समाज और साहित्य का संबंध

समाज और साहित्य का संबंध

किसी एक अपरिचित विद्वानने कहा है कि, किसी भी समाजकी उन्नति एवं अवन्नतिका एकमात्र कारण उसका साहित्य मात्र है। समाजका साहित्य यदि मानवतावादी एवं तत्ववादी है तो, वह समाज समृध्दि, सुख और शांति के शिखरपर चढ जाता है। यदि उसका साहित्य इसके विपरित है तो, वह समाज शीघ्रही या कालप्रवाह पतित, अवन्नत, गुलाम बन जाता है। उपरोक्त विद्वानने यह भी सत्य कहा है कि, यदि किसी समाजको नष्ट करना है, गुलाम बनाना है तो उसे समाजके साहित्यको प्रथम नष्ट कर डालना चाहिए। समय के प्रवाहमें वह समाज नष्ट नही भी हुआ तो वह अन्य साहित्यधारक समाज का गुलाम बन जाता है। मतलब समाज और साहित्यका संबंध जीवन और मरण के समाज संबंधित है। शरीर और खूनका जैसा घनिष्ट संबंध है, वैसाहि संबंध समाज और साहित्य का है। खून के बगैर शरीरका और शरीर के बगैर खूनका अस्तित्व असंभव है। इसी प्रकार साहित्य के बगैर किसी भी समाजका अस्तित्व बना नहीं रहता। साहित्य के अभावमें कोई भी समाज अन्य प्रबल समाजका गुलाम बन जाता है या प्रबल साहित्य धारक समाजमें समाविष्ट हो जाता है। वह अपना स्वामित्व और स्वाभिमान खोकर उस प्रबल साहित्यधारक समाजमें गौणत्व एवं कनिष्ठत्व स्वीकारकर उस प्रबल समाज और साहित्यकी गुलामी में जूट जाता है और सम्मानविहीन एवं पशुमय जीवन जीते रहता है। किसी भी समाजका इतिहास उसकी जीवन प्रणाली, संस्कृति, सभ्यता, व्यवस्था, नियम, कानून, प्रथा, रुढीयां, मनोरंजन, खेल, उत्सव पर्व त्यौहार, धर्मग्रंथ, देव-देवी, कर्मकांड, पूजा, प्रार्थना, नैवद्य, मंदिर, मठ, चर्च, विहार, मजीद आदी सभी घटकोंका समावेश साहित्य के अंतर्गत आता है। इसी कारण साहित्य यह समाजका दर्पण, आईना या प्रतिबिंब माना गया है। कौनसा जनसमुह कैसा है, इसकी परीक्षा उस समाज के साहित्यसेही की जाती है या वह समाज साहित्यसेही पहचाना जाता है। संक्षेपमें साहित्य यह किसी भी समाजका प्रतिरुप एवं प्रतिबिंब, दर्पण, चेहरा होता है। साहित्य के बगैर कोई समाज यह वास्तवमें मुर्दा शरीर होता है। विश्‍वमें प्रबल जनसमुह और उनका प्रबल साहित्य आज मौजुद है। इसाई, मुस्लीम, हिंदू, बौध्द, जैन, शिख, पारसी, गुजराथी, राजस्थानी आदिवासी, कानडी, केरळी, तमिली, अनुसूचित जाति, जमाति, घुमंतु, धर्मघुमंत, विमुक्त अन्य पीछडा वर्ग आदि जनसमुह है। काले गोरे जनसमुहभी है। इन सभी जनसमुहोंका साहित्य भी अलग अलग प्रकारका है। किन्तु इनमेंसे कई पीछडे जनसमुहोंका साहित्य नष्ट हो चुका है या दुष्मणों द्वारा नष्ट किया गया है। वर्तमान समयमें उपरी सभी जनसमुदायके (बौध्द साहित्यको छोडकर) साहित्यमें बड़े पैमानेपर अंधविश्‍वास, शब्द प्रमाण्य, अवैज्ञानिकता, विषमता, भेदभाव, श्रेष्ठ-कनिष्ठता, जातिधर्मवाद, निरर्थक कर्मकांड और निरक्षर, दुर्बल जनसमुहका शोषण समाया हुआ है। इसी कारणवश भारत में आज गरीबी, निरक्षरता, बेकारी, अनारोग्य, भूकमरी, स्वयं हत्या, अन्याय, अत्याचार, खून खराबी आदीसे बहुसंख्य पीछडा वर्ग, पीडित दु:खी और गुलाम है। वास्तवमें भारतके मूलनिवासी, आदिवासी, अनुसूचित जाति, जमाति घुमंतु, अर्धघुमंतु, (भटका-निमभटका) विमुक्त अन्य पीछडा वर्ग इनका प्राचीन साहित्य इसापूर्व 1750 पूर्वका साहित्य गौरवपूर्ण, वैज्ञानिक, मानवतावादी देव-धर्म, जातिवर्ण, और आर्य, वैदिक, सनातनी, ब्राह्मणी एवं हिंदू धर्म कर्मकांडमुक्त, निसर्गवंदक, साहित्य था। इसापूर्व 1750 के पूर्व आर्यो, वैदिकोंके 33 कोटी देवी देवताओंके साहित्यका नामोनिशान नहीं था। इसापूर्व 1750 के पूर्व मतलब सिंधु एवं मोहेंजोदड़ो-हड़प्पा सभ्यताके विनाशपूर्व भारतमें देव, धर्म, जाति, वर्ण, निरपेक्ष और आर्य, वैदिको कर्मकांड मुक्त, निसर्ग वंदक, मूलनिवासियोंकी नैतिकता और मानवतावाद, विज्ञान और भौतिकतापर आधारित न्याय, समतापूर्ण और शांततामय सभ्यता और साहित्य था। इसापूर्व 3100-3200 से इसापूर्व 1750 तक के लंबे समयमें आर्य, वैदिक और मुलनिवासी अनार्योमें होते रहनेवाली संघर्षमें अंतमें मुलनिवासी, अनार्योंकी, आजके सभी बहुजनोंकी हार हुई। संघर्षमें राजा-महाराजा और प्रजाजनोंका बहुत बड़ी मात्रामें संव्हार हुआ। आर्य-वैदिकोंका, वर्चस्व स्थापित हुआ। कुछ मुलनिवासी बहुजन आर्योंके गुलाम बनकर आर्योंके साथ रहने लगे। किंतु कुछ स्वाभिमानी मुलनिवासी, बहुजनोंने जंगल और पहाड़ोमें एकान्तमें रहना पसंद कर लिया। आर्योंका यह वर्चस्व इसापूर्व 1750 से तथागत बुध्द की क्रांतितक इसापूर्व 400 तक बना रहा। इसापूर्व 400 से इसापूर्व 184 तक तथागत बुध्दकी मानवतावादी, लौकिक, ऐहिक समाज और शासन व्यवस्था बनी रही। किंतु इसापूर्व 185 में धोकेसे बुध्दप्रिय राजा बृहद्रथकी हत्या कर आर्य ब्राह्मणोंने फिरसे सत्ता स्थापित कर ली और आज के आर्य वैदिक, सनातनी, वर्ण धर्मी, ब्राह्मणी, अश्रमण साहित्यकी निर्मितीकर मुलनिवासी बहुजनोंको उन्होंने मानसिक, बौध्दिक, शारीरिक रुपसे गुलाम बनाकर आज तक उनका कर्मकांडोंकें माध्यमसे शोषण जारी है। भारत में आर्य, वैदिक, वर्णधर्मी, सनातनी ब्राह्मण, परोपजीवी, आलसी, भिक्षुकी, पुरोहित आनेके पूर्व यहा अनार्य, बहुजनोंकी, नाग, एवं द्रविड वंशीय श्रमप्रधान संस्कृति सभ्यता एवं जीवनशैली थी। इसके विपरित युरेशियन ब्राह्मणोंकी देवी देवता और मंदिर, मठ, तीर्थक्षेत्रोंकी लुटारु, शोषक, धर्मांध, अवैज्ञानिक अमानविय, निरर्थक कर्मकांड प्रधान सभ्यता और साहित्यका निर्माण किया गया है। इसके प्रबल प्रमाण वेदोमें उपलब्ध है। आर्य अनार्यो की संस्कृति, सभ्यता, जीवनशैली, कर्मकांड, परंपराये, त्यौहार आदिमें छत्तीसके अंक जैसा, विरोध था। दोनोंकी जीवनशैलीमें जमीन आसमानका फर्क एवं पूर्वपश्‍चीम दिशा समान अंतर था। इसी कारणवश आर्य, वैदिकों, ब्राह्मणोंद्वारा रचित वेदग्रंथोंमें अनार्योंकी अव्रत, अन्यव्रत, अकर्मण: अंधश्रध्दान, अदेववू, अनिद्र, अयज्वन, अयाज्ञनिक आदि नामोंसे संबोधा गया है। इस वेद साहित्यमें दिये शब्दोंका अर्थ अव्रत, अन्यव्रत, मतलब व्रत न करनेवाले या वैदिक व्रतोंसे प्रथक व्रत करनेवाले, अनिंद्र का अर्थ इंद्र देवको न माननेवाले, अयज्वन और अयाज्ञिक का अर्थ कोई भी यज्ञ न करनेवाले ऐसा होता है। तात्पर्य जो कर्मकांड वेद, पुरान, श्रृति, स्मृति, ब्राह्मण ग्रंथ आदीकें आधारपर आर्योद्वारा किये जाते थे, ऐसे कोई भी कर्मकांड अनार्य नहीं करते थे। इसी करण अनार्योंको आर्योद्वारा उपरोक्त नामोंसे संबोधा या पुकारा जाता था। इससे भली भांति प्रमाणित होता है कि आर्य अनार्य की जीवनशैली या साहित्य पूर्णत: परस्परविरोधी था। मुलनिवासी, बहुजन, अनुसूचित जाति, जमाति, पीछड़ा वर्ग, भटका, विमुक्त यह जनसमुह ना आर्य, वैदिक, सनातनी, ब्राह्मणी, हिंदू था। वह नाग द्रविड वंशीय और श्रमण जीवनशैलीका और श्रमण साहित्यका निर्माता समर्थक था। वह आजके ब्राह्मण-बनिया जैसा, परोपजीवी, अश्रमी, आलसी, शोषक, जाति, धर्म, वर्ण, देव, दैववादी, निरर्थक कर्मकांडी नहीं था। वह पशुपालक, कृषक, व्यापारी, मेहनती, स्वाभिमानी, निसर्गप्रेमी, समता, बंधुभाव, न्याय, स्वातंत्र्य, शांतता, मातृसत्ताकप्रेमी एवं समर्थक था। यह समय इसापूर्व 1750 के पूर्वका है। आर्य, वैदिक, सनातनी, ब्राह्मणी, हिंदू धर्म, देव देवी, जाति, वर्ण व्यवस्था, मंदिर, मठ, तीर्थक्षेत्र और उनसे संबंधित सभी कर्मकांड यह इसापूर्व 1750 के पश्‍चात निर्माण किये गये है। अत: उपरोक्त बातोंसे मुलनिवासी बहुजनोंका तीलमात्र संबंध नहीं था। किंतु तथागत बुध्द और उनके अनुयायिओंका काल, छोड़कर और छ. शिवाजी, संभाजी, रा. शाहू महाराज का शासनकाल छोड़कर शेष समयमें आर्य, वैदिक, ब्राह्मण राजा महाराजाओं का शासक, राजा बना रहनेके कारण जैसा राजा वैसी प्रजाका व्यवहार बनता रहा और लंबे समयके प्रवाहमें मुलनिवासी अनार्य, बहुजन समुह अपनी, सभ्यता, संस्कृति, साहित्य भूल गया और आज वह ब्राह्मणमय हिंदुमय बना हुआ दिखाई दे रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण यह भी है कि, आर्योने जो अनार्योकें कट्टर और पक्के शत्रु आज भी थे। इन शत्रुओंने अनार्योको अखंड गुलाम बनाये रखनेके लिये सत्ता हाथमें आने के पश्‍चात अनार्योका पुरा इतिहास, उनके महापुरुष, राजा-महाराजा, उनके प्रतिक, उनकी संस्कृति, सभ्यता, साहित्य पुरे नष्ट कर डाले। उन्होंने स्मृति नामक कानूनी धर्मग्रंथ बनाकर उनको शिक्षा, संपत्ती, साधनों, सत्ता आदीसे पुर्णत: वंचित कर दिया गया। क्योंकि आर्योने साहित्य, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, महापुरुषोंके विचार प्रतिको, चिन्हों, शिलालेख, ताम्रपत्र, मुद्राये, निशानों आदीका महत्व और उनका रहस्य बहुतही अच्छे ढंगसे समझ लिया था। अत: आर्योंने अनार्योंको कई युगो तक गुलाम बनाये रखने के लिये जानबुझकर अनार्योंका, आज के बहुजनोंका, भारतीय, मुलनिवासियोंका पुरा इतिहासही नष्ट, भ्रष्ट, विकृत बनाकर उन्होंने उनकी आजकी आर्य, वैदिक, सनातनी ब्राह्मण पुरोहितिक भाटकी, कर्मकांडी, शोषक, जात, वर्ण, धर्मयुक्त पितृ प्रधान, अश्रमण, अमानवी, विषमतापूर्ण, संस्कृति, सभ्यता, जीवनशैली और सासहित्य स्वीकार करने के लिये, अनार्य और बहुजनोंको मजबूर कर रखा है। इसी मजबुरीके कारण आज पुरा बहुजन समुह ब्राह्मणोंका, हिंदु धर्म, हिंदुत्व और हिंदु राष्ट्रका, हिंदू साहित्य और हिंदू देवी देवता, त्यौहारोंका, कर्मकांडोका गुलाम बनकर पशुवत जीवन जी रहा है। प्राचीन समयका, भारत का मुलनिवासी भारत का मालक, राजा, शासनकर्ता, पशुपालक, कृषक, सधन बेपारी आज अश्रमी, परोपजीवी, ब्राह्मण, बनियाका गुलाम बनकर उन्हें देव, भूसूर, भूपति देवबाप्पा, श्रेष्ठ मानकर उनके चरणोंपर नाक और मस्तक टेककर उनका सम्मान बढ़ाकर, स्वयं अपमानीत होकर दु:ख सहकर, कष्ट कर रहा है। भूका, प्यासा मर रहा है और आर्य, वैदिक सनातनी ब्राह्मण, बनिया वर्ग धनकी राशी और घी के तालाबमें तैर रहा है। चर रहा है। भोगवादी जीवनका आनंद ले रहा है। बहुजनोंका शोषण करने में लुटनेमें, उन्हें बेकार, भिकार बनानेमें खुशीयां मना रहा है। भारत के मुलनिवासी, बहुजन, अनार्य, असुर, द्रविड, श्रमणधर्मी, नागवंशी भारतके राजा, शासनकर्ता, मालकको, पशुपालन, कृषक, व्यापारीको आज अपने प्राचीन समयमें कौन थे, कहासे आये, कहा रहते थे, क्या करते थे, भारतके निर्माणमें अपना कौनसा योगदान था और है। हमारी संस्कृति, सभ्यता, जीवनशैली, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजकिय विदेशनीती, व्यापार, सण, उत्सव, त्यौहार, पर्व कौनसे थे। हमारे शत्रु और मित्र कौन थे और आज कौन है। उनका इनके साथ होनेवाला व्यवहार, संबंध उचित है या अनुचित है, यह पुरा इतिहास आर्योकी गुलामीके कारण विस्मृतिके, परदेके आडमें चले जानेके कारण आज बहुसंख्य मुलनिवासी, बहुजन समाज खुदको नागवंशी, द्रविड, श्रमण धर्मी न समझकर हिंदु, शिख, इसाई, मुस्लीम समझकर उनकी गुलामी कर रहे है। खुदको हिंदू, मुस्लीम, इसाई, शिख समझनेवाले बहुजनोंको उपरोक्त जनसमुह रक्त संबंध नहीं रखता। ना बेटी देता है और ना लेता है। इतनाही नहीं तो उच्च पद या उची प्रतिष्ठाभी नहीं देता। केवल नीजी फायदेके लिये बहुजनोंका प्रयोग करता है। फिर भी बहुजन इस भेदभाव को न समझकर उनकी शरणमें जीवन बीता रहे है, यह एक शोकांतिका और बौध्दिक दिवालखोरी एवं गुलामी नहीं तो और क्या है। स्तन पीते संतानकी जन्मदात्रीका यदि देहांत हो गया तो उनका संभाल या पालन पोषण कोई नजदिकी रिश्तेदार, दाई या सौतेली मां करती है। संतती अपनी मृत माताको जानती नहीं या भूल जाती है। वह संतती अपनी सौतेली माताको ही सगी मां समझने लगते है। किंतु सौतेली मां (अपवाद छोड़कर) संततीको सगी मां समान प्रेम और न्याय नहीं देती। वह अंतमें नीजी संततीकाही किसी भी हालातमें भला चाहती है। यही अवस्था वर्तमान समयमें भारतीय मुलनिवासी बहुजनोंकी हो चुकी है। मुलनिवासी बहुजनोंका इतिहास और साहित्य शत्रु आर्य, ब्राह्मणोंद्वारा नष्ट किया जाने के कारण मुलनिवासी बहुजन दुश्मन आर्य ब्राह्मणका इतिहास, साहित्य जीवनशैलीकोही अपनी समझ बैठा है। मुलनिवासी बहुजन अपना साहित्य नष्ट किये जाने के बाद ब्राह्मणी हिंदु साहित्य, वेद, पुराण, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथ, श्रुति, स्मृति, रामायण, महाभारत, गीता, भागवत, 33 कोटी देवी देवता, मंदिर, मठ, तीर्थक्षेत्र, साधुसंत, कर्मकांड, त्यौहार आदीको अपना साहित्य समझ बैठा है। किंतु यह पुरा साहित्य ब्राह्मण हिंदुरुपी सौतोला साहित्य है। सौतोला साहित्य होने के कारण सौतेली मांकी तरह वह सौतेले मुलनिवासी बहुजनोंको प्रेम, न्याय, भला न चाहकर वह केवल और केवल ब्राह्मणोंका ही हित और भला चाहता है। भोला इतिहास भुल जानेवाला आज का निरक्षर, निर्धन मुलनिवासी बहुजन समुह मात्र दुश्मनोंके सौतेले साहित्यके जालमें फसकर उसके पालन और समर्थनमें मर मिटनेको तैयार है, यह मूर्खतासे बढ़कर और कुछ नहीं है। ब्राह्मणी हिंदू कर्मकांडी साहित्यके माध्यमसे आज मुलनिवासी बहुजनोंका बहुमोल समय, कष्टका धन, निरर्थक खर्च हो रहा है। अंधश्रध्दा, अंधविश्‍वास बढ़कर उनका शोषण बढ़ रहा है। और इन कर्मकांडोके, साहित्यके कारण परोपजीवी, अश्रमी ब्राह्मणोंका पोषण और भोगवादी जीवन बढ़ रहा है। उनकी सत्ता, संपत्ती, शिक्षा, साधन, साहित्य, विदेशी संबंध बढ़कर इस बढती हुई शक्तिके माध्यमसे ये बहुजनोंको दबानेमें, शोषण, अन्याय, अत्याचार करनेमें ज्यादा बलशाली बन रहे है। अत: बहुजनोंको ब्राह्मणी व हिंदु साहित्यके षढ़यंत्रको समझकर शीघ्रही उसका त्याग करने की समयकी पुकार है। अन्यथा सभी मुलनिवासी बहुजन इन ब्राह्मण बनियोंके और अंतरराष्ट्रीय वेठ बिगार बननेके और विनाशके कगारपर खड़े है। अनुसूचित जातिको और आलुतेदार बलुतेदार वर्गको छोड़कर, कुछ सीमातक अनुसूचित जमाति, घुमंतु, अर्ध घुमंतु विमुक्त आदंती गुन्हेगार आदी जमाती आर्योंके साथ संघर्षमें पराभूत होने के पश्‍चात इसापूर्व 1750 से इसवी सन 1947 तक जंगल और पहाड़ी क्षेत्रमें गांव शहरोंसे, देवी देवताओंसे, कर्मकांडोसे, मंदिर, मठ, तीर्थक्षेत्रोंसे, व्रत, उपवासोंसे, गीतोंसे,साहित्यसे नहींके बराबर संबंध था। किंतु 1947 के पश्‍चात भारतीय संविधानके कारण धीरे धीरे 1960-65 तक इन जनसमुहका संबंध ब्राह्मण, बनिया, मराठा, मुस्लीम, शिख, इसाई, जाट पाटीदार आदी जनसमुहसे बढ़ा। अत: उपरोक्त पीछड़ा जनसमुह धीरे धीरे गांव शहरोंमे रहनेवाले लोगोंकी जीवन शैलीका अनुकरन करने लगे। साडेतीन चार हजार साल जंगल, पहाड़ोंमें रहनेके कारण पीछड़ा वर्ग जंगलीही बन गया था। उन्हें अपनी प्राचीन संस्कृति, सभ्यता, जीवनपध्दती, संस्कृती, त्यौहार, साहित्यक्षेत्रकी जानकारी नहीं रही थी। वे सब कुछ भूल चुके थे। कुछ पारंपारिक परंपरा, रुढ़ीयां, प्रथाओंका, नीतीओंका पालन कर रहे थे। उनमेें अधं श्रध्दा, कर्मकांड नहींके बराबर थे। वे धर्म, जाति, वर्ण, कर्मकांडमुक्त नैसर्गिक जीवन जी रहे थे। किंतु गांव-नगरोंका जैसा जैसा उनका संपर्क और संबंध बढ़ते गया वैसा वैसा उन्होंने गांव-नगरोंकी लोगोंकी नकल या अनुकरण करने लगे। नैतिकताकोही वे धर्म मानते थे। आर्य, वैदिक, ब्राह्मणी, हिंदू, मुस्लीम, शिख, इसाई, बौध्द, जैन, पारसी आदी धर्मोसे वे बिलकुल अपरिचित थे। वे यहांके शासनकर्ताओंको अपना धर्म बता भी नहीं सकते थे। किंतु यहांके शासनकर्ताओंने उनका नाम जबरदस्ती हिंदू, मुस्लीम, शिख, इसाई आदीकी यादियोंमें जोड देने के कारण वे भी हम इसी धर्मक है, ऐसा मानने लगे। मानवी नैतिकताके स्थानपर गांव-शहरके लोगोंने जिस देवी, देवता, ग्रंथ, आदीके नामसे मानव निर्मित धर्म निर्माण किया था, उसी धर्मको मजबुरन उन्हें स्वीकार करना पड़ा। काल के प्रवाहमें जिस धर्ममें उनपर अन्याय, अत्याचार होने लगा, उस धर्मको छोड़कर अन्य धर्मका स्वीकार उन्हें करते रहना पड़ा। अन्यथा भारतीय पुरा मुलनिवासी-आदिवासी, पीछड़ा वर्ग, घुमंतु, विमुक्त यह जनसमुह जात, वर्ण, धर्म, कर्मकांडमुक्त, नैतिकतापर आधारीत था। किंतु कहावत है कि ‘जैसी संगत वैसीही पंगत’, होती है। वैदिक हिंदुके साथ रहनेके कारण और वैदिक हिंदू का राजा, राजाका प्रभाव, दबाव, कानून, संस्कार, प्रचार प्रसार आदी सभी कारणोंके कारण सभी भारतीय मुलनिवासियोंको, बहुजनोंको हिंदू, हिंदुत्व, और हिंदू धर्ममें सम्मिलीत होकर समर्थन देना और हम भी हिंदू ही है एैसा कहना, मानना, समझना, प्रचार प्रसार करना, लड़ना साहजिक बाते, स्वभाविक व्यवहार बन चुका, इसमें कोई संदेह नहीं है। सिंधू घाटिकी मोहेंजोदड़ो और हड़प्पा और परिक्षेत्रकी आदर्श सभ्यता और संस्कृतिके निर्माता मुलनिवासी बहुजनोंका साहित्य इसापूर्व 1750 के लगभग शत्रु आर्योंके द्वारा नष्ट कर दिया गया यह मैने पीछले पृष्ठोंमें बतायाही दिया है। इसापूर्व 1750 के पश्‍चात मुलनिवासी बहुजनोंका साहित्य इसापूर्व 400 में तथागत बुध्दने निर्माण किया था। यह साहित्य भी वैदिक धर्मगुरु शंकराचार्य द्वारा इसवीसन 800 के पश्‍चात नष्ट करनेका प्रयास किया गया। किंतु बुध्द प्रचारके भिक्खु और भिक्खुनीओंने दुनियाके कोने में पहुचाया। आज भारतमें बुध्द धर्मका अस्तित्व कुछ कम मात्रामें दिखाई देता है। परंतु चीन, जपान, श्रीलंका, कंबोडिया, थायलंड और अन्य अनेक देश पुरे बौध्दमय बन गये है। आठवी शताब्दीके बाद अनेक मुलनिवासी बहुजनोंके सुधारको और संतोने बहुजनोंका सच्चा साहित्य निर्माण करनेमें बहुत बड़ा योगदान दिया है। इन सुधारको और संंतोंमे विशेष रुपसे, बसवेश्‍वर, रोहिदास, कबीर, नामदेव, तुकाराम, गुरुनानक, गुरुनारायण स्वामी, रामा स्वामी, पेरियार, सावता, चोखा, रहिम, छ. शिवाजी, संभाजी, रा.शाहु, म. फुले, डॉ. आंबेडकर, गाडगे महाराज, तुकडोजी, सावित्री, अहिल्याबाई, जिजाऊ, बहिणाबाई, आदी सुधारकों और संतोकी गणना होती है। आदिवासी, घुमंतु, अर्ध घुमंतु, विमुक्त, आदी जनसमुहोंका साहित्य 1750 के इसापूर्वके पश्‍चात नहीं के बराबर था। किंतु 1947 के बादमें उपरोक्त वर्गका कुछ साहित्य लिखना आरंभ किया। इन वर्गोंका साहित्य मतलब जनसमुहका चरित्र, अनेक प्रकारकी रचनाये जैसे आत्मचरित्र, कथा, कादंबरी, नाटक, एकांकी, निबंध, काव्य, आदीके माध्यम से वास्तव स्वरुपमें लिखा है। इन लेखकों, कविवों, निबंध, काव्य, नृत्यकारोंमें प्रमुख रुपसे रामनाथ चव्हाण, लक्ष्मण माने, नागनाथ धों कदम, आश्रु जाधव, रामलिंग कुंभार, प्रमोद गारोडे, पंजाब पुंडकर, धोंडीराम बडकर, मोतीराज राठोड, उत्तम कांबळे, विमल और रुख्मीनी पवार, के.ओ. गिर्‍हे, प्रभाकर मांडे, डॉ. ज्ञानेश्‍वर वाल्हेकर, डॉ. सुरेश पैठणकर, दादासाहेब मोरे, भीमराव गस्ती, पार्थ पिळके, जनाबाई गिर्‍हे, किशोर शांताबाई काळे, व्यंकप्पा भोसले, भोई बेलदार, मोहन भोईर, मारोती चित्तमपल्ली, उत्तम बंडू तुपे, आर.के. त्रिभुषण, अशोक पवार, वसंत मुन, सिंधूताई सपकाळ, दीपा महानवर, गुलाब वाघमोडे, वैजनाथ कळसे, ल.स. रोकडे, गिरिश त्रिभुने, रमेश पिंग्या काळे, पांडुरंग पाटील, अतुल देवळगांवकर, भगवान इंगळे, जाधव सामंत, लक्ष्मण ओहळ, पंजाबराव चव्हाण, प्रभंजन चव्हाण, मारतीया भुकिया, ग.ह.राठोड, रावजी राठोड, प्रकाश राठोड, यशवंत मनोहर, रमेश राठोड, रमेश जाधव, वामनदादा कर्डक, नामदेव ढसाळ, श्रीराम जाधव, मांगीलाल राठोड, विभावरी शिरुरकर, रणजित देसाई, अण्णाभाऊ साठे, शंकरराव खरात, महादेव मोरे, व.का. बोधे, मधुकर वाकोडे, विठ्ठल पालसांडे, उत्तम बंडू तुपे, ही. रा. वाघमारे, सुरेश घोरपडे, चारुता सागर, अमर राठोड, प्रदिप गायकवाड, त्र्यंबक नारायण अत्रे, वसंत मुंडे, ज्ञानोबा मुंडे, राजेंद्र वाघ, यशवंत जाधव, आत्माराम राठोड, बळीराम पाटील, रुपला नायक, एन.के. नाईक, उध्दव थोरवे, मधुसुदन साठे, एकनाथ पवार, सुरेश पुरी, गणपतराव संख्ये, रामनाथ वाढे, भास्करराव आव्हाड और अन्य अनेक अज्ञात साहित्यिकोंने आदिवासी, घुमंतु, विमुक्त, जनसमुहका साहित्य निर्माण करनेमें बहुतही बड़ा योगदान दिया है। उपरोक्त लेखक, कवि, नाटककार, कथाकारादि साहित्यिकोंकी सुचि या नामावली मैने केवल महाराष्ट्र राज्यकी दी है। देश के अन्य राज्योंसे भी ऐसे अज्ञात हजारो साहित्यिक है, जिन्होंने पीछड़े एवं बहुजन समाजका इतिहास, संस्कृति, सभ्यता, जीवनशैली, सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजकिय अवस्थापर प्रकाश डालकर अन्यायित, शोषित समाजको जागृतकर अधिकारोंके लिये संघर्ष करनेको मार्गदर्शन किया है। आर्य भारतमें आने के पूर्व इसापूर्व 6000 से इसापूर्व 3249 तक भारतमेें केवल मुलनिवासी बहुजनोंकाही साहित्य था। इसापूर्व 3250 से इसापूर्व 1750 तक सिंधू धाटी जनसमुहका (मोहेंजोदड़ो और हड़प्पा एवं परिक्षेत्रका) इतिहास और साहित्य समृध्दिके, विकास के शिखरपर था। किंतु इसापूर्व 1750 के लगभग आर्योंने यह सभ्यता नष्ट कर डाली और यहांसे वैदिक एवं आर्य सभ्यता का आरंभ हुआ। यह आर्य, वैदिक सभ्यता इसापूर्व 1500 से इसापूर्व 600 तक रही। इसके पश्‍चात इसापूर्व 563 से इसापूर्व 184 तक तथागत बुध्द और उनके अनुयायिओंकी सभ्यता, संस्कृति एवं साहित्य बना रहा। इसापूर्व 184 के बादसे इसवीसन 1205 तक और वैदिक एवं ब्राह्मणी सभ्यता, संस्कृती बनी रही। सन 1206 से 1857 तक आर्य ब्राह्मणोंके सहयोगसे मुगल मुस्लीम शासन, सभ्यता और साहित्य का वर्चस्व रहा। बीच के समयमें सन 1674 से 1708 तक मराठोका शासनकाल रहा। मराठोके शासनकालमें कुछ सीमातक बहुजनोंका साहित्य निर्माण हुआ। इसके पश्‍चात 1713 से 1818 के ब्रिटिशके शासनकालमें ब्राह्मणी साहित्यपर कुछ बंधन अवश्य लादे गये. किंतु रा. शाहु महाराज, म. फुले, डॉ. आंबेडकर और उनके समकालीन और सम विचारी साहित्यिकोंने ब्राह्मणी साहित्यपर वज्र आघात किये और आर्य वैदिक, ब्राह्मणी साहित्यकी तीव्रताको कम करते हुये भारतमें 1947 को ( 26 जनवरी 1950 को) लोकतंत्रकी स्थापनामें बहुत बड़ा योगदान दिया। किंतु शासन प्रशासनमें 1947 के पश्‍चात भी ब्राह्मणी वर्चस्व बना रहनेके कारण और डॉ. आंबेडकर लिखित संविधानपर अंमल न होते रहनेके कारण आज भी देशमें ब्राह्मण साहित्यका (हिंदु साहित्यका) आतंक बना हुआ है और बहुजनोंका साहित्य निर्माणमें आनेकानेका रुकावट निर्माण होकर अन्याय अत्याचार तो बढ़ही रहे है। किंतु बहुजन साहित्य और विचारोंके समर्थक डॉ. नरेंद्र दाभोळकर, गोविंद पानसरे और कलबुर्गी जैसे महापुरुषोंकी हत्याये की जा रही है। अत: बहुजनोंको सचेत होकर अमानवी ब्राह्मणी और हिंदू साहित्यका विरोध कर अपना नीजी प्राचीन मानवतावादी, समतावादी धर्म-जातिनिरपेक्ष और कर्मकांड मुक्त साहित्य निर्माण करनेके साथही शासन और समाज निर्माण करनेकी समयकी पुकार है। किसी एक विद्वान इतिहासकारने कहा है कि, ‘‘जहा सूरज नहीं दिखता वहा अंधेराही अंधेरा रहता है। जिस समाजका अपना साहित्य और शासन नहीं रहता, वह बरबाद हो जाता है।’’ जयभारत-जयजगत प्रा. ग.ह. राठोड, औरंगाबाद

G H Rathod

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