प्राचीन भारत के शासक नाग, उनकी उत्पत्ति और इतिहास

प्राचीन भारत के शासक नाग, उनकी उत्पत्ति और इतिहास डॉ. नवल वियोगी

दि. 31/1/2023 प्राचीन भारत के शासक नाग, उनकी उत्पत्ति और इतिहास डॉ. नवल वियोगी महाभारतकाल 950 इ.पू. से आधुनिक काल 1947 तक तक्षक परिवारने भारतमे राज किया है। ॠग्वेदमे वशिष्टोंको खेतयाम यानी गोरे तथा कण्वोंको स्वावो याने काले रंग...........का कहा है। नागपुजाका जन्म भूमध्य सागर तट के पूर्वी भाग यानी असीरिया, फिलीस्तीन व इजरायलमे हुआ। असीरियाके समुद्र किनारेपर नागपुजाका जन्म होनेका मुल कारण यह बताया जाता की उक्त जीवमे (नागमे) विलक्षण मानसिक व शारीरिक शक्ति बताई गई है। नाग जीवके पैर न होते हुये भी अन्य साथी जंतुओंसे वह तेज दौड़ सकता है। अपनी शरीरसे पुरानी खाल (केंचुली) उतारकर व दुबारा नवयोवन नवशक्ति प्राप्त कर सकता है। अपनी लंबाई बढ़ा सकता है। जहरीले दांतोसे काटनेसे (दंश करनेसे) वह शत्रुसे लोहा ले सकता है। वह अपने अंगको कहीसे भी मोड लेता है। लंबा होते हुये भी वह अंगको सिकुडकर थोडी जगहमे आरामसे बैठ सकता है। उसकी इस विलक्षण शक्तिके कारण वह मानव जातिके लिये बेहद आकर्षण और श्रद्धाका केंद्र बन गया और अहिस्ता अहिस्ता मंदिरोंका पूज्य देवता बन गया। इसके पश्‍चात इराणमें नागपूजा व राजसत्ता पहुचनेके पुष्ठ प्रमाण मिलते है। महाभारत ग्रंथके अनुसार नागोंकी उत्पत्ति प्रजापतिकी बेटी कद्रुको कश्यप ॠषिसे हुयी। कश्यम ॠषि यह अनार्य माना गया। पूर्वके प्राचीन वीर सीतारे मिहिराल व रुस्तुम नाग जातिकी संताने मानी गई है। (31) आर्योके आने के पूर्व नाग लोक इराणमे निवास करते थे और वहासे वे प्रथम अफगाणिस्तान पहुचे। वहांसे वे तक्षशिला पहुचकर पुरे भारत मे फैल गये। तक्षशिला यह नागोंका मुख्य केंद्र था (23) नाग तथा तक्षक दोनोंही पूर्व ऐतिहासिक कालमे प्रसिद्ध नागवंशी है। वे अवश्यही बहुत बड़े सृजक तथा भारतके निर्माता थे एवं अंतमे मध्ययुग मे (असुरगढ़) मे अधिकार जमाकर बैठे थे। (21) तक्षशिलाका निकटतम संबंध काश्मीर धाटीसे है। वासुकी नाग का निवासस्थान कश्मिरमे कमलाशकी चोटीपर बताया जाता है। लोहारा कर्कोटक गोनंदा और नागपाल नागवंशोने कश्मिरपर राज किया था ऐसा बताया गया है। वे अपनी उत्पत्ति सातवाहनोसे बताते है। (22) 1) तक्षशिला नागोंका तक्षकोंका यानी नागवंशियोका प्रमुख केंद्र था। वहासे चलकर नाग, कश्मिर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराचल, नेपाल, आसाम, मनीपुर आदि क्षेत्रोंमे फैल गई। खासी नाग जातियोंकी संख्या अधिकतम थी। पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाना, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र आदि प्रदेशोमे भी नाग मंदिर और नागवंशीय जातियां पाई जाती है। (49) 2) मध्यपूर्व देशोंमे आधुनिक इराक, इराण, सिरिया, इजरायल, फिलीस्तीन, अरब आदी देश आते है। राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक प्रभाव के कारण मिश्र, ग्रीक, सायप्रस भी आता है। किंतु सभ्यताका सबसे बड़ा केंद्र अतीतमेें मेसोपोटामियाही था। यह दजला और फरात इन दो नदियोंके बीचका क्षेत्र है। यहा 5000 इ.पू.में काली चमडीवाले सुमेरियन लोग आ बस गये थे। यह सुमेरियन गोल सिखाली जाति थी। दुसरी एक सेमाईट लंबे सिखाली जाती भी इ.पू. 3500 में मेसोपोटामियामें आ बसी। (74) सेमाईट लंबे सिखाली भूमध्यसागर तटीय प्रकारकी द्रविड़ जाति थी। सिंधू घाटीके पूर्व द्रविड़ (भूमध्यसागर तटीय) निवासी तथा गोल सिखाली अल्पाईन लोग मिश्रित अवस्थामे इ.पू. 2100 के लगभग रहते थे। 3) ॠग्वेदिक वर्णनके अनुसार पणि (वणिक) भारतके पूर्व आदिवासी थे, जिनका आर्योके सैनिक प्रमुख इंद्रके साथ टकराव हुआ। (78) ये चरवाहे थे। 4) पाली बौद्ध साहित्यके अनुसार शाक्य हल चलानेवाले कृषक थे। बुद्धके पिता स्वयं हल चलाते थे। मध्य व पूर्वी उत्तर प्रदेशमे शाक्य अथवा शक्का (काछी) नामकी एक जाति आज भी है, जो सब्जी बोने और बेचनेका धंदा करती है। यह जातिका नाम व धंदेकी समानता, उनका संबंध अवश्यही बुद्धके परिवारसे उन्हें जोडती है। विदेह इक्क्षवाकुओंकी एक शाखा थी। विदेह जनजातिका मुख्य धंदा बैलगाडीयोंसे माल ढोनेके सार्थवाह अथवा कारवा चलाना था। वे सेकड़ोकी संख्या मे एक शहरसे दुसरे शहर तक बैलगाडियोंक कारवा चलाते थे और व्यापार का माल ढोते थे। ए.डी. कोसंबीका कहना है कि सार्थवाह जनजातियोसे अधिक महत्त्वपूर्ण व्यापारी थे, जो आम तौरपर सार्थवाह या वैदेहिक कहलाते थे, जिसका अर्थ है, विदेह जनजातिसे संबंधित सभी व्यापारिओंका संबंध एक जनजाति या जनपदसे नहीं हो सकता। विदेह जनजाति अब समाप्त हो चुकी है। बौद्ध धम्मकी जातक कथाओंकेनुसार ऐसे सार्थवाहओंके 500-500 गाडीयोंके विशाल काफीले, चोर डाकुओ, जंगली जानवरोंकी कठिनाई झेलते हुये रात-दिन भारतके बौद्ध जंगली व रेगीस्तानोंके विभिन्न व्यापारिक मार्गोपर चला करते थे। मनु (ु-13 तथा 19 अनुसार विदेह वैश्य पुरुष व ब्राह्मण स्त्रीसे उत्पन्न शुद्र थे। 98 अबसे कुछ सदी पूर्व तक बंजारा नामकी जाति ऐसे काफिले चलानेका धंदा करती थी। मगर अच्छे मार्ग न होनेके कारण गाडियोंके स्थानपर बैलों (वधियोंसे) माल ढोनेका काम करने लगे थे। बड़े काफिलोके स्वामी लखी बंजारे कहे जाते थे। शक्क तथा बंजारे दोनोही जातिया आज पिछड़े वर्गमे आती है। यानी आज वह शुद्र है औीर यही उन्हे न ढुंड पानेका कारण था। यह बात विशेष ध्यान देनेकी है कि आदिवासी जनोंका संबंध एकही खून और धंदोसे जुड़े गणसंघोसे था, जिन्हे गुप्त युगमें शक्तिके बलपर आर्यकरण करके उन्ही धंदोकी जाति बना दिया गया और मनुके कठोर कानुनोंके शिकंजेमें करा दिया गया। (जयस्वाल के.पी. हिस्टरी ऑफ इंडिया झझ 210-11) जो आज भी यथावत जारी है। अत: शाक्य (शक्के) व विदेह (बंजारे) अपने प्राचीन धंदे नही बदल पाये। बादमें उनका धंदा रेल्वेने छिन लिया) (ग्रंथरचियता) (99) 5) सुमेरकी जनसंख्या दो प्रकारकी जातियोंसे मिलकर बनी थी। एक पूर्वसे आनेवाली गोल सिखाली अल्पाईन तथा दुसरी पश्‍चिमके मरूस्थलसे आनेवाली लंबे सिरवाली भूमध्यसागर तटीय प्रकारकी सेमेटिक अकादियन या हाईक्सोसा इन सेमेटिक या हायक्सोस लोगोंने 1750 इ.पू. मे मिश्रपर आक्रमण किया था। तथा वहां काफी समय तक शासन भी किया था। डॉ. बुद्ध प्रकाशने इन हायक्सोस लोगोंको ॠग्वेदिक वर्णन के अकाकू या यक्षू तथा पुरोणोंके इक्सवाकुओंके रुपमें पहचाना है, जो संभवत: पश्‍चिमकी एशियापर हिट्टीटी आक्रमणके परिणाम स्वरुप अथवा उससे पूर्वही पलायन कर भारतमे आ बसे थे। जिस प्रकार मानवकी सर्वाधिक प्राचीन सभ्यताने उक्त क्षेत्रमे जन्म लिया, उसी प्रकार अनेक धार्मिक, सामाजिक, राजनितिक तथा आर्थिक रीतिरिवाजोने भी सबसे पहले वहीपर जन्म लिया। यथा मातृदेवी व नाग देवताकी पूजा, राजॠषि प्रथा, सर्व शहरियोंकी सैनिकराष्ट्र प्रकार की सैनिक व्यवस्था, नगर राज्य, गणसंघ शासनकी परंपरामे आदी तथा सुमेरियन लोगोंके भारत आगमनके सासथ वह परंपराये भी भारत पहुच गयी, जिन्होंने सिंधू घाटीकी महन सभ्यताकी स्थापना की। मातृप्रधान परिवार तथा उत्तराधिकारकी सामाजिक परंपरा जिसका प्रचलन मिश्र, अरब, इजरायल, क्रेटद्विप तथा सुमेरियामे पाते है। यही परंपरा भारत भी पहुच गयी। भारतमे ॠषभदेव, पार्श्‍वनाथ, इक्ष्वाकु, शाक्य, सातवाहन आदीके परिवारोमे प्रचलीत पाते है। यही कारण है कि, इनमेसे कई परिवारोंमे भाई-बहनोंकी शादीकी प्रथाका प्रचलन देखा जाता है। माताये परिवार, संतान, धनदौलत तथा राज्यकी स्वामीनी होती थी। जब कि आर्योमे पितृप्रधान परिवार थे। यह लोग अनार्य नाग नही थे। आर्य कहलाते थे। शामशास्त्रीके अनुसार बौद्ध जैन धर्म व कपिल के सांख्य दर्शन का मूल असीरियन धर्म मे था। ये सब असुरोके धर्म माने जाते थे। आर्योके मध्यशियासे आनेसे पूर्व भारत तथा पश्‍चिमी एशियाके समाजोंमे सांस्कृतिक, सामाजिकि, धार्मिक, राजनैतिक व भाषाई समानताये थी, तया दोनोही क्षेत्रोंके मनुष्य तथा उनकी सभ्यता आर्योसे भिन्न थी। इन इक्क्षवाकुओंका संबंध उन द्रविड़ लोगोंसे था, जिनकी किसी पूर्व शाखाने सिंधू घाटी तथा सभ्यताकी स्थापना विकास की थी। (101) 6) दीघनिकायकी महापरिनिर्वाण सूत्तमे कहा गया है, कि रामग्रामके निवासिया (कोलियो) का संबंध नाग जातिसे है। वे शाक्योंकी एक शाखा थे। तथा महात्मा बुद्धके नाना थे, जो बुनकर थे। कि संयुक्तनिकायमे अजातशत्रुको विदेहपुत्र कहा गया है। स्वामी (बुद्धने कहा, ऐ भिक्षुओ, देखो, जैसे ये लिच्छवी रहते है, लकडीके लठ्ठको सिरहाना बनाकर सोये है, मजबुत है, परिश्रमी है, उत्साहित है और तीर चलानेमें कुशल है। विदेहपुत अजातशत्रु मगधका राजा उन्हे हरा नही सकता, न ही उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही करनेका बहाना तलाश कर सकता है। हम जाते है, शिशुनाग इक्क्षवाकु वंशसे संबंधित था। अत: विदेह अथवा इक्क्षवाकु अथवा शाक्यभी नागवंशी हुये थे। विदेह माल ढोनेकी गाडियोंके बड़े बड़े कारवां चलानेका धंदा करते थे। यही कारण है कि ये कारवां विदेही नामके पीछे वैदेहिक पुकारे जाते थे। ऐसा ही धंदा मशीनी युग के पूर्व बंजारा जातिके लोग करते थे। जो मार्ग ठिक न होनेके कारण गाडियोंके स्थानपर बैलो (वाधियोपर) माल ढोते थे। लखी बंजारे की कहानियां जग प्रसिद्ध है। दोनों जातियोंका संबंध स्पष्ट दिखाई देता है। (149) 7) पश्‍चिम एशियामे प्राचीनतम मानविय सभ्यताके विकासका रहस्य दो जातियोंका संगम रहा है। एक गोल सिखाली अल्पाईन तथा दुसरी लंबे सिखाली सेमेटिक जाति, जिन्होंने पहले भूमध्य सागरके पूर्वी तटपर और फिर सुमेर तथा क्रेट द्विप के मानव सभ्यताका दिप जलाया। वास्तवमे पहली जाति आत्मज्ञानकी विशेषज्ञ थी, जो मानव जातिकी बर्बता के मानविय अवगुणोंको समाप्त कर उसमे संयम अनुशासन, मानवता व भाईचारेकी भावना उत्पन्न करता है। दुसरी जाति बहुत बड़ी तकनीशियन यानी शिल्पिक व व्यापारी थी, जो मानविय जातिके विकासका मूलमंत्र है। अत: चौथी बार जब ये दोनो जातिया लगभग 2800 इ.पू. मे सिंधू धाटीमे एकत्र हुयी तो उन्होंने सिंधू घाटीकी महान सभ्यताको अपने विकास की चरम सीमापर पहुचा दिया। मगर भारतमें मध्य एशियाकी अर्धसभ्य, बर्बर गोरी आर्य जातियोने आक्रमण कर परिश्रमसे खड़ी की गई सभ्यता को खंडहरोंमे बदल दिया। यह मानव जातिका दुर्भाग्य था। परिणाम स्वरुप सिंधू घाटीकी महान सभ्यता विनष्ट हो गई। मगर महाभारत के युद्ध के बाद बर्बर आर्य सभ्यताका र्‍हास होने लगा और शक्तिशाली प्राचीन संघव्यवस्था का पुन:विकास होने लगा। शिल्पिक लोगोंके गाव संघोंमे और संघ महासंघोमे विकसित हो गये। (154) 8) बुद्ध के जवीन कालमे हमे ऐेसे अनेक जनतांत्रिक संघ मिलते है। यथा शाक्य, वुली, कोलीय, मोरीय, विदेह, लिच्छवी, क्षुद्रक, मालव, आंध्रक, वृषिनी, भद्रक, औधेय आदी। यह बात ध्यानमे रखनेकी है, कि भलेही शाक्य कृषक थे, लिच्छवी चरवाहे थे, कोलीय बुनकर थे, विदेह कारवां चलाते थे। मगर उन्हें ग्रंथोंमे सदैव शाक्य, लिच्छवी, कोलीय, विदेह, जो उनकी अलग अलग जातियोंका नाम था, के नामसेही पुकारा गया है। धंदे के नामसे कभी पुकारा नही गया। जाति व्यवस्थाका आधार धंदे थे, यानी सभीको धंदेके नामसेही पुकारा जाता था। आदिवासी सामाजिक व्यवस्था तथा आर्य वर्णव्यवस्था यही मुल अंतर था। जब मानव सभ्यताने ताम्र युगको त्यागकर लोह युग मे प्रवेश किया तो उसकी प्रगतिमे भी भारी तीव्रता आयी, उत्पादन बढ़ा, मानवको अधिक सुख साधनोंकी प्राप्ति हुयी और पहली बार कपडे का अधिक प्रयोग आरंभ हो गया। अत: वस्त्र उत्पादनसे संबंधित संघ अधिक फलने फुलने लगे, यथा आध्रक, भद्र, मालव, वहिका तथा तक्षक, कोलीय आदी। तथक अथवा वहिका लोगोंने पंजाबमे अपने महासंघ बना लिये। इन महासंघोंके प्रमुख अथवा खलिफा भी शक्तिशाली हो गये। बादमे इन तक्षकोंकी कितनीही शाखाओने देशके विभिन्न भागोंमे अपनी सत्ता स् ापित कर ली। जैसे मगधमे मौर्य, एरण विदिशा के नाग, पद्मावतीके भारशिव, पैठणके सातवाहन आदी। उनकी इस महान सफलता का मूल कारण था, ये धनवान कुशल कारागीर थे, बहादूर सैनिक थे, तथा वे अवश्कता पडनेपर युद्ध के लिये स्वयं का महासंघ बना लेते थे। बादमे पद्मावतीकी भारशिव शाखा विंद्या पर्वतमे जा बसी। आज भी वहा भार तथा राजभर ऐसी दो शाखाये है। मांडा तथा विजयपुरके परिवार उन्हीके संतान है, ऐसे कुछ विद्वानोंने विचार रखे है। पातालपुरी के शक वंशकी शाखाने मौर्य राजवंशको जन्म दिया। चित्तोडके परमार राजपुत उन्हीकी संतान है। महाराष्ट्र के मराठे कुरमी तथा महारोंका संबंध सातवाहनोसे है। निश्‍चयही क्षत्रिय समाज उसी परिवारकी जनजातिके अवशेष है जो मूलरुपमे वस्त्र उत्पादन तथा उन्हे सजाने संभालनेका धंदा करते थे। बादमे मशीनोंने उनके मूल धंदे छिन लिये और केवल वो धंदे गले पड़ गये, जिनका मशीनीकरण संभव नही ा। तक्षक बुद्धके जीवनकालमे रजक नामसे जाने जाते थे जिसका अर्थ रंगरंज या कपडे धोनेवाला था। मगर यह उत्पादन का धंदा था, सेवा का नहीं। कारण संघ समाजके लोग सेवा या भाडेपर काम करने को महापाप मानते थे। इसी कारण रजक शब्द अपमानका प्रतिक नहीं था। इसका मूल अर्थ भांडारकरके अनुसार महासंघोकी शासन समिती, यानी राजाओ अथवा कुलकाओंकी समिती था। क्योकि संघ समाजका प्रत्येक सदस्य स्वयंको राजा या क्षत्रिय कहलाता था। वे वास्तवमे वीर क्षत्रिय थे, जिन्होंनेही बादमें राजपुतोंकी शुर वीरता की गौरवशाली प्रथाको जन्म दिया था, यानी वह गौरवसे सिर उठाकर चलनेवाला वीर क्षत्रिय भी था और उत्पादक भी जो शक्ति, समृद्धि और गौरव का प्रतिक था। मगर गुप्तने उन्हे अंधविश्‍वास और अमानवताकी प्रतिक जातिवादी हिंदू वर्ण व्यवस्था तथा शोषण, गुलामी, जोर जबरदस्ती की प्रतिक, सामंतवादी प्रथाके दो पायेंकी चक्कीमे डालकर पीस डाला। अत: वे आर्थिक और सामाजिक तौरपर स्वयंही नीचे आ गिरे। दीन, हीन कमजोर बन गये। क्योंकि उनकी तलवार और सत्ता दोनों छिनी जा चुकी थी। अत: वे असहाय बन गये और प्राचीन कालके सम्माननीय उत्पादन के धंदो की शान हिंदुत्वने डूबो दी। रजक शब्द जो पहले समृद्धि, शौर्य, सम्मान तथा शान और शक्तिका सूचक था, अब अपमानका प्रतिक बन गया हैं। (155-56) 9) भारतमे अनार्य आदिवासियोंमे अल अथवा टोटमकी परिपाटी थी। अर्थात प्रत्येक जाति तथा जनजातियां कोई विशिष्ट कुलदेवता या दैवत होता था, जो कोई भी पशु-पक्षी अथवा पेड पौधा हो सकता था। नाग लोग नागकी पूजा करते थे और विशेष अवसरोपर नाग फनोंके चिन्ह धारण करते थे। ॠग्वेदमे नाग अहिवृत्रका वर्णन है, जो इंद्रका शत्रु था। इसी प्रकार अथर्ववेदमे अलिगी -विलिगी नामोंका वर्णन है। काले और लाल मृदभांडो; जिनकी कलाका विकास लोथलके पूर्व निवासिओंने किया था, का प्रयोग बादमे हड़पाईयों तथा उनके वारिसोने किया। बादमे जिनका प्रयोग मध्य भारतमे, दुसरी सहस्त्राब्दी 2000 इ.पू. के ताम्रयुगीन लोगोंने किया तथा दक्षिणमे महापाषाण सभ्यताके लोगोंने 1000-100 इ.पू. तक लोह युगमे किया। यह सभ्यता बादके हड़पाई यानी द्रविड तथा अल्पाईन लोगोंकी थी। जिन्हे प्रभाष पाटनकी खुदाईमे प्राप्त पुरातत्वीय प्रमाण तथा पौराणिक कथाओंके वर्णनोंके आधारपर यादवयोंकी सभ्यताके रुपमे पहचाना गया है, जो मूलरुपमे गोल सिखाले अल्पाईन इराणी लोग थे। गुजरातमे आनेपर वे वहांके आदिवासी द्रविड़ लोगोंके साथ घुल मिल गये थे। डॉ. सांकलीया के अनुसार अहाडमे मिले मृदभांडोके आधारपर अल्पाईन तलोग अनातोलिया, असीरिया तथा इराणसे आये थे, जिन्हे सिंधके रास्ते गुजरात पहुच गये। ॠग्वेदिक वर्णन के अनुसार यदु असंस्कृत भाषी अनार्य लोग थे। उनकी भाषा शौरसेनी थी, जिसे पुराणोमे म्लेच्छ भाषा कहा है। ॠग्वेदमे (ु-62-10) मे यदु तथा तुवासाओंको दास कहा गया है। बेबीलोनिया, असीरिया तथा इराणमे नाग पुजा तथा टोटेमकी प्रथा प्राचीन कालसेही प्रचलनमे थी, जिसे द्रविड व अल्पाईन लोग अपने साथ भारतमे लाये। इसकी पुष्टी सिंधु घाटीकी मुहरो तथा पुहर छापोसे, ॠग्वेद व अथर्व वेदमे नाग राजाओंके वर्णनोसे होती है। यादव जातिको नायक कृष्ण-विष्णु अवतार होने के साथ साथ वासुदेवका बटा था तथा आर्याका पडपोता था और एक नाग मुखीया था। उसके बड़े भाई बलदेवके सिरपर शेषनागके फनोकी छाया रहती थी। साथही उसे शेषनागका अवतार बताया जाता है। यादव लोग मूलरुपमे इराणी थे और नाग लोग थे। बादमे इनकी संतानोने विभिन्न नामोंसे ऐतिहासिक कालमे भारतमे राज किया। (215-16) 10) विद्वानोंने प्राचीन वास्तवकी जनसंख्या को चार भागोंमे बाटा है। अ) उत्तरपश्‍चिमके आर्य ब) पश्‍चिममे पश्‍चिम मानवाह यानी द्रविड-इराणी जिन्हे बादमे यादव कहा गया है। क)उत्तर पूर्वी मानवाह जिनका संबंध इक्क्षवाकू आदी नाग जातियोंके साथ था। ये लोग द्रविड अल्पाईन जातिकी मिश्रित नसलमे संबंधित थे, मगर द्रविड तत्व प्रमुख था। इन्होंने बौद्ध और जैन धर्मको जन्म दिया। ड) चौथी दक्षिण भारतकी द्रविड भाषाये बोलनेवाली जातिया थी। (239) ॠग्वेदिक कालमे आर्य अनार्योमे दो प्रसिद्ध युद्ध हुये। पहला सुदासका पिता चायवान तथा हरियुपिया या हड़प्पाके राजा वरशिखासे हुआ। इसमे राजाके साथ साथ 3000 रक्षक मारे गये और अनाज गोदाम के साथ साथ शहरको लुट लिया। दुसरा युद्धस आर्य सुदास तथा अनार्य राजाओंमे रावी के किनारेपर हड़प्पाके निकट हुआ। इस युद्धमे 10 राजाओंकी हार हुई और ॠग्वेदिक कालके भारतपर आर्योका नायकत्व स्थापन हो गया। मगर यह आर्य अनार्यो का संघर्ष अनंतकाल तक चलता रहा। महाभारतके विनाशकारी युद्ध के बाद वैदिक राजा तथा सभ्यताका र्‍हास प्रारंभ हो गया तथा नाग श्रमण सभ्यताने अपने कदम जमाने प्रारंभ कर दिये। ॠग्वेदिक युद्धके हारके बाद अनार्य नाग जातियां पूर्व दिशाकी ओर भागी वे नागर, ढडेरी, कतपालोके रास्ते कुरुक्षेत्रके पास भगवानपुर जा पहुचे। किंतु आर्य उनका पीछा करता रहे। अंतमे वे उस स्थानको छोड़कर हस्तिनापुर जा पहुचे। किंतु आर्य उन्हे वहांपर भी धमकाने पहुंच गये। नागोका आर्य पांडव अर्जुनने भारी विनाश किया। लेकीन उनकी पूरी हान नही हुयी। यह संघर्ष लंबे समय तक चलता रहा। परिणाम स्वरुप पांडवोंकी शक्ति क्षीण होती गई। 800 इ.प. के लगभग एक विनाशकारी बाढ़के बाद वे हस्तिनापुर छोड़कर कौसंगबी चले गये। हस्तिनापुर पर पुन: नागोंका अधिकार हो गया और उसका नाम बदलकर हस्ती नागपूर रख दिया। हस्तिनापुरसे आगे बढ़कर जैन परंपराके नागोने पंचालपर अपना अधिकार जमा लिया। उत्तरमे उनकी राजधानी अहिच्छत्रा थी, जहापर 23वे तिर्थंकर पार्श्‍वमुनी का एक प्रमुख केंद्र था। उससे भी आगे ब्रम्हदत्त परंपराके जैन नाग राजाओंने अपना एक प्रमुख केंद्र काशीमे स्थापित किया। इस राजपरिवारका संबंध पार्श्‍वमुनीके साथ था, जो उस परिवार के राजकुमार थे। उसी कालमे मगधकी जनताने अंतिम बृहद्रथ राजाके विरुद्ध क्रांति कर उसका अंत कर दिया और काशी राजपरिवारके शिशुनागको बुलाकर वहांका राजपाट सौप दिया। बादमें मगधपर नंद व मौर्य राजवंशोने राज किया। ये दोनो परिवारभी नाग वंशसे संबंधित थे। इस प्रकार मगधपर भी नाग राजाओंने अपना अधिकार जमा लिया और लगभग सारे उत्तरी भारतके स्वामी बन गये। सत्ता या तो नगण्य बन गयी अथवा पूर्णतया समाप्त हो गई। सिंधु घाटीके शहरोंकी पुरातत्वीय खुदाईमे मिली मुद्राओंपर भिल नाग चित्रोसे स्पष्ट है कि हडप्पाई लोग नागपूजा करनेवाले नाग लोग थे। उन्होंने शनै: शनै: आर्योकी शक्तिको क्षीण कर मगध तक सारे उत्तरी भारतपर अपना अधिकार जमा लिया था। यानी महाभारत कालके बाद हड़प्पाईयोंकी संतानोंने सारे उत्तर भारतपर अपना अधिकार जमा लिया था। इसी कारण उन्होंने अपने मूल धर्म जैन बौद्ध धम्मकी वहा स्थापना की। अंतत: यह विजय मौर्य साम्राज्यके रुपमे प्रगट हुयी जो सार्वभौमिक थी, बौद्धमय थी, जिसके कारण बादमे भारत के इतिहासका स्वर्ण युग आया। (240)

G H Rathod

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