शिश्‍न पूजा क्यों?

अब तक के विश्‍लेषण से यह बात स्पष्ट होती है कि वैदिक भारत में शिश्‍न को देव मानकर उसकी पूजा करने वालों का समूह रहता था।

अब तक के विश्‍लेषण से यह बात स्पष्ट होती है कि वैदिक भारत में शिश्‍न को देव मानकर उसकी पूजा करने वालों का समूह रहता था। सिन्धु घाटी सभ्यता में भी शिश्‍न की मूर्ति प्राप्त हुई हैं। इससे स्पष्ट होता हैं कि भारत में शिश्‍न पूजा अत्यन्त प्राचीन काल से प्रचलित थी। प्रश्‍न उठता हैं कि शिश्‍नपूजा क्यों होती थी। क्या उसका स्वरुप आज भी प्रचलित हैं? शिश्‍न को बीजभूत (बीज भूत: शिश्‍न:) कहा गया हैं। इसका कारण हैं कि शिश्‍न वीर्य रुपी बीज को पत्नी के गर्भ में बोने का कार्य करता हैं। जिस प्रकार किसान हल के द्वारा बीज को धरती से गर्भ में बोता हैं तो नयी सृष्टि के रुप में फसल पैदा होती हैं, उसी प्रकार पति शिश्‍न रुपी हल के द्वारा बीर्य, रुपी बीज को अपनी पत्नी के गर्भ में बोता हैं तो नयी सृष्टि के रुप में सन्तान जन्म लेती हैं। इस प्रकार शिश्‍न सृष्टिकर्ता के रुप में दिखायी देता हैं। यह शिश्‍न न केवल नयी सृष्टि के जन्म और विस्तार का कारण हैं।े ‘जीवो जीवस्य कारणम्’ अर्थात जीव ही जीवों को जन्म देने का कारण हैं, ऐसा कहा गया हैं; परन्तु मूल कारण तो शिश्‍न हैं। यदि किसी कारण से शिश्‍न अक्षम हो जाय तो जीवों का जन्म सम्भव नहीं। शिश्‍न ही बीज बोकर सन्तान को जन्म देकर सृष्टि को विस्तार देता हैं और उसे अमर बनाता हैं। इसीलिए इसे अनन्त कहा गया हैं।10 प्राचीन भारतीयों ने ऐसे प्रत्यक्ष सृष्टिकर्ता शिश्‍न को देवता मानकर उसकी पूजा की तो कोई आश्‍चर्य नहीं। आजकल तो विश्‍व के समस्त धर्मों के लोग किसी अदृश्य/काल्पनिक ब्रम्हा/भगवान/खुदा/गॉड की सृष्टिकर्ता के र ुप में पूजा करते हैं। वैदिक भारतीय तो इनसे श्रेष्ठ थे, क्योंकि वे प्रत्यक्ष देवताओंं-सूर्य, अग्नि, वायु, जल इत्यादि की तरह प्रत्यक्ष सृष्टिकर्ता शिश्‍नदेव के पुजारी थे। वेदों के पर्जन्य (बादल) को भी शिश्‍नदेव कहा गया हैं। उसके अनुसार पर्जन्य पिता हैं तो पृथ्वी माता हैं। माँ के गर्भ में जैसे पिता वीर्य के द्वारा सन्तान का बीजारोपण करता हैं, वैसे ही पर्जन्य अर्थात बादल भी वीर्य रुपी जल से पृथ्वी के गर्भ में बीज रोपण कर पृथ्वी को पेड़-पौधों इत्यादि को जन्म देने योग्य बनाता हैं, अर्थात अर्थ धारण के योग्य बनाता हैं। अत: भारतीय ऋृषियों ने बादल को भी शिश्‍नदेव कहा तो कोई आश्‍चर्य नहीं। वैदिक मानवों ने दोनों को देवता मानकर उनकी पूजा की हैं। शिश्‍न नयी सृष्टि को जन्म देने, उसे अमर बनाने का माध्यम तो हैं ही। इसके साथ ही वह चरम आनन्द को भी प्रदान करने वाला हैं। सन्तानोत्पत्ति की क्रिया में शिश्‍न स्त्री और पुरुष दोनों को चरत आनन्द प्रदान करता हैं। आदि मानव के लिए इससे बड़ा सुख और कोई न था। भरपेट भोजन और काम सुख ही तो आदि मानव के जीवन लक्ष्य थे। यह काम सुख शिश्‍न प्रदान करता हैं। अत: उसे देवता माना गया तो आश्‍चर्य कैसा? शिश्‍न का जितना महत्व आदि मानव के लिए था, उतना ही महत्व आज के मानव के लिए भी हैं। उसके महत्व में कमी नहीं आयी हैं। आज अखबारों में विज्ञापन छपता हैं कि, ‘‘मैं 20-25 वर्ष युवक हूँ मेरी शादी हो गयी हैं परन्तु पत्नी के योग्य नहीं हूँ कोई दवा बताइए।’’ ये विज्ञापन बताते हैं कि उन युवाओं ने बुरी संगति में पड़कर अपना शिश्‍न बर्बाद कर लिया हैं। उनके शिश्‍न काम सुख की प्राप्ति तथा सन्तानोत्पत्ति के योग्य नहीं रह गए हैं।े ऐसे युवा आत्महत्या तक कर लेते हैं। भारतीयों ने ऐसी स्थिति में शिश्‍न को देवता मानकर उसके प्रति भक्ति पैदा कर शिश्‍न को स्वस्थ रखने की परिस्थिति पैदा की तो निश्‍चय ही यह महत्वपूर्ण कार्य था, क्योंकि मानव जिसे देवता मानकर उसकी पूजा करता हैं, उसके साथ वह खिलवाड़ नहीं करता हैं और न ही उसका दुरुपयोग करता हैं। शिव लिंग पूजा अथवा शिश्‍न पूजा- आज भारत में समस्त हिन्दुओं में शिवलिंग पूजा प्रचलित हैं। यहाँ शिव का अर्थ लोग भगवान शंकर से लगाते हैं। मेरी दृष्टि से यह उचित नहीं हैं। कारण यहाँ शिव का अर्थ कल्याणकारी तथा लिंग पुल्िंलग (शिश्‍न) स्त्रीलिंग (योनि) दोनों का लक्षण हैं। शिवलिंग पूजा में स्त्रीलिंग (योनि) और शिश्‍न (पुल्िंलग) को सम्भोगरत दिखाया जाता हैं। इसमें शिव अर्थात कल्याणकारी विशेषण शिश्‍न और योनि (दोनों लिंग) दोनों के लिए आया हैं। दोनों लिंगो (शिश्‍न और योनि) को कल्याणकारी (शिव) इसलिए कहा क्योंकि दोनों चरम सुख और सन्तानोत्पत्ति के माध्यम हैं। अधिक सम्भव हैं ऐसे ही कल्याणकारी शिश्‍न और कल्याणकारी योनि को ही पुरुष और नारी के रुप में शंकर और पार्वती नाम दे दिया गया हैं। इसलिए शिवलिंग पूजा अर्थात शिश्‍न और योनि पूजा और शंकर-पार्वती पूजा दोनों को एक मान लिया गया। शिवलिंग पूजा में धीरे-धीरे ठंडा जल शिवलिंग अर्थात शिव शिश्‍न तथा शिव योनि के संयुक्त रुप पर डाला जाता हैं। यह इस सत्य का उद्घाटन हैं कि भारत जैसे गर्म देशों के स्त्री पुरुष अपने लिंग (शिश्‍न और योनि) को ठंडे जल से शीतल रेखं, जिससे समय पर वे ठीक ढंग से सन्तानोत्पत्ति का कार्य कर सकें। अन्यथा उनके बर्बाद होने का खतरा अधिक रहता हैं। शीत प्रधान देशों के लिए ऐसा करना उचित नहीं, क्योंकि वहाँ शिश्‍न जल्दी उदेलित ही नहीं होते। सम्भवत: इसीलिए वहाँ ब्लू फिल्मों आदि का सहारा लिया जाता हैं। ऐसा लगता हैं कि प्राचीन भारतीयों की शिश्‍न पूजा ही बाद में शिवलिंग पूजा के रुप में बदल गयी। करवा चौथ भी, जिसमं पत्नियाँ अपने पति की पूजा करती हैं, शिश्‍न पूजा का ही एक रुप हैं। कारण इस पूजा में टोटीदार करवा का होना आवश्यक होता हैं। यह टोटी शिश्‍न का ही रुप हैं। आज पत्नियाँ पति पूजा करती हैं। परन्तु आज से 30-35 वर्ष पूर्व लेखक ने पूर्वी उ. प्र. के बनारस, मीरजापुर में ऐसे करवा पूजा को देखा, जिसमें मिट्टी के करवा (कलश) में कुम्भकार से कहकर उतनी ही टोटियाँ बनवायी जाती थीं, जितने कि उस परिवार या संयुक्त परिवार में पुरुष सदस्य (शिशु से बूढ़े तक) होते थे। पूजा कोई बड़ी-बुढ़ी महिला या बड़ा बूढ़ा पुरुष करता था। निश्‍चय ही ऐसी करवा पूजा का अर्थ पुरुष सदस्यों के शिश्‍न के सलामती की कामना करना था। इसे भी वैदिक शिश्‍न पूजा अथवा बाद के शिवलिंग पूजा का ही एक रुप कहा जाय तो कोई आश्‍चर्य नहीं। यह सच हैं कि आध्यात्मीकरण के बाद इसका मूक रुप ही तिरोहित हो गया और यह मात्र धार्मिक औपचारिकता बनकर रह गयी हैं। पृ.353 शिश्‍नपूजकों का यज्ञ-प्रवेश वर्जन क्यों? विश अर (लकड़ी) के हर/हल से खेती करते थे। इस आधार पर उन्हें ‘अर्य’ भी कहा गया। अर्य का विलोम आर्य हैं अर्थात जो अर्य न थे वे अ-अर्य इस अर्थ में आर्य कहे गए। इसी विश से वर्णारक्षण व्यवस्था का ‘वैश्य’ बना, जिसका अर्थ भी कृषक होता हैं। क्योंकि पशुपालन तथा व्यापार पहले यहाँ कृषि से ही जुड़े थे। यही कारण हैं अनेक ग्रन्थों में ’वैश्य’ के स्थान पर ‘अर्य’ शब्द का प्रयोग किया गया हैं।7 इससे स्पष्ट होता हैं कि अर्य और वैश्य या विश पर्यायवाची हैं। विस्तृत व्याख्या हम अध्याय-2 में देख चुके हैं। वैदिक विश आदि माता मनु और पिता कूर्म कश्यप की सन्तान थे। इस आधार पर माता मनु के नाम पर विश ही मनुष्य/मानव कहे गए।8 तो पिता कश्यप के नाम पर सम्पूर्ण सृष्टि को ’काश्यपी’ कहा गया।9 विशों के विस्तार के कारण ही सम्पूर्ण भू-भूण्डल को ‘विश्‍व’ कहा गया।10 इन्हीं मनुष्यों के आधार पर भू-भूण्डल को ’मनुष्य लोक’ कहा गया और इन्हीं मानवों के महान सम्राट पृथु द्वारा बड़े पैमाने पर खेती के विस्तर के कारण मनुष्य लोक को एक और नाम ‘पृथ्वी’ या ‘पृथ्वी लोक’ के नाम से भी जाना गया। पहले मनुष्य या मानव खेती करने वाले मनु सन्तानों को ही कहा जाता था। शेष लोग दैत्य, दानव, सुर इत्यादि नामों से जाने जाते थे। कालान्तर में खेती आदि मानव कर्मों को सीख लेने पर सभी को मनुष्य कहा जाने लगा। ऋृग्वेद में स्पष्ट रुप से लिखा हैं कि मनुष्य ही एक और नाम कृष्टी या कृषक के रुप मेंं पहचाने गए- ‘‘हे राजन युध्द करने वाले, बलवान, स्वादिष्ट भोजन करने वाले, स्नेहयुक्त शब्दों वाले, बड़ी ख्याति वाले मनुष्यों का ही एक नाम कृष्टी/कृषक हुआ और संग्राम करने वाले तथा सहनशील भी।’’ इस मन्त्र में वैदिक कृषक मानवों की सारी विशेषताएँ सम्मिलित हैं, क्योंकि उन्हें ही कृषि के साथ अपनी रक्षा के लिए संग्राम भी करना पड़ता था। वे ही शक्तिशाली अर्थात प्राणवान होने से असुर कहे जाते थे। वे ही आर्यों की अपेक्षा स्वादिष्ट भोजन करते थे। सहनशील तो वे आज भी हैं। एक मन्त्र में विश को मानव जाति का प्रतीक बताया गया हैं।12 मन्त्र 6/14/2 में भी विश मानवों की चर्चा करते हुए ऋृषि कहता हैं- ‘‘अग्नि ही ऋृध्दि हैं, सूर्य हैं, अग्नि को ही ऋृषि जानो। अग्नि ही कृषकक मानवों/विश मानवों के यज्ञ में ‘होता’ हैं।13 वेदों में ऐसे अनेक स्थल हैं, जहाँ कृषक/विश/अर्य/मनुष्य को एक ही अर्थ में प्रस्तुत किया गया हैं। पीछे हमने इसे विस्तार से देखा भी हैं। पृ.388 खेती करनेवाले कृषक मानवों को कुट अर्थात कुटी या घर बनाकर रहना पड़ा। इस आधार पर उन्हें ‘कुटुम्बी’ कुडुंम्बी भी कहा गया। खेती की आवश्यकता के अनुरुप बड़ा परिवार अर्थात ‘कुल’ होने से उन्हें ही ‘कुलम्बी’ कुलवदी/कुलवादी भी कहा गया तो कूण/कूड (नाली) में गेहूँ आदि के बीज बोने के कारण उन्हें कुणबी या कुड़बी/कुड़मी भी कहा गया। सिन्ध के पटल राज्य के आधार पर जहाँ भी वे गए वहाँ पटेल भी कहे गए। बौध्द काल में शाकाहार की महत्ता बढ़ने से जो कुरमी/कृषक शाक-भाजी की खेती करने लगे वही शाक्य भी कहे गए। शाक-भाजी की खेती के लिए गाँव के कछार (किनारे) की भूमि उपयुक्त थी। अत: वे कहीं-कहीं काछी कहे गए। वही मनुष्य/विश,जुताई/कर्षण के आधार पर कृषाण अथवा किसान भी कहे गए। यह सब हम विस्तार से यथास्थान देख चुके हैं। वैदिक विश सब प्रकार से शक्ति-सम्पन्न थे। वे प्राणवान, शक्तिवान होने से अपनी रक्षा करने में समर्थ थे। आर्य, दस्यु और दास अथवा पणियों ने हमेशा उनसे मार खायी। असु का अर्थ प्राण होता हैं अत: प्राणवान/शक्तिवान होने से विश ही असुर भी कहे गए।14 अपनी रक्षा में समर्थ होने से उन्हें ही राक्षस भी कहा गया हैं। असुरों के विरोधी स्वर्ग निवासी आर्य सुरा (शराब) पीते थे। इसलिए उन्हें सुर कहा गया।15 फिर यह सुर असुर का विलोम हो गया। विरोधी तो वे पहले से ही थे। विशों को ही असुर कहा गया था इसका प्रमाण यह हैं कि विश (वैश्य) और असुर दोनों को प्राचीन ग्रन्थों में पेट से पैदा होना दिखाया गया हैं। ऋृग्वेद, 16अथर्ववेद,17 बाजसनेयी संहिता,18महाभारत,19मनुस्मृति,20भागवत,21 जैसे ग्रन्थ पेट से या जांघों की शक्ति से (जहाँ से मानव का जन्म होता हैं) विश अथवा वैश्यों की उत्पत्ति दिखाते हैं, वहीं पर तैत्तिरीय ब्राह्मण नामक ग्रन्थ में असुरों को भी पेट से पैदा होना दिखाया गया हैं।22 इस प्रकार विश ही असुर भी कहे गए इसमें सन्देह नहीं रह जाता। पीछे हमने विस्तार से इसे देखा हैं। ऐसे ही असुरों अथवा विशों का साम्राज्य सारी दुनिया में फैला हुआ था। विशों के विस्तार से ही दुनिया को विश्‍व कहा गया। सुरों/आर्यों के पास तो मात्र उतनी ही भूमि थी जिसे कोई बैठा हुआ मनुष्य देख सकता हैं।23 इस प्रकार कुरमी, कृषक, अर्य, असुर, राक्षस, व्रात्य, कृष्टी, मनुष्य, शाक्य, काछी, कुलम्बी, कुलवादी, कुड़मी, कुटुंम्बी, कुडुम्बी, कुनबी, कापु, वैश्य जैसे विभिन्न नामों से पहचाने जाने वाले विराट विश समाज के लोग ही भारत के मूल निवासी थे। ऐसे ही विश/कुर्मी/कृषक/असुर समाज के जो लोग कविता लिखते और गाते थे, उन्हें ब्रह्मा या ब्रह्मन कहा जाता था। वही ब्रह्मन ब्राह्मन कहे जाने लगे। जो विश बड़े जमींदार या क्षेत्रपति (खेत का स्वामी) हो गए, वही क्षत्रिय कहे जाते थे।24 विश तो मूल वंश था ही। इस प्रकार ब्राह्मण और क्षत्रियों के आदि पूर्वज भी कुरमी/कृषक/असुर/विश ही हैं। वैदिक भारत में शूद्र न थे। चारों वर्णों वाला पुरुष सूक्त मिलावटी हैं। पृ.389 ऋृग्वेद से वैश्यों (कृषक, पशुपालकों) की उत्पत्ति हुई और ब्राह्मण तथा क्षत्रिय क्रमश: सामवेद व यजुर्वेद से पहचाने गए।38इसका निहितार्थ यह हैं कि चारों वेद वैश्य अर्थात कुरमी कृषकों के ग्रन्थ हैं। अथर्ववेद तो पूर्णत: कृषि कर्म, चिकित्सा, आदि के लिए समर्पित हैं। ऋृग्वेंद को देख ही लिया कि उससे वैश्यों की उत्पत्ति हुई या वे उससे पहचाने गए। सामवेद और यजुर्वेद वैसे तो अलग वेद हैं, परन्तु गहराई से देखा जाय तो मानना पड़ेगा कि वे दोनों वेद ऋृग्वेद के ही अंश हैं। ऋृग्वेद के ही गेय मन्त्रों को छाँटकर ब्राह्मणों को गाने के ल्लिए अलग कर उसे सामवेद कह दिया गया। इसी प्रकार ऋृग्वेद के ही यज्ञ-मन्त्रों को छाँटकर उन्हें क्षत्रियों को दे दिया गया, जो यजुर्वेद कहलाया। सामवेद मे तो मात्र 70 श्‍लोक नए हैं। शेष ऋृग्वेद के ही मन्त्र हैं। इस प्रकार तैत्तिरीय ब्राह्मण का यह कथन कि ऋृग्वेद विशों (वैश्यों) का काव्य ग्रन्थ हैं सत्य सिध्द होता हैं। विश ही कुरमी/कृषक/असुर जैसे नामों से पुकारे गए हैं।39 अत: वेदों को करमी/कृषकों अथवा असुरों का काव्य-ग्रन्थ कहने में किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार असुर वाक (वाणी) के अधिपति थे।40 इसी ग्रन्थ में आगे लिखा हैं कि, ‘‘सुरो को पिता प्रजापति से मन, यज्ञ, तथा स्वर्ग मिला, जबकि असुरों को वाणी और पृथ्वी लोक मिले।41 असुरों के वाणी के स्वामी होने का अर्थ हैं कि वेद के ज्ञाता या वेद के रचनाकार थे, क्योंकि वेद वाणी/ज्ञान के ही संग्रह हैं। ऐसा लगता हैं कि पहले वेदों को असुर वाणी कहा जाता था, जो बिगड़कर ईश्‍वर वाणी कहा जाने लगा। जैसा कि हमने देखा कि ईश्‍वर असुर का ही बिगड़ा रुप हैं। दूसरे जिन महापुरुषों-ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र आदि को हम ईश्‍वर कहते हैं वे सब असुर ही हैं। यह पहले ही देख चुके हैं। इसलिए वेदों को असुर वाणी कहना गलत नहीं होगा। ये असुर कुरमी/कृषक ही थे। इसलिए वेदों को कृषकों का काव्य-ग्रन्थ कहना ही श्रेयष्कर हैं। नि:सन्देह वेद जंगली, असभ्य, खेती के शत्रु आर्यों के काव्य-ग्रन्थ नहीं हैं। ए. एल. बाशम ने भी स्वीकार किया हैं कि ऋृग्वेद के रचनाकार आर्य न थे।42 इतिहास विशेषज्ञों में से एक फादर एच. हेरास ने, जिन्होंने हरप्पा में प्राप्त लिपि को पढ़ने का प्रयत्न किया, यहाँ तक अधिकार पूर्ण रुप से कहा कि उसकी भाषा तमिल भाषा का आदिम रुप हैं, जो वेद के अधिक निकट हैं।43 यह सभी जानते हैं कि तमिल भाषी विश या द्रविण हैं न कि आर्य। संस्कृत का जन्मदाता इन्द्र भी असुर हैं। यह संस्कृत वेदवाणी/विशवाणी से ही संस्कारित होकर आयी हैं। ऐसी स्थिति में वेदों को कुरमी/कृषकों/विशों/असुरों का काव्य-ग्रन्थ कहने में किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। पृ. 408

G H Rathod

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