (राष्ट्रपती) थे। संविधान सभा के अध्यक्ष इनमें ऐसा करार या निर्णय हुआ था, कि, मसुदा सभा के अध्यक्ष डॉ. बाबासाहबने संविधानकी केवल धारा (कलमा) लिखना और संविधान समितिया सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्रप्रसाद और अन्य उसके समर्थक, नेहरु, पटेल आदीने उस धाराकों चर्चा के बाद उचित परिवर्तन के बाद मंजूर करना। इस प्रकार पुरा संविधान डॉ. आंबेडकर द्वारा लिखा गया, और उसे अनुमती डॉ. प्रसाद, पं. नेहरु, सरदार पटेल आदी के द्वारा चर्चा और सुधार करके बादमे दी गई।

 संविधानकी मसुदा समिती के निम्न सात लोग सदस्य थे।

1) अध्यक्ष - डॉ. बी. आर. आंबेडकर

2) सदस्य  - अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर

3) सदस्य  - एन. गोपालस्वामी अय्यंगार

4) सदस्य  - के. एम. मुन्शी

5) सदस्य  - सय्यद मोहम्मद सादुल्लाह

6) सदस्य  - बी. एल. मित्तर

7) सदस्य  - डी. पी. खेतान

इन सात सदस्योंमेसे एकने राजीनामा दिया था। उसकी जगहपर दुसरा सदस्य लिया गया था। दुसरे एक की मृत्यु हुई थी और यह पद रिक्तही था। तीसरा सदस्य अमेरिका चला गया और उसकी जगह भी रिक्त रही। चौथा एक सदस्य राजनीतीमें अटक गया और उससे कोई काम नहीं हुआ। अन्य दो सदस्य दिल्लीसे बहुत दूर रहते थे, और वे हमेशा बिमारही रहा करते थे। अत: संविधान निर्माण का पुरा काम अकेले डॉ. आंबेडकरकोही करना पडा।

डॉ. आंबेडकरने यह संविधान लिखने का काम 2 साल, 11 महिने और 17 दिनमें पुरा किया। घटना (संविधानमें) कुल 395 धारा (कलमा) और 8 परिशिष्ट थे। संविधानमें डॉ. आंबेडकरने संविधानकी धारा क्र. 341 के अनुसार अनुसूचित (एस.सी.) जातिको 15% और धारा क्र. 342 के अनुसार अनुसूचित (एस.टी.) जमातिको 7.5% प्रतिनिधित्व दिया। धारा 340 के अनुसार अन्य पीछडे वर्ग ओ.बी.सी. को प्रतिनिधित्व देनेका उन्होंने प्रयास किया था। किन्तु सरदार पटेलने आपने ये ओ.बी.सी. कहासे लाये, कहकर प्रतिनिधित्व देनेसे इनकार कर दिया।

अत: अंतमें बड़े विवाद के बाद डॉ. आंबेडकरने सरदार पटेलके ही शब्दोंमें धारा 340 में ‘यह संविधान भारतके महामहिम राष्ट्रपतिको अन्य पीछड़ा वर्ग (ओ.बी.सी.) कौन है, यह पहचानने के लिये एक आयोग नियुक्त करनेका आदेश देता है’ ऐसा लिख दिया। सरदार पटेल भी ओ.बी.सी. थे। किन्तु उसने कुल्हाडी का डंडा बनकर गोत्रका बहुत बडा नुकसान किया। वैसे तो डॉ. आंबेडकरने अंग्रेजो के शासन काल मेंही 1932 में एस.सी., एस.टी. को प्रथम 8.33% और बादमें 12% आरक्षण मिला लिया था। अत: यह दोनों जमाति सभी को ज्ञात हो चुकी थी। सत्ता हस्तांतरण के बाद भारतीय संविधान के अनुसार यह आरक्षण दोनों जमातिओंको क्रमश: 15% और 7.5% कर लिया गया। क्योंकि अंग्रेजों के समयमें एस.सी., एस.टी. जमाति का सर्वेक्षण हो चुका था। केवल ओ.बी.सी. का नहीं हुआ था। अत: कांग्रेसने ओ.बी.सी. को आरक्षण देने के लिये आंबेडकरका जमकर विरोध किया। किन्तु फिर भी डॉ. आंबेडकरने 340 धारा के द्वारा शासन को भविष्यमें सर्वेक्षण के बाद आरक्षण देने के लिये मजबुर बनाया। सत्ता हस्तांतरण के बाद कांग्रेसने डॉ. आंबेडकरको कानून मंत्री बनाया था। किन्तु सरकार बनने के बाद भी 2 सालतक धारा 340 के अनुसार ओ.बी.सी. के लिये आयोग न स्थापित करने के कारण, उन्हें नियोजन विभाग का उपाध्यक्ष न बनानेके कारण, हिंदु कोड बील मंजूर न करने के कारण और पं. नेहरुके गलत परराष्ट्रीय धोरण के कारण 27 सितंबर 1951 को राजीनामा दे दिया। संविधानको मंजूरी देते समय संविधान सभा के कुल 308 सदस्योंमेंसे 212 कांग्रेसके सदस्य थे। फिर भी शासनमें आने के बाद उन्होंने ओ.बी.सी. के लिये आयोग स्थापना करने को टालने की कोशिश की। पं. नेहरुने डॉ. आंबेडकरका राजीनामा संसदमें भी पढकर नहीं बताने दिया। अत: डॉ. आंबेडकरने राजीनामा घटनाक्रमका कारण और इतिहास किसी को भी ज्ञात न हुआ।

डॉ. बाबासाहब 1918 से 1942 तक कुल 26 साल अनुसूचित जाति-जमाति और अन्य पीछडे वर्ग का एकीकरण करते रहें। 18,19 और 20 जुलै 1942 को नागपूरमें डॉ. आंबेडकरने शेड्युल्ड कास्ट फेडरेशन का अधिवेशन लिया। इस अधिवेशनमें 50,000 पुरुष और 25000 महिलाये उपस्थित थी। इस महाअधिवेशनसे अंग्रेज और कांग्रेस दोनों भी घबरा गये थे। अंग्रेजोने उस समय के बाद डॉ. आंबेडकरको कानून मंत्री बनाया। इतना ही नहीं तो और बिजली मंत्री, जलमंत्री और सार्वजनिक बांधकाम मंत्रीका कार्यभार सौंपा।

भारत के राष्ट्रपती डॉ. राजेंद्रप्रसाद और प्रधानमंत्री पं. नेहरु दोनों भी अन्य पीछड़ा वर्ग विकास आयोग निर्माण करने के लिये टालमटोल कर रहे थे। अत: डॉ. आंबेडकरने 1952 में शेड्युल्ड कास्ट फेडरेशनके घोषणापत्रमें धारा 340 के अनुसार आयोग निर्माण करने का अभिवचन दिया था। इस घोषणापत्र और अभिवचन से प्रसाद-नेहरु डर गये और उन्होंने 29 जनवरी 1953 को दत्तात्रय बाळकृष्ण उर्फ काकासाहेब कालेलकर की अध्यक्षतामें अन्य पीछड़ा वर्ग विकास आयोग (काकासाहेब कालेलकर आयोग) की स्थापना की। लगभग 2 साल 2 माह के बाद कालेलकरने अपना अहवाल महामहिम राष्ट्रपती डॉ. राजेंद्रप्रसाद की सेवामें सौंपा। इस अहवालमें कालेलकरने मराठा समाज को कुणबी संबोधित करते हुये कुल 2399 अन्य पीछड़ी जाति को अनु.जाति एवं जमातिकी सुविधायें मतलब आरक्षण एवं प्रतिनिधित्व देने की शिफारस की हैं। यह अहवाल पढते ही राष्ट्रपती के गुस्से को कोई सीमा नहीं रही। उन्होंने क्रोधमें आकर कालेलकरकों सुनाया, कि‘हमे आजादी की लड़ाई क्या ब्राह्मणोंको रेवडियां बाटने के लिये लडी’। इतनाही नहीं तो रातमें उन्होंने प्रधानमंत्री पं. नेहरुको दूरभाषपर बात करते हुए कहा कि ’छशर्हीी,ळीं’ी र्ूेीी वशरींह  ुरीीरपीं’ कालेलकर आयोग यह तुम्हारी मतलब ब्राह्मणोंकी ‘मृत्यूघंटा’ है। इसका मतलब अन्य पीछडे वर्ग को आरक्षण देने से सभी ब्राह्मणोंकी मृत्यू निश्‍चित है, ऐसा राष्ट्रपतीका कहने का गर्भित अर्थ था। वे किसी भी हालात में ओ.बी.सी. को आरक्षण नहीं देना चाहते थे। अनुसूचित जाति-जमातिको तो सत्ता हस्तांतरण पूर्वही आरक्षण अंग्रेजोंकी ओर से मिल चुका था। भारतीय संविधानमें उन्हे इच्छा ना होते हुये भी मजबुरीसे आरक्षण देना पड़ा था। यह आरक्षण भी अंमल करने के अंतस्थ विचारसे दिया गया था। राष्ट्रपतीसे दूरभाषपर बात या चर्चा होने के बाद उसी दिन रातमें प्रधानमंत्री ठिक 12 बजे संसदभवन के अशोका हॉलमें पहुचे और उन्होंने कालेलकरको सामने बुलाकर डाटते हुए कहॉ, कि,‘‘क्या आप सभी ब्राह्मणोंको ओबीसी को आरक्षण देकर भीक मांगने को लगाते’’?

इस प्रकार प्रसाद, नेहरु और कालेलकर के बीच चर्चा होने के बाद कालेलकरको उसकी गलतीका ज्ञान हुआ और उन्होंन दुे दुसरेही दिन याने 31 मार्च 1955 को 31 पृष्ठोंका असहमतीका पत्र राष्ट्रपतीको लिखकर भेजा और आयोग को अंमलमे न लाने की सलाह दी।  एकही रातके बीच कालेलकरको निर्णय बदलने के लिये प्रसाद और नेहरुने उसे मजबूर किया यह खुली बात है।

आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकरने असहमती पत्रमें स्पष्ट रुपसे लिख दिया, कि, ओबीसी वर्ग खुदही उसके पीछडेपणको जिम्मेदार है, साथही उनको आरक्षण देने के कारण ब्राह्मणों और अन्य प्रस्थापित वर्गपर अन्याय होनेवाला है। बेकारी फैलनेवाली है। अत: ओबीसीने प्रस्थापित वर्ग की दयापर निर्भर ना रहाना और अपनी उन्नती अपने बलपरही करना। कालेलकरका यह शस्त्र हाथमें आनेपर आयोग के अध्यक्ष आयोगसे सहमत नहीं है, यह कारण बताकर पं. नेहरुने अहवाल संसदमें रखकर चर्चा करनेसे इनकार कर दिया और बगैर चर्चाकेही उसे कचरेकी पेटीमें डाल दिया। अंमल करने की तो बात दूर रही, संविधानके अपमान के बारेमें भी उसने तिलमात्र चिंता नहीं की। पं. नेहरुके बाद इंदिरा गांधीके देहांत तक आयोगका अंमल टालने की नीती अपनाई गई। इंदिरा गांधी के बाद जब जनता पक्षकी सरकार आई और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने कालेलकर आयोग बहुत पुराणा हुआ है, अब हम नया आयोग स्थापन करेंगे ऐसा प्रस्ताव रखकर उन्होंने 1 जनवरी 1979 को बिंदेश्‍वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षतामें ओबीसी विकास आयोग की स्थापना की। बिंदेश्‍वरी प्रसाद मंडल माजी खासदार, बिहार के माजी मुख्यमंत्री और ओबीसी थे। उन्होंने पुरा भारत घुमकर सर्वेक्षण के माध्यमसे 3743 जातिका समावेश ओबीसीमें किया। इस सर्वेक्षण का अहवाल मंडलने 31 दिसंबर 1980 को तत्कालीन राष्ट्रपती संजीव रेड्डीको सौंपा और अनु.जाति-जमातिके भांति आरक्षण देने की शिफारस की। इतनेमें मोरारजी देसाई की सरकार 18 महिने के बाद गिर गई और दुबारा इंदिरा गांधीकी सरकार आ गई। इंदिरा गांधी दुबारा प्रधानमंत्री बनने तक ओबीसी की मांगे अंमलमें लाने का आंदोलन बलशाली बन चुका था। अत: इंदिरा गांधीने आर.एस.एस. के गुप्त सहयोगसे देशमें हिंदू एकता यात्रा निकालकर आयोग के अंमल से ध्यान हटानेका या टालनेका प्रयास किया। हिंदुत्ववादिओंको अनु.जाति-जमाति और ओबीसीके विरोध में भडकाने का भी काम किया। इतनेसे भी उद्देश साध्य नहीं हो पा रहा है, यह देखकर इंदिरा गांधीने 25 जून 1984 को पंजाब के सिखों के मंदिरपर जशिीरींळेप लर्श्रीश ीींरी की कार्यवाही करके ओबीसीओंका मंडल आयोग की मांगोसे ध्यान हटानेका और समय बरबाद करने का काम किया। इसका नतीजा यह हुआ की इंदिरा गांधीकी हत्या 31 अक्टूबर 1984 को हुई और उसके पश्‍चात उनके पुत्र राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। इंदिरा गांधी की हत्या वास्तवमें मंडल आयोगपर अंमल न करने के हेतु से किये गये सुवर्णमंदिरकी सेना कार्यवाहीके कारण ही हुई थी। किन्तु यह सबक ध्यानमें न रखते हुए राजीव गांधीनेभी मंडल आयोगप अंमल न करने के विचारसे श्रीलंकामें शांतिसेना भेजकर और प्रभाकरन के साथ गुप्त संबंध रखकर श्रीलंका भारतमें विवाद खडा किया और इसी विवादके चलते उनका पाच सालका प्रधानमंती पदका काल 1989 में समाप्त हुआ। उसके शासनकालमें उसने प्रभाकरनके प्रतिनिधिओंको मद्रास प्रयोगशालामें ठऊद बनाने के लिये प्रशिक्षण की अनुमती भी दी थी। बोफोर्स तोफ खरिदी प्रकरणमें भ्रष्टाचार भी हुआ था। सन 1989 के उसके दुबारा लोकसभा चुनाव में उसकी हार हुई और उसके बाद व्ही. पी. सिंग प्रधानमंत्री बने। राजीव गांधी विरोधी पक्ष नेता रहें। 1989 में प्रधानमंत्री बनने के बाद सामाजिक न्याय के पक्षपर सिध्द करने हेतु और चुनाव घोषणापत्रके अनुसार मंडल आयोग पर अंमल करना शुरु किया। उन्होंने ओबीसी की 3743 जातिमेसे केवल 1200 जातिको मंडल आयोग लागू किया। इन 1200 जातिका भी केवल नोकरीमें आरक्षण दिया गया। शिक्षाके क्षेत्रमें आरक्षण नहीं दिया गया। यह आरक्षण पुर अधूरा और पंख काटकर पंछीको उडने के लिये कहने के बराबर था। तात्पर्य यह आरक्षण दिशाभूल करके लाभ उठानेके हेतुमात्र सेही किया गया था। व्ही.पी.सिंग कम्युनिस्ट और भाजपके सहयोगसे प्रधानमंत्री बने थे। बिहारमें लालूप्रसादने आडवाणीकी रथयात्रा रोकने के कारण बी.जे.पी. ने सहयोग वापस ले लिया और व्ही.पी.सिंग की सरकार 1991 में अल्प अवधिमें गिर गई। व्ही.पी.सिंगकी सरकार 1991 में गिर जाने के पश्‍चात राजीव गांधी चुनाव जीतकर दुबारा 1991 में प्रधानमंत्री बन गये। किन्तु श्रीलंकाके विरोधी प्रभाकरनसे उनका संबंध बिगडनेके कारण प्रभाकरनने एक योजना बनाकर राजीव गांधीको एक कार्यक्रममें मंचपरसे ही उडा दिया। राजीव गांधीकी हत्या हो जाने के बाद पी.व्ही. नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने। 29 जून 1991 को केशव हेगडे के जनमदिनपर शपथ लेने के बाद वे पुरी एक पंचवार्षिक योजना प्रधानमंत्री बने रहे। उन्होंने भी आरक्षणके अंमलसे ओबीसी का ध्यान हटाने के लिये 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मजीद गिराई। उन्होंने ही अर्थमंत्री मोहनसिंगके विचारसे संविधानको प्रभावहीन बनाने हेतु एलपीजीका सुत्र अपनाया। एलपीजीसे तात्पर्य (ङळीरश्रळूरींळेप, झीर्रींरींशश्रळूरींळेप रपव ॠश्रेलरश्रळूरींळेप) उदारीकरण, नीजीकरण और जागतिकीकरण होता है। उदारीकरण के द्वारा उन्होंने 25-30 साल पुराने उद्योगपतिओके सभी कर्ज व्याजोंसहित, करोसहित माफ कर दिये। दिवाला निकाले उद्योगपतीओकोंभी सभी कर्जा माफ करके उन्हें और कजेर्र्की रियायते दी गई। कंपनिओंके उद्योगपतिओंको और बडे अधिकारिओंको वेतन बढ़ानेभी अनुमती, आयात-निर्यात करोमें छूट, अन्य करोमें छूट, प्रवासोंमें सहुलियते, कम या शून्य ब्याजोंपर और बडी सबसीडीओंपर नया कर्ज, उद्योगों के लिये, भूमि, बिजली, जलपूर्ति आदीकी सुविधाये, नेतायोंके वेतनोंमे बढती, काला धन सफेद करने की सुविधाये, वैद्यकिय सुविधाये, शिक्षा संस्थाये चलानेकी सुविधायें का अर्थ उदारीकरण माना जाता है। नीजीकरण के माध्यमसे सभी शासकीय और सार्वजनिक क्षेत्रोंका नाममात्र मुल्यमें धनवानों और उद्योगपतियोंका बेचना और नीजीकरणकोही प्रोत्साहन देना। उनको सभी प्रकारकी स्वतंत्रता देकर आरक्षण पुरी तरहसे बंद करनेकी नीतीको नीजीकरण कहां जाता है।

जागतिकीकरणसे तात्पर्य पुरे विश्‍वकी किसी भी कंपनी या उद्योगको अपने देशमें उनको सभी सुविधावोंके साथ स्वतंत्र रुपसे और इच्छाके अनुसार उद्योग खोलनेसे है। इस जागति&


G H Rathod

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